मीडिया का एक वर्ग लंबे समय से पाठकों और दर्शकों को शब्दों का खेल कर किस तरह से बरगला रहा है, वह छिपा नहीं है। दो समुदायों से संबंधित खबर को कवर करते हुए अधिकतर संस्थानों का यह दोहरा रवैया देखने को मिल जाता है।

हालिया मामला खुद को देश का सबसे विश्वसनीय और नंबर 1 अखबार बताने वाले दैनिक भास्कर से जुड़ा है। दैनिक भास्कर में दो अलग-अलग दिनों पर प्रकाशित दो खबरों से आप समझ सकते हैं कि कैसे हिंदू धर्म की कुरीति पर बात करते हुए ज्ञानी हो जाने वाला अखबार, दूसरे मजहब की बात आते ही किसी कुरीति को भी ऐसे परोसते हैं, जैसे मामला हँसी-ठिठोली का हो।

19 नवंबर को दैनिक भास्कर में राजस्थान के कुछ हिस्सों में चलने वाली ‘कोना प्रथा’ की कुरीति पर छपती है। अखबार ने जायज सवाल उठाया है कि आखिर पति की मौत के 6 महीने बाद भी एक विधवा को क्यों कोने में सिमटकर रहना पड़ रहा है? क्यों प्रथा के नाम पर उसे उजाला होने से पहले घर के हर काम करवाए जाते हैं और बाद में उसे अंधेरे में ढकेल दिया जाता है।

दैनिक भास्कर की यह कवरेज सराहनीय है। उनका सवाल कि एक विधवा को कोने में डाले रखना प्रथा है या सजा, बिलकुल जायज है। उनका आरोप कि स्त्री के ऊपर इतना अत्याचार पुरूष प्रधान समाज के कारण हो रहा है, बिलकुल सटीक है। कोना प्रथा की कुरीति पर वार करने के अगले ही दिन 20 नवंबर को इसी अखबार में एक और खबर प्रकाशित होती है। इस खबर के अनुसार पाकिस्तान में 22 साल के शौहर के लिए 3 बीवियाँ मिलकर चौथी बेगम खोज रही हैं। गड़बड़ हेडलाइन में नहीं है। अखबार इस खबर को ‘रिश्ते की खूबसूरती’ मानता है। इस खबर को लिखने की शुरुआत से ही अखबार का दोहरा मापदंड झलकने लगता है और पता चलता है कि कैसे वे अपने पाठकों की सोच को बीमार करते हैं।

इस खबर की शुरुआत में ही इस बात को लिख दिया गया है कि मुस्लिम समुदाय में एक से अधिक बार शादी को जायज माना जाता है। पुरुष एक साथ कई बीवियों को रख सकते हैं। यानी पाठक इस खबर को पढ़े तो वह युवक के चौथे निकाह को गलत नहीं समझे, बल्कि उसे अधिकार समझे और हो सकता है कि कभी हँसी-मजाक में दोस्तों के बीच इस युवक की किस्मत की तुलना अपनी किस्मत से कर दे या हो सकता है अपनी बीवियों से भी यही अपेक्षा रखना शुरू कर दे कि उसके लिए वह भी नई बीवी खोजें।

एक विशुद्ध पाठक आपकी खबर को कैसे ग्रहण करेगा, इसका दारोमदार आपके शब्दों पर ही होता है। जिस तरह कोना प्रथा एक कुरीति है, वैसे ही बहुविवाह भी। यह दूसरी बात है कि शरिया कानून इसे जायज मानता है। इसकी आड़ लेकर अख़बार हिंदुओं की कुरीति पर कवरेज करते हुए सवाल करता है कि आखिर क्यों पुरुष प्रधान समाज में महिला को अंधकार में धकेल दिया गया। यह बताता है कि अपनी औरतों पर अत्याचार करने वाले इन पुरुषों पर कोई पाबंदी नहीं होती ये जहाँ चाहे आ जा सकते हैं, जिससे चाहे शादी कर सकते हैं। लेकिन वही अख़बार मजहब का हवाला देकर 22 साल के शौहर की 3 शादियों को जायज ठहरा देता है।

पूरी खबर में एक बार भी इसका जिक्र नहीं किया गया है कि मुस्लिमों में बहुविवाह की रीत महिलाओं के लिए अभिशाप है, जो न केवल उनसे अधिकार छीन रही है बल्कि उनके सोचने समझने की क्षमता को भी शून्य कर रही है। विचार करिए, तीन महिलाएँ अपने एक पति का ख्याल रखने के लिए यह बोल रही हैं कि वह तीनों बच्चों के कारण अपने पति का ध्यान नहीं रख पाती, इसलिए चौथी बेगम आएगी तो उनका ख्याल रखेगी।

क्या औचित्य होता है ऐसी खबरों का? समुदाय विशेष में बहुविवाह को प्रोत्साहन देना या मजहब विशेष के प्रति लोगों को आकर्षित करना? ऊपर से उसे ‘रिश्ते की खूबसूरती’ बताकर प्रचारित करना।

दैनिक भास्कर जैसे अखबारों को समझना चाहिए कि एक मुद्दे पर खबरों को अलग-अलग तरीके से पेश करना आपके पाठक की सोच को निर्मित नहीं करता, बल्कि आपके प्रति उसके उस विश्वास को मारता है कि आप उसे खबर के नाम जागरुक बनाएँगे, उसकी सोच को पहले से बेहतर और समझदार बनाएँगे। आपके ये हथकंडे उसे कुंद मानसिकता में जकड़ते जाते हैं, वह चाहते न चाहते हुए खुद को गर्त में पाता है और फिर आपके दिए तर्कों से वह कुरीतियों को भी जस्टिफाई करना सीख जाता है।अंत में हम ही हैरान होते हैं कि आखिर हिंदुओं के ख़िलाफ़ प्रोपेगेंडा फैलाने वाले इतनी बड़ी संख्या में हिंदू ही क्यों हैं? वास्तविकता में ऐसे लोग दैनिक भास्कर जैसे मीडिया संस्थानों के स्थायी पाठक हैं जो खुद में रिफॉर्म के लिए अखबार पर पूर्ण रूप से आश्रित हैं और अखबार उन्हें अपनी दोहरी मानसिकता में बीमार बनाता रहता है।

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