??वीर तात्या टोपे??

जब हम इतिहास के पन्नों को पलटाकर देखते हैं तो भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले कई सेनानियों का नाम आता है जिनके बारे में हमने कहीं न कहीं सुना है। इनमें मुख्य रूप से भाग लेने वाले सेनानी में तात्या टोपे का नाम अग्रिम पंक्ति में लिखा जाता है। 1857 की क्रांति में इनका अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। तात्या टोपे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक सेना नायक थे। भारत को आज़ादी दिलाने के लिए छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 1857 के विद्रोह के बाद जब वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब जैसे वीर लोग इस दुनिया से विदा लेकर चले गये तब तात्या लगभग एक साल तक अंग्रेज़ों के विरुद्ध लगातार विद्रोह करते रहे। आइए संक्षेप में पढ़ते हैं वीर तात्या टोपे के बारे में।

● कौन थे तात्या टोपे!

तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में 16 फरवरी 1814 में हुआ था। तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे। अपने आठ भाई-बहनों में तात्या सबसे बड़े थे। तात्या के पिता पांडुरंग राव भट्ट, पेशवा बाजीराव द्वितीय के धर्मदाय विभाग के प्रमुख थे। उनकी विद्द्वता एवं कर्तव्यपरायणता देखकर बाजीराव ने उन्हें राज्यसभा में बहुमूल्य नवरत्न जड़ित टोपी देकर उनका सम्मान किया था, तब से उनका उपनाम टोपे पड़ गया था। तात्या की शिक्षा-दीक्षा मनुबाई (रानी लक्ष्मीबाई )के साथ हुई। जब तात्या बड़े हुए तो, 3 जून 1858 को रावसाहेब पेशवा ने तात्या को सेनापति के पद से सुशोभित किया। भरी राज्यसभा में उन्हें एक रत्नजड़‍ित तलवार भेंट कर उनका सम्मान किया गया।

● तात्या टोपे और 1857 का स्वतंत्रता संग्राम 

तात्या टोपे बचपन से ही तेज और साहसी थे, सन 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की जंग प्रारम्भ हुई तब तात्या ने 20000 सैनिको के साथ मिलकर अंग्रेजों को कानपुर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इसके साथ ही तात्या ने कालपी के युद्ध में झाँसी की रानी की मदद की। नवंबर 1857 मे इन्होंने ग्वालियर में विद्रोहियों की सेना एकत्र की और कानपुर जीतने के लिए प्रयास किया, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। इसका प्रमुख कारण यह था कि ग्वालियर के एक पूर्व सरदार मानसिंह ने जागीर के लालच में अंग्रेजो से हाथ मिला लिया, जिससे ग्वालियर फिर से अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गया। इसके बाद तात्या को नाना साहब का साथ मिला। नाना साहेब के साथ मिलकर तात्या ने गुरिल्ला युद्ध तकनीक का प्रयोग कर अंग्रेज़ों को बहुत हानि पहुंचाई। तात्या अपने सैनिकों के साथ अचानक से आते और आक्रमणकारी युद्ध के बाद अदृश्य हो जाते है। तात्या टोपे ने विन्ध्या की खाई से लेकर अरावली पर्वत श्रृंखला तक अंग्रेजों से गुरिल्ला पद्द्ति से ही युद्ध किया था। कहते हैं कि अंग्रेज तात्या टोपे जी को 2800 मील तक पीछा करने के बाद भी पकड़ नहीं पाए थे। वीर शिवाजी के राज्य में जन्में तात्या टोपे जी ने उनकी गुरिल्ला युद्ध तकनीक को अपनाते हुए अंग्रेजों बहुत दिनों तक छकाया। झाँसी पर अंग्रेज़ों का आक्रमण होने पर रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या से सहायता मांगी, तब तात्या ने 15000 सैनिकों की टुकड़ी झाँसी भेजी। तात्या ने कानपुर से निकलकर बेतवा, कूंच और कालपी होते हुए ग्वालियर पहुंचे थे, लेकिन इससे पहले ये स्थिर हो पाते वो जनरल रोज से हार गये। और दुर्भाग्य से इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई। इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने तात्या टोपे को गुना जिले की पारोन गिरफ्तार किया था और इसके बाद उन्हें शिवपुरी लाया गया और उन्हें यहां पर शिवपुरी की उप जेल की बैरक नंबर 2 में रखा गया था। तात्या को मानसिंह से मिले धोखे की वजह से पकड़ा गया। राजगद्दी के लालच में मानसिंह ने अंग्रेज़ों को गुप्त सूचना दे दी, और 7 अप्रैल 1859 को रात के समय तात्या को गिरफ्तार कर लिया।

हालांकि तांत्या के मृत्यु के विषय में मतांतर है, कुछ इतिहासकार का मानना है कि शिवपुरी में ही उन्हें 18 अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। वहीं कुछ इतिहासकारों का कहना है कि झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के वीरगति प्राप्त होने के बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन रहा। लगभग सभी स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। और ऐसे ही एक छापामार युद्ध के दौरान मानसिंह ने अंग्रेजों को तात्या की सूचना दे दी। लेकिन वो अंतिम सांस तक अंग्रेज़ों से लोहा लेते रहे और 18 अप्रैल को लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए। हालांकि इतिहासकार डॉ रामचंद्र बिल्लौर द्वारा लिखित “हमारा देश” पुस्तक तात्या के सम्बन्ध में एक नवीन शोध प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार राजा मानसिंह ने तात्या टोपे को धोखा नहीं दिया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों की ही आँखों में धूल झोंकी ताकि तात्या के स्वामिभक्त साथी को नकली तात्या टोपे बनने के लिए तैयार किया जा सके। इसके बाद उसी नकली तात्या टोपे को अंग्रेजों ने पकड़ा और फांसी दे दी। और असली तात्या टोपे इसके बाद भी आठ-दस वर्ष तक जीवित रहे और बाद में स्वाभाविक मौत से मरे। तात्या टोपे का शौर्य केवल भारत ही नहीं अपितु विदेशों तक फैला। यही वजह थी कि उन्हें उनके समकालीन इटली के महान योद्धा गैरीवाल्डी के समान माना गया। उन्हें कई विदेशी इतिहासकार भारत का गैरीवाल्डी भी कहते हैं। 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने वाले ब्रिटिश कर्नल मालेसन ने लिखा था कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती घाटियों के निवासियों के नायक बन गये थे।

टिप्पणी : तात्या टोपे एक अद्भुत योद्धा थे, कठिनाइयों से घबड़ाना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था। वो पराजय के बाद दोगुनी ताकत से उठ खड़े होते। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। घातक गोरिल्ला युद्धनीति अपनाते हुए उन्होंने अंग्रेज़ों पर ज़ोरदार प्रहार किया। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए तात्या एक प्रमुख नायक बनकर उभरे थे। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क के नेता थे’। अगर उनकी तरह कुछ और लोग होते तो 1857 विद्रोह के साथ ही अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था। दांतों में उंगली दिए मौत भी खड़ी रही, फौलादी सैनिक भारत के इस तरह लड़े। अंग्रेज बहादुर एक दुआ मांगा करते, फिर किसी तात्या से पाला नहीं पड़े।’

वन्देमातरम्

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