570 ई. में प्रोफेट मुहम्मद का जन्म हुआ। 610 ई. अल्लाह का संदेश मिला और फिर उन्होंने एक ईश्वर को मानने का उपदेश दिया और इस्लाम नाम के धर्म की स्थापना की लेकिन मक्का वासियों को ये पसंद नहीं आया और संघर्ष के चलते 622 ई. में उन्हें मक्का छोड़ के मदीना आना पड़ा। 629 ई. मैं मक्का जीत लिया गया और मक्का वालों को इस्लाम कबूल करना पड़ा। 629 ई. में प्रोफेट का देहांत हुआ।
राशिदून ख़िलाफ़त:
632 ई. में अबु बक्र खलीफा बने और पहली बार ख़िलाफ़त (खलीफा के शासन) की शुरुआत हुई। 634 ई. में अबु बक्र की मृत्यु के बाद उमर इब्न अल-ख़त्ताब खलीफा बने। उसने इस्लाम को दुनिया के कोने कोने तक पहुंचाने के लिए सकिफी जाती के उस्मान को बहरीन और ओमान जीतने के लिए भेजा। उस्मान ने अपने भाई हकम को बहरीन भेजा और खुद ओमान गया। वहाँ से उस्मान ने थाणे (मुंबई वाला) पर आक्रमण करने के लिए नौ सेना का काफ़िला भेजा। लेकिन वहाँ बादामी के चालुक्य पुलकेसीन द्वितीय का राज्य था उसने आरबों को ऐसा जवाब दिया की कुछ सालो तक थाणे की दिशा ही छोड़ दी।
643 ई. में आरबों ने हकम की अगवाई में भडोच (भरूच, गुजरात) पर हमला किया लेकिन वहाँ मैत्रक राजा धनसेन ने हमले को निष्फल बना दिया।
इसी साल आरबों ने कराची के पास देबल पर भी हमला किया। इसकी ज़िम्मेदारी उस्मान के एक और भाई मुघरिया ने ली थी। इस वक्त सिंध में राजा चच का राज था। और देबल का सुबा (Governor) देवाजी का पुत्र सांब था। आरबों ने सोचा था की देबल में सिर्फ व्यापारी ही रहते है और थोड़े बहुत जो क्षत्रिय रहते है वह भी बौद्ध धर्मी थे। इसीलिए आसानी से देबल जीत लेंगे। लेकिन वहाँ के शासक सांब ने खुद सेना की अगवाई की और बड़ी ही आक्रामकता से युद्ध किया जिसमें आरबों का सेनापति मुघरिया खुद मारा गया। यह घटना स्वयं आरबों के लिए चौकने वाली थी।
ये सभी हमले खास बन्दरगाह और व्यापार को देखते हुए किए गए थे। इतिहासकार इसे जीतने के बजाय लूटने के इरादे से किया ऐसा ज्यादा मानते है।
इस हार के बाद भी खलीफा उमर भारत पर आक्रमण करना चाहता था। उसने मकरण (बलूचिस्तान) पर आक्रमण करने के लिए उस्मान को भेजा और उस वक्त इराक का सुबा अबु मूसा था उमर ने उसको मदद के लिए कहा। लेकिन अबु मूसा ने खलीफा को कहा कि सिंध का राजा चच बहुत ही आक्रामक और सर फिरा है और बलूचिस्तान में मेर, जाट और लोहाना की ज्यादा पॉप्युलेशन थी जो बहुत ही आक्रामक और लडायक जातियाँ मानी जाती है इसीलिए इस विचार को आगे बढ़ाना योग्य नहीं। अबु मूसा की बात की गंभीरता समझते हुए खलीफा उमर ने इस विचार को छोड़ दिया।
644 ई. में खलीफा उमर शहीद हुए और सेनापति उस्मान अब खलीफा बने। उस्मान ने सिंध और हिन्द के खिलाफ जिहाद चालू रखने के लिए अब्दुल्ला नाम के सेनापति को आक्रमण करने के लिए भेजा। अब्दुल्ला इराक के बसरा से मकरण की तरफ निकला। अब्दुल्ला ने हाकेम नाम के आदमी को सिंध की जासूसी करने के लिए भेजा। लेकिन हाकम ने जो बाते बताई वह सुनने के बाद आरबों की आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई।
अब 656 ई. में अली खलीफा बने और इसने सिंध के खिलाफ जिहाद करने का आदेश दिया। सधिर नाम के सेनानी को पूरी सेना के साथ भेजा। वह बाश पर्वत जो कीकण पर्वतमाला का हिस्सा था वहाँ आए। वहाँ भीषण लड़ाई के बाद जब जीतने ही वाले थे की खलीफा अली की हत्या का समाचार सुना और सेना वापिस लौट गई।
अली की मौत के बाद अब राशिदून ख़िलाफ़त: पूरी हो गई और उसकी जगह उम्मयद खिलाफ़त की शुरुआत हुई
उम्मयद ख़िलाफ़त:
उम्मयद ख़िलाफ़त की नीव मुआविया ने रखी। उसने अब्दुल्ला नाम के सेनापति को सिंध पर आक्रमण करने भेजा लेकिन कीकण प्रदेश में ही स्थानिक लोगों के साथ युद्ध में मारा गया।
जिससे मुआविया ने इराक के सुबा (Governor) को पत्र लिख के कहा के सिंध पर आक्रमण करने के लिए योग्य व्यक्ति की नियुक्ति की जाये। इसीलिए उस समय जायेद नाम का व्यक्ति इराक का स्थानिक शासक था उसने अहनाफ (हनीफ) को नियुक्त किया लेकिन वह कुछ कर नहीं सका इसीलिए दो साल बाद उसे हटा दिया गया।
उसके बाद मुआविया ने रशीद नाम के एक सेनापति को सिंध जीतने भेजा। लेकिन मकरण की मौजर और भर्ज की पहाड़ियों में स्थानिक लोगों ने 50,000 का सैन्य इकट्ठा करके रखा था। वे सब आरबों पर टूट पड़े और रशीद के साथ सारा सैन्य खत्म कर दिया गया।
फिर जायेद ने सिनन नाम के सेनापति को वहाँ नियुक्त किया जिसने मकरण में काफी गाँव जीत लिए। लेकिन जब बुधिया की तरफ रुख किया तो वहाँ युद्ध में मारा गया।
फिर उसकी जगह मुजीर को नियुक्त किया गया लेकिन उसे सिंध की आबोहवा सहन नहीं हुई और बीमार पड़ के मर गया। उसकी जगह उसके बेटे हकम ने ली।
694 ई. अब्दुल मलिक खलीफा बने उसने हज्जाज को इराक का सुबा(गवर्नर) बना दिया। हज्जाज ने असलम किलबी को सिंध जीतने के लिए भेजा। वे जब भारत आ रहे थे तब रास्ते में उन्हे अलाफ़ी जाती का सफवा मिला। उन्हें सफवा से मदद मांगी लेकिन सफवा ने इंकार किया तो उन लोगों ने सफवा को मारकर उनकी गर्दन हज्जाज को भेज दी।
इससे अलाफ़ी जाती के लोगों में आक्रोश फैल गया। एक बार किलबी और अलाफ़ी मरली-बखराज के पास आमने सामने आ गए तो अलाफ़ीने किलबी को मार दिया। तब से अलाफ़ी सिंध के राजा दाहर की शहर में आ गए। (लेकिन आश्चर्य तब होता है कि जब 711 मे मुहम्मद बिन कासिम आता है तो यही अलाफ़ी उसके आश्चर्य दाता दाहर के लिए नहीं लड़ते है और भाग जाते है। उनके लिए इस्लाम पहले है।)
704 ई. हज्जाजे मुझा को नियुक्त किया और उसने कंडेल पर कब्जा कर लिया।
705 ई. में वालिद खलीफा बने और उसने मुहम्मद हारून को भेजा और हज्जाज ने उसे पूरी मदद की। वह भारत के सीमा वर्ती गांवों में दहशत फैलाता रहा और सबसे खंडणी वसूल करता रहा।
711 ई. में सिंहल द्वीप से एक जहाज आ रहा था। वह ईरान की तरफ जा रहा था लेकिन समुद्री तूफान की वजह से कराची के पास देबल के पास वह जहाज आ गया। वहाँ नागम्राह नाम की जाती के लोगों ने उसे लूट लिया। यह खबर हज्जाज तक गई। हज्जाज ने दाहर को खत लिखा की हमारे लोग और हमारा खजाना वापिस करो लेकिन दाहर ने कहा कि वे लुटेरे है। वह मेरी प्रजा नहीं है। और न ही उनपर मेरा कोई शासन चलता है। इस जवाब से गुस्से में आकार हज्जाज ने बजील नाम के सेनापति को बड़ी सेना के साथ भेजा लेकिन दाहर के बेटे जयसिंह ने उन्हे मार भगाया।
फिर इस हार के बाद हज्जाज ने अपने भतीजे और दामाद मुहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण करने भेजा।
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