ध्यातव्य हो कि गत्त कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल में शासन व्यवस्था पूर्ण रूप से विफल रही है । इसका जीता जागता उदाहरण है बंगाल में होती आ रही हिंसा जो कि पूर्ण रूप से राजनीति से प्रेरित ज्ञात होती है । खास कर ममता सरकार द्वारा सरकार के विरोध में आवाज उठाने वाले लोगों को जानबूझ कर निशाना बनाया जा रहा है, उनके घरों को तोड़ा जा रहा है, ऐसा करने से रोकने पर परिवार जनों को मारा जा रहा है तथा महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया जा रहा है । आश्चर्य की बात यह है की इतना कुछ घटित होने के बावजूद मीडिया चैनल , पत्रकार तथा समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी लोग मुक दर्शक बने हुए हैं । शायद उनके के लिए विध्वंसक गतिविधियां एवं हत्याएं भी राज्य तथा सरकारें देख कर मायने रखती है ।  बंगाल की वर्तमान परिदृश्य को देखकर वर्ष 1972 की घटनाएं याद आती है जब सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने भी राजनितिक विरोधियों को सबक सिखाने में सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया था। उस समय की तत्कालीन  सरकार द्वारा भी चुन – चुन कर सरकार विरोधी लोगों को मारा जाता था वही झलक आज भी देखने को मिल रही है । इसके साथ ही वर्ष 1979 में हुए मरीचझापी नरसंहार को भी नहीं भुला जा सकता है जब एक तरफ 26 जनवरी 1979 को सम्पूर्ण देश धूम – धाम से गणतंत्र दिवस मना रहा था वहीं दूसरी ओर लेफ्ट सरकार द्वारा सुनियोजित तरीके से मरीचझापी द्वीप को चारों तरफ से घेर कर सारी आवश्यक सामग्री के आयात पर रोक लगा कर एवं पीने वाले पानी के मुख्य स्रोत में जहर मिला कर लोगों को भूखे प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया गया था। इन सरकारों में बस फर्क इतना है की तब काँग्रेस, बाद में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी और अब लेफ्ट सरकार को सत्ता से बेदखल कर सरकार में आई ममता बनर्जी नेतृत्वित तृणमूल कांग्रेस की सरकार है । वर्तमान की ममता सरकार बंगाल में हो रही खुलेआम गुंडई एवं नरसंहार पर लगाम लगाने में पूरी तरह से विफल है । खास कर तृणमूल काँग्रेस जबसे पुनः सत्ता में आई है तबसे पश्चिम बंगाल में हिंसा काफी बढ़ गई । आज के समय में राष्ट्रवादी सोच रखने वाले लोगों को बंगाल से असम की ओर पलायन होने पर मजबूर होना पड़ रहा है । यही कारण है कि पिछले कुछ दिनों में हजारों परिवार पलायन कर गए हैं ।  हालांकि पलायन वाली स्थिति समय समय पर भारत में उत्पन्न होती रही है । चाहे वो भारत पाकिस्तान विभाजन के समय हो या पूर्वी बंगाल विभाजन का समय या फिर कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से पलायन की घटना हो और अब पश्चिम बंगाल में हो रहे पलायन । अंतर बस इतना है की तब केंद्र में काँग्रेस की सरकार थी और वर्तमान में राष्ट्रवाद की आवाज को बुलंद करने वाली एक मजबूत राष्ट्रवादी भाजपा सरकार है, पर स्थिति वही पुरानी है । अभी की स्थिति को देख कर पूर्व में घटित घटनाओं का अंदाज लगाया जा सकता हैं। की कैसे पहले की घटनाओं को दबा दिया जाता होगा जब वर्तमान में प्रेस की स्वतंत्रता एवं मीडिया में इतनी पारदर्शिता होने के बावजूद खबरें दबा दी जाती है ।  ऐसे में केंद्र सरकार को दखल देते हुए लोगों को पलायन से रोकने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए । आवश्यकता पड़ने पर चाहें राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश ही क्यूँ ना करना पड़े ।

       एक ओर उपरोक्त घटनाएं घटित हो रही है वहीं दूसरी ओर उसी पश्चिम बंगाल में हिंदुओं को निशान बनाया जा रहा है । हिंदुओं के पवित्र मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है, मूर्तियाँ टोड़ी जा रही है । जबकि दशहरा के दौरान एक समुदाय विशेष को खुश करने के लिए बंगाल की प्रसिद्ध काली/दुर्गा  पूजा पर पाबंदी लगा दी जाती है । और आम जनता चुप चुप तमाशा देखने को मजबूर हो जाती है । यदि कोई इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करता भी है तो उसे चुप करने के लिए उसपर हमला करवा दिया जाता है या उसे जान से मरवा दिया जाता है ताकि अन्य लोग ऐसा करने से पहले कई बार सोचें । साथ ही केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी बंगाल में हस्तक्षेप करने से कतरा रही है जबकि ऐसे हालात में तत्काल प्रभाव से राष्ट्रपति शासन लागू करवाना चाहिए । बता दें की ऐसे हालात के मद्देनजर बंगाल में पहले भी राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है । अंतर है तो बस इतना की तब सरकारें अलग थीं केन्द्र में भी एवं राज्य में भी । बंगाल की जनता वामपंथ की रक्तरंजित खेल से ऊब कर एक दसक पहले विकल्प के रूप में ममता बनर्जी को अपने मुख्यमंत्री के रूप में चुना था । शायद उस समय लोगों को इस बात का अंदेशा नहीं था की जिसे वो विकल्प के रूप में चुन रहे हैं वो भी वैसे ही निकलेगी बल्कि उससे भी कई कदम आगे, जैसा वो लोग पूर्व में  भुगतते आ रहे है । पश्चिम बंगाल में मौजूदा ममता सरकार छात्रों पर भी निरंकुश शासक वाली रवैया अपनाती रही है, आवाज उठाने वाले छात्र संगठनों के कार्यकालों को विध्वंस करना , उनके कार्यकर्ताओं को मारना इनके लिए आम बात है । जब हम बात करते है लोकतंत्र की तो बंगाल को देख कर लगता है की लोकतान्त्रिक शक्ति का दुरपयोग करके पुलिसिया कारवाई करके लोगों की आवाज दबाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं करती है ।         एक तरफ सम्पूर्ण देश में लोग कोरोना महामारी की वजह से अपनी जानें गवां रहे है वही दूसरी ओर प. बंगाल में लोग कोरोना के साथ साथ तृणमूल कांग्रेस के गुंडों के हाथों अपनी जानें गवां रहे है । हालांकि केन्द्र में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने वाली भाजपा भी पश्चिम बंगाल में बौना प्रतीत होती है । शायद यही कारण है की किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने की जगह इतनी हत्याओं के बावजूद भी ये बंगाल में धरण देने की बात कह रहे हैं । हैरानी की बात यह है की जो राजनीतिक दल बंगाल चुनाव 2021 में अपनी खाता नहीं  नहीं खोल पाए वो आत्ममंथन करने की जगह ममता बनर्जी की पुनः सत्ता में वापसी की जश्न मना रहे है । खैर मुझे अभी भी आशा है की लोकतंत्र की चतुर्थ स्तम्भ काही जाने वाली मीडिया में इस मुद्दे को भी उतना ही प्रमुखता से दिखाई जाएगी । जितना की अन्य राज्यों से संबंधित अन्य खबरें दिखाई जाती है। अन्यथा यह देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्य विषय होगा कि जिस विषय को ज्यादा आकर्षण मिलना चाहिए उसे दिखने की जगह दबा दिया जा रहा है ।

(लेखक – प्रियांक देव सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समसामयिक  घटनाओं के बारे में लिखते हैं।)

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