कांग्रेस संकट में है, या यह कहना अधिक उचित है कि आईसीयू में है। यह आकलन मेरा नहीं, अपितु कांग्रेस में हाल ही में शामिल हुए वामपंथी कन्हैया कुमार का है। जब 28 सितंबर को वे राहुल गांधी की उपस्थिति में कांग्रेस का आधिकारिक हिस्सा बने, तब प्रेसवार्ता में अपनी नई पार्टी के लिए कन्हैया ने “..कांग्रेस खतरे में है”, “..अगर पार्टी नहीं बचेगी, तो..” जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया। कांग्रेस को बचाने का दंभ भरने वाले कन्हैया की सार्वजनिक विश्वसनीयता- 2019 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय (बिहार) सीट से उनकी शर्मनाक हार से स्पष्ट है। तब भाजपा प्रत्याक्षी (वर्तमान केंद्रीय मंत्री) गिरिराज सिंह ने कन्हैया को 4.20 लाख मतों से पराजित किया था। कन्हैया के साथ गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी, जोकि घोषित वामपंथ समर्थक है- वह भी परोक्ष रूप से कांग्रेस में शामिल हुए है। इन दोनों की एकमात्र विशेषता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गाली देना और उद्योग-व्यापार जगत के लोगों पर निशाना साधना है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी यही काम लंबे समय से कर रहा हैं।

निसंदेह, कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। यह विचार केवल पार्टी में प्रवेश करने वाले नए लोगों (कन्हैया सहित) का ही नहीं, अपितु कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं और यहां तक कि अपमान सहने के बाद भी पार्टी में बने रहने वाले वरिष्ठ नेताओं का भी है। जहां पंजाब के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने को बाध्य हुए और फिर पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा करने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह का कहना है कि राहुल-प्रियंका अनुभवहीन है और कांग्रेस पार्टी पतन की ओर जा रही है, तो वही कपिल सिब्बल, जो पार्टी के “जी-23” का हिस्सा है- उन्होंने भी कांग्रेस नेतृत्व की कार्यशैली पर सवाल उठाया है। इसे लेकर 29 सितंबर को सिब्बल के दिल्ली स्थित आवास पर पार्टी कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया, जिसमें उनकी निजी कार क्षतिग्रस्त हो गई। यह दबंगई तब है, जब वर्तमान दौर स्मार्टफोन, इंटरनेट और 24×7 मीडिया (सोशल मीडिया सहित) है। इस पृष्ठभूमि में अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि 1948 में चितपावन ब्राह्मणों की सामूहिक हत्या, 1975-77 के आपातकाल और 1984 में सिख नरसंहार में कितनी “निर्भीकता” रही होगी।

वास्तव में, कांग्रेस का संकट केवल परिवारवादी नेतृत्व संबंधित नहीं, साथ ही उसकी नीयत का भी है, जो 1969-71 से अबतक “आउडसोर्स्ड” वामपंथी विष-आलिंगन से जकड़ी है। इसका राजनीतिक उद्देश्य हिंदू समाज को जातियों के नाम पर बांटना और मुसलमानों को इस्लाम के नाम एकत्र रखना है। इसी बौद्धिक केंचुली को धारण करके कांग्रेस की पारिवारिक चौकड़ी जहां भारतविरोधी नारे लगाने के आरोपी कन्हैया कुमार का पार्टी में सहर्ष स्वागत करती है, तो कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे जननेता, जोकि पूर्व सैन्य अधिकारी (1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का हिस्सा रहे) भी है और राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक विरोध को हावी नहीं होने देते है- उनका अपमान करने से नहीं चूकती है।

कन्हैया-जिग्नेश उस वैचारिक खानदान (वामपंथ) से आते है, जिसने अपने भारत-हिंदू विरोधी दर्शन के अनुरूप 1942 के “भारत छोड़ो आंदोलन” में ब्रितानियों के लिए मुखबिरी की। गांधीजी, नेताजी आदि देशभक्तों को अपशब्द कहे। पाकिस्तान के जन्म में मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के साथ मिलकर महती भूमिका निभाई। भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार किया। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकरों को पूरी मदद दी। 1962 के भारत-चीन युद्ध में वैचारिक समानता के कारण चीन का साथ दिया। 1967 में वामपंथी चारू मजूमदार ने नक्सलवाद को जन्म दिया, जिसका विस्तृत रूप “अर्बन नक्सलवाद” है। ये वही कुनबा है, जो साम्यवादी सोवियत रूस (1949) और चीन (1964) के परमाणु कार्यक्रमों पर गौरवान्वित हुआ था, किंतु 1998 के पोखरण परीक्षण का विरोध करते हुए उसे “युद्ध-उन्माद” और “हिंदू बम” जैसी संज्ञा देकर शोक प्रकट किया था।

यह चिंतन आज भी अपरिवर्तित है और अन्य देशविरोधी शक्तियों (जिहादियों और चर्च सहित) के साथ मिलकर खंडित भारत को फिर से कई टुकड़ों में विभाजित करने हेतु लीन है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 2016 का जेएनयू प्रकरण है- जब कन्हैया पर “भारत तेरे टुकड़े होंगे…इंशा अल्लाह…”, “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं” और “आजादी, आजादी” जैसे देशविरोधी नारे लगाने वाली वाम-भीड़ का नेतृत्व करने का आरोप लगा था। तब कन्हैया का साथ देने वालों में वामपंथियों के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ राहुल गांधी अग्रणी थे।

राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंडता, संप्रभुता, गौरव और भारतीय संस्कृति के प्रति वामपंथियों के घृणास्प्रद दर्शन का स्रोत क्या है? इसका उत्तर 1850 के दशक में इनके मानसपिता और साम्यवादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स के विचारों में मिलता है। वर्ष 1853 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 10 जून और 8 अगस्त के अंक में मार्क्स- ब्रितानियों द्वारा मूल भारतीय समाज को उजाड़ने, स्थानीय उद्योग-धंधों को तबाह करने और देशज सभ्यता को धूल-धूसरित करने पर आनंदित हुए थे, तो हिंदुओं को अंधविश्वासी बताकर उन्हें प्रकृति और गाय की पूजा करने वाला कहकर उपहास किया था। इन विचारों का सार यह था कि भारतीय संस्कृति और परंपराओं के विनाश के बाद ही वामपंथ अनुरूप व्यवस्था का निर्माण हो सकता है और इसका अनुसरण मार्क्स के असंख्य रक्तबीज, जो स्वयं को उदारवादी भी कहना पसंद करते है- वे आज भी कर रहे है।

जब कन्हैया कांग्रेस में शामिल हुए, तब उन्होंने राहुल गांधी को गांधीजी, डॉ.अंबेडकर, भगत सिंह की तस्वीर भेंटस्वरूप देकर यह संकेत देने का प्रयास किया कि वे इनके आदर्शों का अनुगमन करेंगे। यह पहली बार नहीं है, जब इन राष्ट्रपुरुषों के प्रति वामपंथी अपना प्रेम प्रकट कर रहे है। इनकी यह भक्ति उतनी ही विरोधाभासी है, जितना वास्तव में वाम-उदारवाद है। जहां वामपंथी विचारधारा आज भी हिंसा-असहिष्णुता केंद्रित है, तो गांधीजी अहिंसावादी, आस्थावान सनातनी हिंदू और सहिष्णु थे।

डॉ.अंबेडकर द्वारा लिखित संविधान के नाम पर विषवमन करने वाले वामपंथियों के लिए स्वयं बाबासाहेब के क्या विचार थे, यह उनके द्वारा 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए भाषण से स्पष्ट है। उनके अनुसार, ‘..कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है…।’ यह वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है और वामपंथियों द्वारा अक्सर लगने वाले “लोकतंत्र-संविधान बचाओ” नारे की हवा निकालने हेतु पर्याप्त है।

वामपंथी कई कुतर्कों को माध्यम बनाकर भगत सिंह को अपना घोषित कॉमरेड मानती है और उनके सभी विचारों का समर्थन करने का दावा करती है। किंतु मार्क्सवादी भगत सिंह द्वारा 1923 में प्रस्तुत उस विचार को सुविधाजनक रूप से सामने लाने से बचती है, जिसे भगत सिंह ने पंजाब-हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में निबंध लिखते समय प्रस्तुत किया था। तब उन्होंने एक स्थान पर लिखा था, “…मुसलमानों में भारतीयता का पूर्ण अभाव है, इसलिए वे अरबी लिपि और फारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं। भारतीयता के महत्व को समझने में विफल रहने के कारण वे एक भाषा के महत्व को भी समझने में असफल रहते हैं, जो केवल हिंदी हो सकती है। इसलिए वे तोते की तरह उर्दू की मांग दोहराते रहते हैं और अलग-थलग पड़ जाते हैं।” दिलचस्प है कि यह निबंध मार्क्सवाद संबंधित वेबसाइट https://www.marxists.org/archive/bhagat-singh/1923/x01/x01.htm पर आज भी उपलब्ध है।

सच तो यह है कि वामपंथियों द्वारा गांधीजी, डॉ.अंबेडकर और भगत सिंह से निकटता का एकमात्र उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को कटघरे में खड़ा करना है। वे जानते है कि उनके भारत को टुकड़े-टुकड़े करने के घोषित लक्ष्य के बीच यदि कोई अवरोधक है, तो वह आरएसएस-भाजपा है। इस पृष्ठभूमि में कन्हैया और मेवाणी को पार्टी में शामिल करने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस नेतृत्व जनभावना को समझने और सुधार की इच्छाशक्ति दम तोड़ चुकी है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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