वेद ही क्यों?

संसार के सभी मत वाले अपने-अपने धर्म ग्रन्थों को ईश्वरीय ज्ञान कहते हैं, तब प्रश्न उठता है कि वेद ही क्यों?

इस प्रश्न को उपस्थित करने वाले दो प्रकार के वर्ग हैं। एक वर्ग को हम आस्तिक या धार्मिक लोगों का वर्ग कह सकते हैं और दूसरे वर्ग को नास्तिक या अधार्मिक लोगों का वर्ग।

जो नास्तिक या अधार्मिक लोग हैं वे तो ईश्वर या धर्ममात्र के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में सभी धर्मग्रन्थ त्याज्य हैं, इसलिए वे किसी भी धर्मग्रन्थ के गुणावगुण पर विचार करने को भी तैयार नहीं, परन्तु जो धार्मिक लोग हैं, वे भी नाना सम्प्रदायों और अनेक मत-मतान्तरों में बँटे हुए हैं और हरेक मतवादी अपने ही धर्मग्रन्थ को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ऐसा मानना स्वाभाविक भी है। मतवादियों को अपने मत से मोह होता ही है। इस मोह के वशीभूत होकर यदि कोई अपने मत को अन्य मतों से तथा अपने धर्मग्रन्थ को अन्य धर्मग्रन्थों से उत्कृष्ट समझे तो इसे अनुचित कैसे कहा जाए? प्रत्येक माता को अपना पुत्र ही संसार में सबसे सुन्दर लगता है न!

विभिन्न मतवादी लोग अपने मत की उत्कृष्टता सिद्ध करने में इस सीमा तक आगे बढ़ गए हैं कि वे अपने धर्मग्रन्थ को ही ईश्वर-कृत मानते हैं और अपने धर्मग्रन्थ की भाषा को भी ईश्वरीय या दैवीय भाषा मानते हैं। प्राचीन यहूदी लोगों का विश्वास था कि परमात्मा को केवल हिब्रू भाषा ही आती है, उसी हिब्रू भाषा में उसने संसार को धर्म का उपदेश दिया। जैनी लोग चिरकाल तक यह मानते रहे हैं कि तीर्थंकरों की भाषा केवल मागधी थी। यही दिव्य भाषा है इसलिए उसी में उपदेश दिया गया है। यहां तक कि उनके विश्वास के अनुसार संसार भर के पशु-पक्षी भी मागधी भाषा ही जानते हैं।

अधार्मिक या नास्तिक लोगों की बात फिलहाल छोड़ दें। उनकी आवाज में जितना कोलाहल का जोर है उतना तर्कों का औचित्य नहीं। नास्तिकता एक फैशन बन गया है और फैशन तर्कातीत होता है, परन्तु जो आस्तिक हैं और धार्मिक हैं, उनमें भी परस्पर इतने मतभेद हैं कि बहुत बार इनकी परस्पर सिर फुटव्वल देखकर यही मन में आता है कि इनसे तो नास्तिक ही अच्छे!

परन्तु नास्तिकता से भी मनुष्य की बुद्धि को सन्तोष नहीं होता। वह ऊहापोह करती ही रहती है। मनुष्य के मन में मोह का समावेश भी होता ही रहता है- परन्तु उस मोह के कारण क्या वह इतना अन्धा हो जाए कि सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय में विवेक करना भी छोड़ दे!

तो फिर सत्य को पहचानने का उपाय क्या है? हरेक धर्मावलम्बी अपने धर्मग्रन्थ के ही सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करे तो उन दावों की परीक्षा कैसे की जाए?

एक अचूक उपाय

इसका उपाय बड़ा सरल है। कोई भी इतिहास का विद्यार्थी यदि अपनी आंखों पर से पक्षपात की ऐनक उतार कर संसार भर के धर्मग्रन्थों का अध्ययन करे तो वह एक बात देखकर चकित रह जाएगा। उसे उन सब धर्मग्रन्थों की कुछ बातों में परस्पर समानता प्रतीत होगी। (यहां यह कहने का हमारा अभिप्राय नहीं है कि सब धर्मग्रन्थों में सब बातें समान हैं। परस्पर विरोध भी है, भयंकर विरोध है। पर कुछ बातें मिलती-जुलती अवश्य हैं- इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।) यह समानता मानव-बुद्धि की समान चिन्तन-प्रणाली की द्योतक हैं। यदि ऐसी बात न होती तो अच्छी बात को सारा संसार अच्छा और बुरी बात को सारा संसार बुरा न कहता। न्याय और अन्याय की कसौटी भी नहीं रहती।

सहज और सरल उपाय यही है कि सब धर्मग्रन्थों में जितनी बातें समान हैं उन्हें एकत्र कर लीजिए और जिन बातों में परस्पर विरोध है, उन्हें छोड़ दीजिए। सब धर्मग्रन्थों की परस्पर समान बातें ही धर्म हैं, ग्राह्य हैं, आदेय हैं और परस्पर-विरुद्ध बातें अधर्म हैं, अग्राह्य हैं और हेय हैं।

स्वभावतः प्रश्न होगा कि वेद ही क्यों- इस प्रश्न के साथ उक्त कथन की क्या संगति है? उत्तर से पहले हम पूछते हैं कि विभिन्न धर्मग्रन्थों से चुन-चुनकर जो परस्पर समान बातें आपने एकत्र की हैं- जिन्हें धर्म का शुद्ध स्वरूप कहा जा सकता है, उन सबका मूल आधार क्या है?

क्या कुरान? क्या पुराण? क्या बाइबिल! क्या जेंद अवस्ता? क्या त्रिपिटक? क्या कोई अन्य धर्मग्रन्थ?

उत्तर में वितण्डा की आवश्यकता नहीं। यह सीधा इतिहास का प्रश्न है। इतिहास की शरण लीजिए और सही उत्तर को खोजिए।

संसार के समस्त इतिहासज्ञ जानते हैं कि अब से लगभग १४०० (१४४७) वर्ष पहले हजरत मुहम्मद साहब इस संसार में नहीं थे। जब इस्लाम के पैगम्बर ही नहीं थे तो उनके पैरोकार कहां से होते? कहां से होती उनकी कुरान? स्पष्ट है कि अबसे लगभग १४०० (१४४७) साल पहले इस दुनियां में हजरत मुहम्मद साहब, कुरान शरीफ और इस्लाम का नाम लेने वाला कोई नहीं था, उनका अस्तित्व नहीं था।

फिर रही बाइबिल। बाइबिल को अधिक से अधिक १९६६ (अब २०१९) साल पुराना माना जा सकता है क्योंकि ईसा के साथ सम्बद्ध ईस्वी सन् इससे आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देता। यद्यपि सत्य तो यह है कि बाइबिल का कोई भी भाग ईसा के समय नहीं बना था, वह उनके शिष्यों की कृति है, ठीक वैसे ही जैसे कि त्रिपिटक महात्मा बुद्ध की नहीं प्रत्युत उनके शिष्यों की कृति है। जो भी हो, बाइबिल का या न्यू टेस्टामेन्ट का समय और पीछे नहीं ले जाया जा सकता। जब १९६६ (अब २०२१) वर्ष पहले हजरत ईसामसीह ही नहीं थे तो ख्रीस्ती धर्म या उनका धर्मग्रन्थ बाइबिल भी कहां से होता।

तो क्या यहूदियों का धर्मग्रन्थ ‘तनख’ उस समानता का आधार है? परन्तु यहूदियों के पैगम्बर हजरत मूसा का काल ३५०० वर्ष से अधिक पीछे नहीं जा सकता। स्वयं यहूदी भी वैसा ही मानते हैं। जब हजरत मूसा का ही प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, तब यहूदी मत के प्रादुर्भाव का प्रश्न ही नहीं। इसलिए यह निर्विवाद है कि अब से लगभग ३५०० वर्ष पहले संसार में यहूदी मत का अस्तित्व नहीं था।

क्या जेंद अवस्ता-पारसियों का धर्मग्रन्थ- उसका आधार है? पारसी मत के प्रवर्तक हजरत जरदुश्त का समय अब से ३८०० वर्ष पूर्व माना जाता है। कुछ विद्वान् हजरत मूसा और हजरत जरदुश्त की समकालीनता, परस्पर भेंट, कुछ काल तक एक ही शहर में निवास और परस्पर विचारों के विनिमय की बात को सर्वथा प्रामाणिक नहीं मानते और वे हजरत जरदुश्त का समय खींच कर ४१०० साल पहले तक ले जाते हैं, परन्तु इसके आगे उनकी भी गति नहीं है। कहने का भाव यह है कि हजरत जरदुश्त और उनके द्वारा प्रचलित पारसी मत तथा उनके धर्मग्रन्थ को किसी भी हालत में ४१०० वर्ष से अधिक पुराना सिद्ध नहीं किया जा सकता।

भारतीय मत

जहां तक भारत में प्रचलित मतों का प्रश्न है- उनमें बौद्ध और जैन मत प्रमुख हैं, जिनको वैदिक परम्परा से भिन्न परम्परा में गिना जा सकता है। शैव, शाक्त या वैष्णव आदि सम्प्रदाय तथा उनकी अनेकानेक शाखाएं वैदिक परम्परा के ही अंग हैं- उनमें विकार चाहे कितना ही आ गया हो, किन्तु इन सम्प्रदायों ने वेद के प्रामाण्य का खण्डन करने का कभी साहस नहीं किया। कबीरपन्थ, नानकपन्थ अर्थात्- सिख मत या राधास्वामी मत आदि मत इतने अर्वाचीन हैं कि प्राचीनों की सभा में इन अर्वाचीनों का प्रवेश समीचीन नहीं प्रतीत होता। ब्रह्मकुमारी आदि सम्प्रदाय तो विशुद्ध गुरुडम की उपज हैं- ये भारतभूमि की उस उर्वरा शक्ति के द्योतक हैं जिसके कारण हर बरसात में जगह-जगह खुम्बीयाँ या अन्य झाड़-झँखाड़ स्वतः उग आते हैं और किसी भी कुशल किसान को अपनी अनाज की फसल बोन से पहले खेत से उन्हें साफ करना ही पड़ता है। प्राचीनों की सभा में इन झाड़-झंखाड़ों का प्रवेश तो क्या, उन्हें दौवारिक की योग्यता का पात्र भी नहीं समझा जा सकता।
महात्मा बुद्ध का समय प्रायः सभी इतिहासकारों की दृष्टि में ईसा से लगभग ४०० वर्ष पूर्व माना जाता है। इस प्रकार उनका समय हुआ- १९६८(२०२१) +४००= २३६९ वर्ष पूर्व (अब के अनुसार २४१९)। स्थूल रूप से हम कह सकते हैं कि महात्मा बुद्ध का समय अबसे लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व है अर्थात् ढाई हजार वर्ष से पहले महात्मा बुद्ध या बौद्ध मत की कल्पना नहीं की जा सकती।

रहा जैन मत। यदि जैन मत का प्रवर्तक महावीर स्वामी को माना जाए तो वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध दोनों समकालीन थे, उनकी परस्पर भेंट भी हुई, दोनों ही राजकुमार थे और दोनों ने अपने समय की राजनीति को भी काफी प्रभावित किया था। यदि राजनीतिक दृष्टि से तत्कालीन इतिहास का अध्ययन किया जाए- जिसकी कि परम्परा अपने देश में बहुत कम है, तो कदाचित् वैशाली को अपना कार्यक्षेत्र बनाने वाले इन दोनों महात्माओं की सामन्तोचित कूटनीतियों के परस्पर घात-प्रतिघात का भी आकलन किया जा सके। पर वह विषयान्तर है। कहने का भाव केवल यह है कि वर्धमान महावीर और शाक्यपुत्र गौतम के समकालीन अर्थात् ढाई हजार वर्ष पुराना ही माना जा सकता है।
परन्तु आजकल के जैनियों की प्रवृत्ति अपने मत को इससे बहुत प्राचीन सिद्ध करने की है। वे वेद के अन्दर भी अपने तीर्थंकरों का वर्णन खोजते हैं। परन्तु जैसे “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्”- इस मन्त्रखण्ड के आधार पर वेद में हजरत ईसामसीह का उल्लेख सिद्ध करना उपहासास्पद है या “पश्येम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतम्”- इस मन्त्रखण्ड में मक्का मदीना का उल्लेख सिद्ध करना उपहासास्पद है, वैसा ही उपहासास्पद है “त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति” और “घनाघन: क्षोभणश्चषणीनाम्”- आदि मन्त्रखण्डों में से भगवान् ऋषभदेव का वर्णन निकलना, परन्तु यहां हम इस विवाद में नहीं पड़ते। यदि जैनी लोग अपने मत को ढाई हजार वर्ष पुराना नहीं उससे अधिक पुराना मानते हैं, तो मानें। उससे हमारे युक्तिक्रम में कोई अन्तर नहीं आता। अपने मतप्रवर्तक और मत के प्रादुर्भाव की जो भी तिथि वे निर्धारित करना चाहें करें। इतना निश्चित है कि इतिहास में उन्हें ऐसा काल-निर्धारण अवश्य करना पड़ेगा जब उनके मत-प्रवर्तक या मत का अस्तित्व संसार में नहीं था और उसके बाद वे अस्तित्व में आए।

युक्ति का आधार

हमारे युक्तिक्रम का आधार यह है कि संसार के ये जितने मतमतान्तर हैं और जितने उनके धर्मग्रन्थ हैं, वे भले ही अपने आप में ईश्वरीय ज्ञान होने का दावा करें, परन्तु वे ईश्वरीय नहीं, मानवकृत हैं। इन मतों के विशिष्ट पैगम्बर हैं, उन पैगम्बरों की विशिष्ट जन्मतिथियाँ हैं, उन धर्मग्रन्थों के तैयार होने का विशिष्ट समय है। इतिहास इसका साक्षी है। इतिहास के इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता और इन धर्मग्रन्थों में कुछ बातों में समानता है, यह भी निर्विवाद है। उदाहरणार्थ- मनुस्मृति के अनुसार धृति, क्षमा, अस्तेय, इन्द्रियनिग्रह, अक्रोध आदि जिन तत्त्वों को धर्म का लक्षण बताया गया है, क्या ईसा का गिरि-प्रवचन (सर्मन ऑन द माउण्ट), मूसा के दस आदेश (टैन कमाण्डमेंट्स) और महात्मा बुद्ध द्वारा वर्णित अष्टांगिक मार्ग या आर्य सत्य तथा कुरान द्वारा वर्णित सच्चे मुसलमानों के रोजा, जकात आदि कर्त्तव्यों में कोई विशेष अन्तर है? योगदर्शन में

“तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:” और “शौचसन्तोषतप: ,स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:”

कहकर जिन यमों और नियमों का उल्लेख किया गया है, वे प्रकारान्तर से सार्वत्रिक नियम हैं और संसार के सभी धर्मों में इन गुणों को समान रूप से आदर की दृष्टि से देखा गया है। अन्तर है तो सामाजिक विधि-विधानों में, सृष्टिरचना की प्रक्रिया के वर्णन में या मतवादी साम्प्रदायिक मान्यताओं में। इसी कारण महात्मा गांधी कहा करते थे कि किसी धर्मात्मा हिन्दू में, या धर्मात्मा मुसलमान में या धर्मात्मा ईसाई में जीवन की पवित्रता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता। कोई धर्म ऐसा नहीं हो सकता जो सत्य, अहिंसा, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को धर्म का अंग न माने, उन्हें अधर्म बताए।

हमारी स्थापना यह है कि धर्मग्रन्थों में पाई जाने वाली समानताओं का आधार (प्रत्युत कहना चाहिए कि असमानताओं का आधार भी, क्योंकि असमानताएं भी बहुत बार किन्हीं समानताओं का विकृत रूप ही होती हैं) वेद हैं, क्योंकि समस्त उपलब्ध धर्मग्रन्थों में वेद सबसे प्राचीन है। मैक्समूलर ने जब यह कहा था: “वेद हमारे लिए मनुष्य-बुद्धि के सबसे पुराने परिच्छेद के परिचायक हैं”- तब से आज तक इस उक्ति का खण्डन नहीं किया जा सका, प्रत्युत दिन-प्रतिदिन इसी बात की पुष्टि होती गई कि संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन पुस्तक ‘वेद’ है।

विशुद्ध तर्क की खातिर यह भी कहा जा सकता है कि यदि किसी दिन पुरातत्त्वान्वेषियों को कहीं किसी अज्ञात स्थान की खुदाई में से कोई ऐसा ग्रन्थ मिल जाए जो वेदों से अधिक प्राचीन सिद्ध हो सके और इस ग्रन्थ का वर्ण्य-विषय वेदों से ही मेल खाता हो, तो तर्कप्रवण वेदाभिमानियों को यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि वेद का आधार वह नव-उपलब्ध ग्रन्थ होगा, परन्तु जब तक संसार के विद्वान् इस बात पर सहमत हैं कि वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं- तब तक यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा तर्कसंगत है कि इन सब समानताओं का आधार वेद है, क्योंकि वही सबसे प्राचीन है।

वेदों का निर्माण-काल

पूछा जा सकता है कि वेदों का निर्माण काल क्या है? हम स्वीकार करते हैं कि इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं, परन्तु एक बात असंदिग्ध रूप से कही जा सकती है और वह यह कि ज्यों-ज्यों अनुसन्धान की गहराई बढ़ती जाती है त्यों-त्यों वेद का समय लगातार पीछे ही पीछे खिसकता जाता है। विषय के संक्षिप्त निदर्शन के लिए हम यहां एक तालिका दे रहे हैं, जिससे बात और स्पष्ट हो जाएगी।

वेदों का आनुमानिक काल

मैक्समूलर ८०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) १,५०० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
मैक्डॉनल्ड १००० वर्ष ई.पू. (कम से कम) २,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
हॉग १,४०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) २,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
विटसन १,५०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) २,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
ग्रिफिथ १,५०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) २,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
ह्विटनी १,५०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) २,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
जैकोबी १,५०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) ४,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
तिलक १,५०० वर्ष ई.पू. (कम से कम) ८,००० वर्ष ई.पू. (अधिक से अधिक)
इसका अभिप्राय यह है कि पाश्चात्य विद्वान् वेदों का काल अधिक से अधिक अब से ६,००० वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं, जबकि लोकमान्य तिलक इस समय को १०,००० वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं। अन्य भारतीय विद्वान् इस काल को दस हजार वर्ष से और बहुत पीछे तक ले जाते हैं।

पाश्चात्य विद्वानों के सामने कदाचित् वेदों के काल को ६,००० वर्ष से अधिक पीछे ले जाने में मानसिक बाधा है। मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर इस मानसिक बाधा को पहचानने में देर नहीं लगती। वह मानसिक बाधा यह है कि बाइबिल के संकेत के अनुसार उनके मन में यह संस्कार बैठा हुआ है कि वर्तमान सृष्टि को बने केवल ६,००० साल हुए हैं। उनके आन्तरिक मन्तव्य के अनुसार जब ६,००० साल पहले सृष्टि ही नहीं थी तो कोई ग्रन्थ इससे पहले कैसे हो सकता है? वास्तव में तो पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किसी चीज को ६,००० साल पूर्व का कहने का अभिप्राय भी ‘सृष्टि के आदि का’ समझना चाहिए, क्योंकि उनकी दृष्टि में ६,००० वर्ष पूर्व ही सृष्टि का आरम्भ है, परन्तु विज्ञान की खोज ने बाइबिल द्वारा वर्णित सृष्टि के आगाज को मिथ्या सिद्ध कर दिया है और जब से रेडियम का आविष्कार हुआ है तब से वैज्ञानिकों को इस बात का निश्चय हो गया है कि सृष्टि को बने करोड़ों (लगभग दो अरब) वर्ष हो गए हैं, क्योंकि इससे कम अवधि में कार्बन रेडियम में रूपान्तरित नहीं हो सकता।

और क्या वेदों के निर्माण की अभी तक कोई तिथि निर्धारित न होना स्वयं इस बात की निशानी नहीं है कि यह सृष्टि के आदि की रचना है? परन्तु वेद को सृष्टि की आदि-रचना मानना भी हमारे युक्ति-क्रम का ऐसा अंग नहीं है कि इसके बिना हमारी स्थापना विश्रृंखलित हो जाएगी। संसार के लोग वेद को सृष्टि की आदि-रचना मानें या न मानें, जब तक सब यह मानते हैं कि वेद संसार के पुस्तकालय का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है तब तक हमारे युक्तिक्रम का प्रसाद अक्षुण्ण है। संसार का कोई धर्मग्रन्थ प्राचीनता में वेद की तुलना में खड़ा नहीं हो सकता। आर्यजाति के प्रारम्भ के साथ वेद प्रारम्भ हुआ, यदि किसी को इस स्थापना की स्वीकार करने में संकोच हो तो भी उसे इतना तो मानना ही पड़ेगा कि संसार के धर्मरूपी भवन की पहली ईंट वेद है।

अन्तः साक्षी का महत्त्व

आश्चर्य का बात यह है कि वेद के सिवाय संसार के किसी अन्य धर्मग्रन्थ ने सृष्टि के आदि में होने का दावा नहीं किया। करें भी कैसे?

विभिन्न धर्मावलम्बी अपने धर्मग्रन्थों को ईश्वरीय ज्ञान तो सहज ही मान लेते हैं, परन्तु सृष्टि के आदि में अपने धर्मग्रन्थों की सत्ता सिद्ध करने की उनकी हिम्मत नहीं होती।

सृष्टि के आदि में न होने पर भी अपने धर्मग्रन्थ को ईश्वरीय ज्ञान मानना परस्पर विरोधी बात ठहरती है।

क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान वही हो सकता है जो सृष्टि के आदि में हो। जिस परमात्मा ने मनुष्य को आंख दी है उसी ने सूर्य भी दिया है।

सूर्य या सूर्य के प्रतिनिधि के बिना आंख देख नहीं सकती। यदि केवल आंख ही परमात्मा ने दी होती, सूर्य नहीं, तो आंख देना भी व्यर्थ था, क्योंकि प्रकाश के अभाव में आंख देखने का काम नहीं कर सकती थी।

इसी प्रकार परमात्मा ने मनुष्य को अन्दर की आंख या बुद्धि दी तो उसकी सार्थकता के लिए वेद रूपी ज्ञान का सूर्य भी दिया, अन्यथा बुद्धि का दान व्यर्थ हो जाता।

फिर सृष्टि बनने के हजारों साल बाद बनने वाले धर्मग्रन्थों में ही यदि ईश्वरीय ज्ञान प्रकट होना था तो उन धर्मग्रन्थों के प्रादुर्भाव से पहले मनुष्य जाति की जो सैकड़ों पीढियां गुजर चुकीं उनको ईश्वर ने ईश्वरीय ज्ञान से वंचित क्यों रखा? वेद को छोड़कर किसी अन्य धर्मग्रन्थ को ईश्वरीय ज्ञान मानने वाले व्यक्ति के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं हो सकता।

वेद के सृष्टि के आदि में होने की अन्तः साक्षी स्वयं वेद देता है। ऋग्वेद (१०.९०.९) में मन्त्र आता है,

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।

यह मन्त्र यजुर्वेद (३१,७) में भी आया है। भावार्थ है- “उसी सर्वपूज्य परमात्मा से ऋग्, साम, अथर्व और यजुर्वेद उत्पन्न हुए।”

अथर्ववेद (१०.७.२०) में मन्त्र आता है-
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।
-“जिस जगदाधार परमात्मा से ऋग्, यजु, साम और अथर्व उत्पन्न हुए उसका यथार्थ स्वरूप बताओ।”

अब तक हमने जो कुछ कहा है उसका सार यह है:

संसार के धर्मग्रन्थों में कुछ बातों में समानता पायी जाती है। उस समानता का कोई एक आधार होना चाहिए।

वह आधार वेद ही हो सकता है क्योंकि वही सबसे प्राचीन है। इतना ही नहीं, ईश्वरीय ज्ञान के दावे की कसौटी को भी वेद ही पूरा कर सकता है, क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान की एक कसौटी है- सृष्टि के आदि में होना और यह शर्त सिवाय वेद के और कोई धर्मग्रन्थ पूर्ण नहीं कर सकता।
नास्तिकों के लिए भी उपयोगी

हम कहते हैं कि वेद केवल धर्मग्रन्थ नहीं है, वह विज्ञान और विज्ञानेतर विषयों का भी अगाध भण्डार है। वह समस्त सत्य विद्याओं का आगार है। मानव-जीवन के लिए जो भी कुछ उपयोगी है, उस सबका निदर्शन वेद के अन्दर है। अन्य धर्मग्रन्थों में से उन मतों के प्रवर्तकों का जीवन-वृत्त निकाल दीजिए, उन महान् पुरुषों के जीवन के साथ दन्तकथाओं के रूप में जुड़े आख्यानों को निकाल दीजिए, सामाजिक विधि-विधानों के सम्बन्ध में देश-काल और परिस्थिति के अनुसार दी गई व्यवस्थाओं को निकाल दीजिए, तो आप देखेंगे कि उन धर्मग्रन्थों में इसके बाद जो कुछ बचता है वह नगण्य है या ऐसा कुछ है जिसे उससे पूर्ववर्ती धर्मग्रन्थ कह चुके हैं।

वेद शब्द का अर्थ भी सिवाय ज्ञान के और कुछ नहीं है। सांसारिक ज्ञान की पुस्तकों में केवल ऐहिक ज्ञान का विवेचन होगा, परन्तु वेद में ऐहिक के साथ पारलौकिक ज्ञान, भौतिक के साथ आध्यात्मिक ज्ञान और अभ्युदय के साथ निःश्रेयस का भी विवेचन है।

यदि मानव जीवन के लिए वेद की इतनी उपयोगिता न होती तो भारत के ब्राह्मणों ने अपने प्राण देकर भी उनकी रक्षा का प्रयत्न न किया होता, वेदों को कण्ठाग्र करना अपने जीवन का लक्ष्य न बनाया होता और “ब्राह्मणेन निष्कारणं षडङ्गो वेदोऽध्येय:” के नियम के अनुसार बिना किसी भौतिक लाभ की आशा के वेदों के पठन-पाठन में ही अपना समस्त जीवन न लगाया होता। न ही चतुर्वेदी, त्रिवेदी या द्विवेदी की वंशपरम्परा चली होती। न ही भारतवर्ष ने अतीतकाल में ज्ञान-विज्ञान में इतनी उन्नति की होती। न ही आज देश-विदेश के विद्वानों ने इतनी बड़ी संख्या में वेद के स्वाध्याय में अपना जीवन खपाया होता।

जैसे हिमालय का सर्वोच्च शिखर मानवात्मा को चुनौती देता है, जैसे महासागर की गहराइयाँ वैज्ञानिकों का आह्वान करती हैं, जैसे मंगल और चन्द्रमा आदि ग्रह-उपग्रह किसी साहसी अन्तरिक्ष-यात्री की प्रतीक्षा करते हैं और मानव की चिर-जिज्ञासु आत्मा उस चुनौती को स्वीकार कर अज्ञात के अनन्त रहस्यों को खोजने के लिए अपने विजय-पथ पर निकल पड़ती है, वैसे ही क्या ज्ञान का यह सर्वोच्च शिखर, ज्ञान का यह महासागर, ज्ञान का यह सूर्य-वेद भी मानव की बुद्धि और परिश्रम के लिए चुनौती नहीं है? किसी नास्तिक के लिए भी इस अज्ञात को सुज्ञात बना देने से बढ़कर जीवन की कृतकार्यता और क्या हो सकती है? ज्ञान का भण्डार वेद ज्ञान के नए आयाम अपने पक्ष में छिपाए साहसी व्यक्तियों की प्रतीक्षा में है।

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.