क्या हुआ ? चुभा ! उपद्रवियों कहा , हुड़दंगियों , निठल्लों और अब तो अपराधियों भी कहना अनुचित नहीं होगा । यकीनन ही आप सब इस देश के किसान नहीं हो सकते क्यूंकि इस देश में -वो देश जो आज भी गाँव खेत और किसान का देश है ,उस देश के किसान ने आज तक अपने ही घरों से हल की जगह बंदूक थामे निकले अपने बेटों , भाईयों की छाती पर ट्रैक्टर चढ़ाने का स्टंट नहीं किया ?? किसान ने सत्याग्रह किया , तप किया , व्रत किया , मगर कभी भी “जय जवान -जय किसान ” को कलंकित नहीं किया।

कृषि कानून वापस लो -यही मांग हैं न जिससे कम पर कोई समझौता नहीं। चलो बिना किसी दूसरी तरफ मुड़े हुए इसी से बात शुरू करते हैं। तुम्हें कायदे से अपनी कृषि , मिट्टी , जलपायु , संसाधन की समझ ही नहीं हो पाई आज तक , और उस पर आधारित किसी सरकारी वाणिज्यिक नियम कानून कायदे में परिवर्तन संशोधन की जानकारी भी हो गई , तुम समझ भी गए और विकल्प के रूप में सिर्फ और सिर्फ एक फरमान -हमें पता है इससे खेतों की रजिस्ट्री सरकार अपने करवा लेगी या अम्बानी अडानी को दिलवा देगी। इसलिए कानून वापस लो। है न !

वैसे तो अंदर कर अब तो बाहर के ख़ास किसानों के मन में पिछले छह सालों से यही चल रहा है की कानून , सरकार , भाजपा , मोदी ,योगी , शाह सबको वापस लो भाई। नहीं तो शाहीन बाग़ की फूफी बनने से लेकर सिंघु सीमा सड़क का फूफा बनकर और सभी भेष धार धार के बहाने बिना बहाने से दंगा करेंगे -फसाद करेंगे।

फिर देखा तो इंतज़ार भी क्यों और कितना किया जाए ? जब पिछले छः वर्षों में ही इस सरकार ने अपने कानूनों से इस देश के लोगों में से कुछ उन लोगों को बिना कुछ किए धरे ही पूरे देश के सामने वैसा ही रखा , असल में वे जैसे थे। एक एक कानून की बंदिशें नई जिम्मेदारियों को तय कर रही हैं और उसी के अनुसार दोषफल भी तय हो रहा है और असल बिलबिलाहट बस इसी बात की है।

आढ़तियों , बिचौलियों , ठेकेदारों , जमीदारों , छुटभैये नेताओं , भ्रष्टाचारियों , बेईमानों और तमाम राष्ट्रद्रोहियों के चेहरे पर चिपकी केँचुलियाँ उतरती चली जा रही हैं। दो अक्टूबर तक यहीं रहेंगे , फूल पौधे खेत बगीचे उगा कर जाएंगे। बीच बीच में हम 26 जनवरी और 15 अगस्त को अपनी नीयत की तरह कुछ न कुछ काला भी करके रहेंगे।

चलिए , पक्ष चुनिए विपक्ष भी। तय करिये आमने सामने कानून की धारा में वर्णित एक एक शब्द को लेकर विमर्श हो जाए और सबकुछ सीधा प्रसारित हो। जनता को भी लगभग एक दर्जन से अधिक बैठकों के बाद होने वाले विमर्श विरोध संवाद का साझीदार बनाया जाना अपेक्षित है।

वैसे बताता चलूँ की बहुत जल्दी ही यह तमाशा बंद हो जाएगा। कानून ने अपना काम शुरू कर दिया है। जिस वर्दी की ओर ,जिस खाकी वर्दी की तरफ दुशमन देश भी देखने की हिमाकत नहीं कर सकता वो सिर्फ इसलिए पीछे हट कर घाव खाते रहे कि लाशें गिरीं भीं तो अपन गाँव खेतों में ही जायेंगीं।

कानून कभी काला नहीं होता , काली नज़र होती है , नज़रिया होता है और नीयत होती है। याद रहे कानून में मंशा ही आधार और बुनियाद होती है।

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