“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है।”

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के द्वारा लिखी गयी इन पंक्तियों से शायद ही कोई अनजान होगा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ये पंक्तियां अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे सशक्त एवं जोश से भर देने वाली पंक्तियां बनी।
इन पंक्तियों को सुनकर हर एक भारतीय में क्रांति की ज्वाला जाग उठती और वो पूरी ताकत के साथ अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ता।

आज इसी लेख की चौथी कड़ी में हम बात करेंगे भारत माँ के चरणों मे अपना जीवन समर्पित करने वाले एक और वीर देशभक्त श्री रामप्रसाद बिस्मिल की।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1887 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले में हुआ था।
बताया जाता है कि ये बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे, हिंदी उर्दू संस्कृत अंग्रेजी भाषा का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की भावना उनके मन में उसी समय से पलने लगी थी।
अंग्रेजों के क्रूर व्यवहार को देखते हुए कम उम्र में ही इनका जुड़ाव क्रांतिकारियों से हो चुका था।

रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के सम्पर्क में भी आए थे और उनका एकमात्र उद्देश्य पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करना था। उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया लेकिन जब गांधी ने चौरा चौरी जनाक्रोश के बाद आंदोलन वापिस ले लिया तो रामप्रसाद जी को बहुत निराशा हुई।
1922 के गया अधिवेशन में भी उन्होंने भाग लिया और वो वहाँ से कांग्रेस की उग्रवादी विचारधारा से जुड़ गए।

रामप्रसाद बिस्मिल जी ने “हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन” (HRA) की स्थापना भी की जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध एक सशक्त मोर्चा तैयार करना था।
इस संगठन से चंद्रशेखर आजाद, अशफ़ाक़ उल्ला खान, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, संचिन्द्र बख्शी, भगतसिंह आदि लोग जुड़े हुए थे।
रामप्रसाद जी को हथियार खरीदने का कार्य सौंपा गया था इसलिए रामप्रसाद जी ने अनेक किताबें लिखी, इन किताबों की बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग वो हथियार खरीदने के लिए करते थे और साथ ही इन क़िताबों को पढ़ने से भारतीयों में क्रांति की भावना का संचार भी होता था।
रामप्रसाद जी को महसूस हो गया था कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक संगठित विद्रोह करने के लिए हथियारों की ज़रूरत है। जिसके लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी होगी। ऐसे में, HRA संगठन ने अंग्रेज़ सरकार की संपत्ति को लूटने का निर्णय लिया।

9 अगस्त 1925 की रात को जब शाहजहाँपुर से लखनऊ जाने वाली नंबर 8 डाउन ट्रेन काकोरी पहुँच रही थी, तभी अशफ़ाक़ उल्ला ने सेकंड क्लास कम्पार्टमेंट की चेन खींच दी। अचानक से ट्रेन रुक गयी और अशफ़ाक़ अपने दो अन्य साथियों, सचीन्द्र बक्शी व राजेंद्र लाहिड़ी के साथ उतर गए। यह योजना का पहला चरण था जिसे इन तीनों क्रांतिकारियों ने पूरा किया।
इसके बाद ये तीनों साथी, बिस्मिल व अन्य क्रांतिकारियों से मिले और ट्रेन के गार्ड को हटा कर उन्होंने सरकारी संपत्ति लूट ली। इस घटना ने अंग्रेजी शासन को हिला कर रख दिया था और उन्होंने लूट के एक महीने के अंदर-अंदर ही 2 दर्जन से ज़्यादा क्रांतिकारियों (जिनमें बिस्मिल भी शामिल थे) को गिरफ्तार कर लिया।
उन पर मुकदमा चला और चार क्रांतिकारी– राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खान, रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी की सज़ा सुनाई गयी।

19 दिसम्बर 1927 को फाँसी पर चढ़ने से पहले रामप्रसाद जी बिस्मिल ने आखिरी पत्र अपनी माँ को लिखा था। होठों पर ‘जय हिन्द’ का नारा लिए मौत को गले लगाने वाले इस सेनानी को पूरे देश ने नम आँखों से विदाई दी।
“मेरा रंग दे बसंती चोला” नामक देशभक्ति गीत लिखने वाले इस देशभक्त ने मात्र 30 साल की आयु में अपने प्राणों को न्यौछावर करके भारत को आजाद करवाने का गजब का जज्बा कायम किया। भारत के इस बेमिसाल देशभक्त ने शहादत देकर भारत की आजादी के द्वार खोले।

गोरखपुर जेल जहाँ रामप्रसाद जी बिस्मिल को फाँसी की सजा दी गई, अब आज़ादी की एक निशानी के रूप में पहचाना जाता है।

स्वयं रामप्रसाद जी बिस्मिल के शब्दों में,
“ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो
वह भक्ति दे कि ‘बिस्मिल’ सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो “

जय हिंद ????
वन्देमातरम ????

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