अक्सर लोग जतीन्द्रनाथ दास और जतीन्द्रनाथ मुखर्जी में भ्रमित हो जाते है। कल आपने लेख की नौंवी कड़ी में जतिन दा यानि जतीन्द्रनाथ दास के बारे में पढ़ा था और आज Forgotten Indian Freedom Fighters लेख की दसवीं कड़ी में हम ‘बाघा जतिन’ यानि जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के बारे में पढ़ेंगे।
जी, ये वो ही बाघा जतिन है जिनकी योजना यदि सफल हो जाती थी तो भारत 1915 में ही अर्थात 32 वर्ष पहले ही स्वतंत्र हो जाता और शायद इस देश के राष्ट्रपिता मोहनदास गांधी ना होकर जतीन्द्रनाथ मुखर्जी होते।

बाघा जतिन का जन्म तत्कालीन बंगाल प्रान्त के कुष्टीया जिले में (वर्तमान बांग्लादेश) में 07 दिसंबर 1879 को हुआ था। बचपन से ही उन्हें खेलकूद एवं कसरत का शौक था यही कारण था कि उनका शरीर बलवान एवं हुष्ट पुष्ट था।
मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने शहर के सबसे बिगड़ैल घोड़े को काबू में कर लिया था, जिसकी चर्चा पूरे शहर में हुई थी।
इनको ‘बाघा’ जतिन नाम भी एक साहसी घटना के बाद मिला। बताया जाता है कि उनका सामना एक खूंखार बाघ (रॉयल टाइगर बंगाल) से हो गया था और उन्होंने देखते ही देखते उस बाघ को मार गिराया। बस तभी से लोग उन्हें ‘बाघा जतिन’ बुलाने लगे।

पढ़ाई के लिए उन्होंने कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज में पढ़ते हुए बाघा जतिन सिस्टर निवेदिता के साथ राहत-कार्यों में भाग लेने लगे।
सिस्टर निवेदिता ने ही उनकी मुलाकात राष्ट्रऋषि स्वामी विवेकानंद से करवाई। ये स्वामी विवेकानन्द जी ही थे, जिन्होंने जतिंद्रनाथ को एक उद्देश्य दिया और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया।
स्वामीजी से ही उन्हें भरोसा मिला कि स्वस्थ फौलादी शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।

इसके बाद वर्ष 1899 में बाघा जतिन बैरिस्टर पिंगले के सचिव बनकर मुजफ्फरपुर जा पहुंचे। पिंगले वकील होने के साथ ही इतिहासकार भी था, उसी के साथ रहकर बाघा जतिन को लगा कि भारतीयों की अपनी एक आर्मी होनी चाहिए और तभी से वो इस आर्मी के निर्माण में जुट गए।
वे श्री अरबिंदो के सम्पर्क में आये। जिसके बाद उनके मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गयी। अरबिंदो ने ही उन्हें युवाओं की एक ‘गुप्त संस्था’ बनाने की प्रेरणा दी थी। यहीं से नींव रखी गयी नौजवानों की मशहूर ‘युगांतर पार्टी’ की और इसकी कमान बाघा जतिन ने खुद सम्भाल ली।
बाघा जतिन “आमरा मोरबो, जगत जागबे” का नारा दिया, जिसका मतलब था कि ‘जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा’!
उनके इस नारे से युवाओं में क्रांति की लहर दौड़ पड़ी।
बंगाल के हर एक जिले में युगांतर पार्टी की शाखा खोली गई और जल्द ही युगांतर पार्टी के चर्चे भारत के बाहर भी होने लगे। अन्य देशों में रह रहे क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे। अब यह क्रांति बस भारत तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों को जोड़ चुकी थी।

इसी बीच 1905 में हुआ कलकत्ता में प्रिंस ऑफ वेल्स का दौरा हुआ। अंग्रेजों की बदतमीजियों से क्रोध में बैठे बाघा जतिन ने प्रिंस के सामने ही उनको सबक सिखाने की ठानी।
प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत समारोह में जतिन ने महिलाओं के अपमान से नाराज होकर कई अंग्रेज सैनिकों की पिटाई कर दी और तब तक पीटा जब तक कि सारे अंग्रेज सैनिक नीचे नहीं गिर गए।
चूंकि ये घटना प्रिंस ऑफ वेल्स की आंखों के सामने घटी थी, तो अंग्रेज सैनिकों का भारतीयों के साथ ये बर्ताव उनके साथ बाकी सभी ने देखा। भारत सचिव मार्ले को पहले भी अनेक बार अंग्रेज सैनिकों की इस तरह की शिकायतें मिल चुकी थीं। इस वजह से बाघा जतिन की बजाय उन अंग्रेजों को ही दोषी पाया गया।
इस घटना से तीन बड़े काम हुए….
● अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दुर्व्यवहार उनके शासकों के साथ-साथ दुनिया को भी पता चला।
● भारतीयों के मन से अंग्रेजों का खौफ निकला।
● बाघा जतिन के प्रति क्रांतिकारियों के मन में सम्मान और भी बढ़ गया।

विक्टोरिया मेमोरियल कोलकाता के समीप बाघा जतिन का स्टेच्यू

इस घटना के बाद बाघा जतिन ने वारीन्द्र घोष की मदद से देवघर में एक बम फैक्ट्री की स्थापना की।
फिर वे तीन साल तक दार्जिलिंग में रहे जहाँ उन्होंने अनुशीलन समिति की एक शाखा बांधव समिति शुरू की। एक दिन सिलीगुड़ी स्टेशन पर अंग्रेजों के एक मिलिट्री ग्रुप से उनकी भिड़ंत हो गई। कैप्टन मर्फी की अगुवाई में अंग्रेजों ने जतिन से बदतमीजी की, तो जतिन ने अकेले उन आठों अंग्रेजों को जमकर मारा।
अलीपुर बम कांड में भी बाघा जतिन को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें कुछ दिनों के बाद छोड़ दिया गया।

उस वक्त कोलकाता अंग्रेजों की राजधानी थी लेकिन अंग्रेज सरकार बाघा जतिन और उनके क्रांतिकारी दल से परेशान हो चुकी थी। उन्हें अब कोलकाता सुरक्षित नहीं लग रहा था।
अंग्रेजों ने अगर अपनी राजधानी 1912 में कोलकाता से बदलकर दिल्ली बनाई तो इसकी बड़ी वजह ये क्रांतिकारी ही थे और उनमें सबसे बड़ा नाम बाघा जतिन का था।

इधर फ्री इंडिया सोसाइटी (जिसका उल्लेख मदनलाल ढींगरा के लेख में किया गया था) उन दिनों भारतीयों पर जुल्म करने वालों का खात्मा कर रही थी। तभी एक क्रांतिकारी पकड़ा गया और उसने बाघा जतिन के नाम का खुलासा कर दिया और जतिन को एक अंग्रेज अफसर की हत्या के आरोप में पुनः गिरफ्तार किया कर लिया गया।

जेल में बंद बाघा जतिन ने अन्य कैदियों के साथ मिलकर एक नई योजना बनाई। ये उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा प्लान था – देश को आजाद करवाने के लिए यह अब तक का यह सबसे बड़ा प्लान था।
इतिहास में इस योजना को “जर्मन प्लॉट या हिंदू-जर्मन कांस्पिरेसी” नाम से जाना जाता है।
उस प्लान के मुताबिक फरवरी 1915 में 1857 की तरह क्रांति करने की योजना थी।
बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, सिंगापुर जैसे कई ठिकानों में 1857 जैसे सिपाही विद्रोह की योजना बनाई गई। फरवरी 1915 की अलग-अलग तारीखें तय की गईं।
बताया जाता है कि अगर ये प्लान कामयाब हो जाता तो हमारा देश 1915 में ही आजाद हो जाता।

लेकिन एन मौके पर पंजाब की 23वीं कैवेलरी के एक क्रांतिकारी सैनिक के भाई कृपाल सिंह ने गद्दारी कर दी और विद्रोह की सारी योजना अंग्रेज सरकार तक पहुंचा दी। सारी मेहनत एक गद्दार के चलते मिट्टी में मिल गई।
अंग्रेजी अफसरों को जतिन और उनके साथियों की ख़बर लग चुकी थी। पुलिस खुफिया विभाग की एक इकाई को बालासोर (उड़ीसा) में जतिन्द्रनाथ मुखर्जी के ठिकाने की खोज करने के लिए भेजा गया।
बाघा जतिन को अंग्रेजों द्वारा की गई कार्यवाही के बारे में पता चला और उन्होंने अपने छिपने का स्थान छोड़ दिया।अब न केवल ब्रिटिश बल्कि वहां के गाँववालों को भी बाघा जतिन और उनके साथियों की तलाश थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने ‘पाँच क्रांतिकारियों’ के बारे में जानकारी देने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी।

9 सितंबर 1915, बाघा जतिन का आखिरी वक्त आ गया था। ब्रिटिश पुलिस ने बाघा और उनके साथियों को चारों ओर से घेर लिया था।
इन पाँच क्रांतिकारियों और ब्रिटिश पुलिस के बीच 75 मिनट चली मुठभेड़ में अनगिनत ब्रिटिश घायल हुए और क्रांतिकारियों में चित्ताप्रिय चौधरी की मृत्यु हो गई। जतिन और जतिश गंभीर रूप से घायल हो गए थे और जब गोला बारूद ख़त्म हो गया तो मनोरंजन सेनगुप्ता और निरेन पकड़े गए।
बाघा जतिन को बालासोर अस्पताल ले जाया गया, मरने से पहले जतिन ने बयान में कहा कि गोली उन्होंने और चित्तप्रिय ने चलाई थी, वहां मौजूद बाकी अन्य लोग निर्दोष है।
10 सिंतबर 1915 को भारत माँ के वीर सपूत महान क्रांतिकारी बाघा जतिन ने आखिरी सांस ली और अपना जीवन माँ भारती के चरणों में समर्पित कर दिया।
कहा जाता है कि आज़ादी की लड़ाई में जिस सशस्त्र आज़ाद हिंद फौज़ की कमान नेताजी सुभाष बाबू ने सम्भाली थी, उसकी नींव साल 1915 में जतिंद्रनाथ मुख़र्जी ने रखी थी।
साहसी विरले व्यक्तित्व के धनी अमर क्रांतिकारी बाघा जतिन को शत् शत् नमन।
जय हिंद
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