13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन जब क्रूर डायर के आदेश पर जलियांवाला बाग नरसंहार किया जा रहा था तब उस घटनास्थल पर एक 19 वर्ष का लड़का भी वहाँ मौजूद था और उस दिन उस लड़के ने कसम खाई कि एक दिन इस नरसंहार का बदला जरूर लेगा।
उस 19 वर्ष के लड़के का नाम था – वीर शहीद उधम सिंह।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख की छठी कड़ी में हम आज भारत माँ के उसी वीर सपूत के बारे में पढ़ेंगे।

वीर उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब प्रांत के संगरूर जिले में हुआ था।
छोटी उम्र में में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। यहीं उन्हें उधम सिंह नाम मिला और उनके भाई को साधु सिंह।
उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी।
वे गवाह थे, उन हजारों भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे। यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली। इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए।

1924 में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए। अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में इस पार्टी को भारत में क्रांति की शुरूआत करने के लिए बनाया था।
क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की। भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए।
उधम सिंह, भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे। दोनों दोस्त भी थे। एक चिट्ठी में उन्होंने भगत सिंह का जिक्र अपने प्यारे दोस्त की तरह किया है। भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी।
इन दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं दिखती हैं,
दोनों का ताल्लुक पंजाब से था,
दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही,
दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई,
दोनों ने माँ भारती के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

अवैध हथियार और गदर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार गदर की गूंज रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई।
जेल से छूटने के बाद भी पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी, इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए। बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं और उसके बाद में उधम सिंह लंदन जा पहुंचे।
सरदार उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार से आक्रोशित थे। जनरल डायर की 1927 में ब्रेन हेमरेज से मौत हो चुकी थी, ऐसे में उधम सिंह के आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक़्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ डायर, जिसने नरसंहार को उचित ठहराया था।

13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कैकस्टन हॉल में बैठक थी, वहां माइकल ओ’ डायर भी स्पीकर्स में से एक था।
उधम सिंह उस दिन टाइम से वहां पहुंच गए।
13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। हॉल में बैठे कई भारतीयों में उधम सिंह भी थे जिनके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी। यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी, इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था।
बैठक खत्म हुई, सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे।
इसी दौरान उधम सिंह ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ डायर पर फायर कर दिया। डायर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई।
इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते।
उस दिन सिर्फ एक डायर नही मरा था बल्कि मारा गया था मनुष्य का क्रूरतम चेहरा जिसके हाथ हज़ारों मासूमों के खून से रंगे हुए थे।
हॉल में भगदड़ मच गई लेकिन उधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
ब्रिटेन में ही उन पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी हो गई और इसी तरह एक और पुष्प माँ भारती के चरणों मे समर्पित हो गया।
इस घटना के बाद उधम सिंह को “शहीद-ए-आजम” की उपाधि दी गई, जो सरदार भगत सिंह को शहादत के बाद मिली थी।

उस समय ब्रिटेन के हर एक प्रमुख समाचार पत्रों में बस ये ही मुख्य खबर थी।

देश के बाहर फांसी पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे, उनसे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में फांसी दी गई थी।
संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस महान क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे। उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित उनके गांव लाई गईं जहां आज उनकी समाधि बनी हुई है।

सरदार उधम सिंह की यह बहादुर कालजयी घटना आंदोलनकारियों को प्रेरणा देती रही और इसके बाद की तमाम घटनाओं को सब जानते हैं।
अंग्रेजों को 7 साल के अंदर देश छोड़ना पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया। उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल में रहकर वो आजादी को जरूर महसूस कर रहे होंगे।
जय हिंद
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