आजकल बॉलीवुड समय-समय पर इतिहास में घटित सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्में बनाता जा रहा है. ऐसे ही सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म तानाजी द अनसंग वॉरियर 10 जनवरी 2020 रिलीज हुई थी… हालांकि हम फिल्म के बारे में नहीं बल्कि तस्वीर में दिखाई दे रहे इस दुर्गम किले और इसके लिए हुए भारत के सबसे दुर्गम युद्ध के बारे में बात करेंगे…

पुणे शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर सहयाद्रि पहाड़ियों में बसा ऐतिहासिक सिंहगढ़ किला 2000 साल पुराना है. ये किला समुद्र तट से 1,312 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यह एक डराने वाला किला है और लगभग अभेद्य माना जाता था.. इसकी खड़ी ढलानों की वजह से दुश्मन के लिए इसे पार करना मुश्किल था.

इस दुर्ग को पहले कोंढाना के नाम से भी जाना जाता था और किले के दो उल्लेखनीय द्वार हैं- उत्तरपूर्वी भाग में और दक्षिणपूर्वी भाग में, जो पुणे दरवाजा और कल्याण दरवाजा कहलाते हैं. विजय के बाद इस किले का नाम ताना जी मालसूरे के नाम पर सिंहगढ़ कर दिया गया. सिंह गढ़ का अर्थ सिंह का किला.. जिसकी कहानी भी हमने आपने अपने स्कूली किताबों में पढ़ी है.

बात साल 1670 की है, जब दिल्ली में मुगलिया सल्तनत का परचम बुलंदी से लहरा रहा था और  दिल्ली के तख्त पर मुगल बादशाह औरंगजेब का राज था. 1665 में मुगल साम्राज्य और शिवाजी के बीच पुरंदर की संधि के तहत ये किला औरंगजेब को मिला था. इसके साथ ही इसके जैसे 23 दूसरे किले भी मुगलों को मिल गए थे.

ऐसे ही एक बार शिवाजी महाराज की माताजी लाल महल से कोंडाना किले की ओर देख रहीं थीं. तब शिवाजी ने उनके मन की बात पूछी तो जिजाजी माता ने कहा कि इस किले पर लगा हरा झण्डा हमारे मन को उद्विग्न कर रहा है.

प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी. तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है.

उसके दूसरे दिन शिवाजी महाराज ने अपने राजसभा में सभी सैनिकों को बुलाया और पूछा कि कोंडाना किला जीतने के लिए कौन जायेगा? किसी भी अन्य सरदार और किलेदार को यह कार्य कर पाने का साहस नहीं हुआ, शिवाजी महाराज, तानाजी को युद्ध में नहीं भेजना चाहते थे क्युकी तानाजी अपने पुत्र रायवा की शादी में व्यस्त थे, चारों ओर उल्लास का वातावरण था. वो अपने मित्र को ये बात भी नहीं बताना चाहते थे.. किंतु तानाजी को ये बात पता चल गयी और तानाजी ने चुनौती स्वीकार की और बोले मैं जीतकर लाऊंगा कोंडाना किला.

कोंडाणा का किला, उदयभान राठौड़ द्वारा नियंत्रित किया जाता था, जो कि जय सिंह-1 [मिर्जा राजा जयसिंह आम्बेर के राजा तथा मुगल साम्राज्य के वरिष्ठ सेनापति थे। राजा भाऊ सिंह उसके पिता थे जिन्होने 1614 से 1621 तक शासन किया।] द्वारा नियुक्त किया गया था.. वो वहाँ अपने 5000 से ज्यादा मुग़ल सैनिको के साथ राज करता था..

वर्ष 1670 में 4 फ़रवरी की ठंडी रात में ताना जी अपने 1000 साथियो को लेकर किले जितने को निकल पड़े. तानाजीराव के साथ उनके भाई सूर्याजी मालुसरे और मामा ( शेलार मामा) थे. तानाजीराव मालुसरे शरीर से हट्टे-कट्टे और शक्तिपूर्ण थे. कोंडाणा तक पहुंचने पर, तानाजी और 300 सैनिकों की उनकी टुकड़ी ने पश्चिमी भाग से किले को एक घनी अंधेरी रात को घोरपड़ नामक एक सरीसृप की मदद से खड़ी चट्टान पर चढ़ने का फैसला किया..

ऐसा कहा जाता है कि  घोरपड के छिपकली की प्रजाति का जीव होता है जिसकी खासियत होती है की अगर चिपक जाये तो उसे कोई छूटा नहीं सकता. घोरपड़ को किसी भी ऊर्ध्व सतह पर खड़ी कर सकते हैं और कई पुरुषों का भार इसके साथ बंधी रस्सी ले सकती है. इसी योजना से तानाजी और उनके बहुत से साथी चुपचाप किले पर चढ़ गए..  इतनी शांत चाँद की रात में तनिक भी आवाज़ न होना ये बहुत ही गजब की कलाकारी थी इन सभी की..

हालांकि एक अंग्रेज इतिहासकार का कहना है कि तानाजी अपने साथियों के साथ किले पर रस्सी के सहारे चढ़े थे.. खैर.. किसी से भी चढ़े हों.. आप इसे किले को देखकर भी कह सकते हैं इसपर चढ़ना कितना मुश्किल हैंऔर जब 5 हजार से भी ज्यादा किले की देखरेख में हो तो यह साहस और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.

अभी तक सिर्फ 300 लोग ही ऊपर चढ़ पाए थे, करीब 700 लोग नीचे खड़े थे की पहरेदारो को भनक लग गयी. मराठा सैनिको ने पहरेदारो को तुरंत मौत के घाट उतार दिया लेकिन शास्त्रों की आवाज़ ने मुगल सेना को जगा दिया.. ये मराठा सैनिको के लिए गंभीर समस्या हो गयी, लेकिन तानाजी और अन्य मराठा सैनिको ने निश्चय किया की अब पीछे नहीं हटेंगे.

उन्होंने सैनिको से युद्ध के लिए ललकारा और पल भर में किला “हर हर महादेव” की आवाज़ से गूंज उठा। लड़ाई आरम्भ हो चुकी थी. तानाजी के कई सैनिक मारे जा चुके थे क्युकी संख्या में कम थे और हथियार सीमित थे. लेकिन तानाजी लड़ते लड़ते अपने सैनिको का साहस बढ़ाने के लिए स्वराज के लिए गाना गा रहे थे, तो कभी हर हर महादेव और जय भवानी का उद्घोष कर रहे थे.

लेकिन तभी कुछ समय पश्चात मुगलो का सरदार उदयभान भी वहाँ आ पंहुचा. और युद्ध के लिए ललकारा. तानाजी उदयभान पर टूट पड़े. इस समय मराठा सेना को अनेक अड़चन आ रही थी. क्यूंकि इनकी संख्या बहुत कम थी. ऊपर से रात की लम्बी दौड़, इतनी बड़ी चढ़ाई आदि से सब पहले से ही थके हुए थे, लेकिन तानाजी और उदयभान का युद्ध देखकर सैनिको में शक्ति और साहस आता गया.. वे हर हर महादेव का उद्घोष करके मुगलो को काटने में लगे थे.

तानाजी और उदयभान का भयकर युद्द चल रहा था. तानाजी का दाया हाथ भी कट चूका था लेकिन वो बाए हाथ से अपनी ढाल और तलवार पकड़ कर लड़ते रहे. लेकिन तानाजी बहुत थक चुके थे ये देखकर उदयभान ने अपने वार को और तेज कर दिया. थके हुए तानाजी पर उदयभान ने प्रहारों को इतना तेज कर दिया की तानाजी की ढाल तक टूट गयी और इसी समय कुछ मराठा सैनिको ने कोंडाणा किले का कल्याण दरवाजा खोल दिया जिससे उनके बचे हुए सैनिक जो नीचे थे वो भी आ गए. नए और सैनिको के आने से मुग़ल सेना के होश उड़ गए.

सूर्याजी और शेलार मामा के अंदर प्रवेश करते ही वो 700 मराठा भी मुगलो पर टूट पड़े और एक एक कर उदयभान की सेना को काटने लगे। इस तरह से मराठा सेना अब पूरे दुर्ग में फ़ैल गयी थी. जिससे मुग़ल सेना पीछे हटने लगी और भागने लगी.

तभी सूर्या जी और शेलार मामा ने देखा की तानाजी भगवा झंडे को हाथ लिए मूर्छित बैठे है. क्यूंकि उदयभान के साथ लम्बा युद्ध लड़ते लड़ते बहुत घायल हो गए थे. हाथ से काफी खून बह चूका था और सूर्या जी और शेलार मामा उन्होंने सँभालने के लिए पहुंचे, लेकिन तानाजी तब तक प्राण त्याग चुके थे.. लेकिन तब तक मराठा सैनिक किला भी जीत चुके थे.

उधर सुचना के बाद राजमाता जीजाबाई जो कुछ समय पहले तक शत्रु पर विजय प्राप्त करने की ख़ुशी मना रही थी और गौरव महसूस कर रही थी, जब उन्हें भी पता चला की तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है तो बहुत दुखी होती और तानाजी को याद करके रोने लगती है..

कहते है इस बड़ी विजय के बाद भी मराठा सेना और सारे लोगआदि ने कोई ख़ुशी नहीं मनाई क्यूंकि मराठाओ ने तानाजी मालसुरे को खो दिया था. यह दुखद बात जब शिवाजी महाराज जी को मिली तो वे बहुत आहत हुए. वो शांत होकर जमीन पर बैठ गए और आँखों से अश्रु की धारा फुट पड़ी. शोक में फुट फुट कर रोने लगे और रोते रोते कहा की – “गढ़ आला, पण सिंह गेला”. अर्थात हमने गढ़ तो जीत लिया, लेकिन मैने मेरा सिंह खो दिया…

दीपक पाण्डेय

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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