दिल्ली में दंगे भड़के, अब बैंगलोर जल रहा है, मुंबई का आज़ाद मैदान भी कुछ इसी तरह जला था – शांति से चल रहे शहर में अचानक से ख़ास समुदाय के लोग निकलते हैं और एकदम से बवाल होता है और जो सामने दिखता है, मार दिया जाता है, तोड़ दिया जाता है, चाहे घर हो या पुलिस स्टेशन या कोई मंदिर, स्कूल या कुछ भी, यह भीड़ उसे ख़त्म कर देती है, कोई कुछ भी कहे, पूछे, कोई ख़ास सुनवाई नहीं होती क्योंकि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त इन उपद्रवियों के पीछे ज्यादातर मामलों में बाकायदा एक संगठित वोटबैंक होता है. किसी भी राज्य सरकार या राजनीतिक दल में इतना आत्मबल नहीं होता जो इनके खिलाफ सीधी कार्यवाही करे. इनका संगठित होना ही इनकी शक्ति है.
हमारे यहाँ के दंगों में एक सीधा पैटर्न होता है और आप यूँ समझिये की यह एक मल्टी-स्टेज प्रोसेस है! जो दिल्ली में हुआ, या जो आज़ाद मैदान में हुआ था या आज जो बैंगलोर में हुआ वह भी ठीक ठीक ऐसे ही हुआ…. सिर्फ इस मामले को समझना हो तो इस बार किसी कांग्रेस के विधायक के रिश्तेदार ने कुछ फेसबुक पर लिखा और आरोप है की उसने मोहम्मद साहब पर कोई आपत्ति जनक टिप्पणी कर दी और फिर उसके विरोध में पूरी भीड़ संगठित होकर शहर जलाने निकल चली. क्यों और कैसे में मत जाइये क्योंकि उससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा, यहाँ भी मुझे नहीं लगता कि क़ानून व्यवस्था ठीक ठीक कोई जाँच कर पाएगी या कार्यवाही करने का आत्मबल जुटा पाएगी तो शायद कोई कार्यवाही हो उसकी उम्मीद न के बराबर है.
जिस देश में लश्कर-ए-लिबरल और लश्कर-ए-मीडिया हर मामले में नाम और दोनों पक्षों की जाति देखकर प्रतिक्रिया देती है वहाँ यह बैंगलोर वाले काण्ड में तो चुप्पी है… अब भला मामला कांग्रेसी विधायक का रिश्तेदार और मुसलमानों की भीड़ के बीच का हो तो फिर आप इन लश्करों से उम्मीद करते भी क्या हैं? हाँ अगर कोई दिल्ली जैसा हिन्दू/मुसलमान वाला एंगल होता तो फिर इनका गिरोह “सीट” से “मीट” और फिर “मीट” से “बीफ” वाला टाइप कोई अनोखा एंगल खोज निकाल लेता और देश से लेकर विदेश तक के हर मैगज़ीन में हिंदुत्व पर बवाल मचाए देता।
एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ चार हत्याओं (जिनका कोई धार्मिक एंगल था ही नहीं) पर पूरे देश को लिंचीस्तान कहने वाले बुद्धिजीवी मस्जिदों से कोई अनोखा आदेश पाकर संगठित रूप से कश्मीर, और मेरठ, दिल्ली या बैंगलोर में पत्थरबाज़ी आगज़नी करते हैं तो क्या यह धार्मिक सैन्यीकरण नहीं है?
दूसरी बात, जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता है, क्या आपने कभी गौर किया है कि शहर में जो भी मस्जिदें हैं, इनकी लोकेशन क्या है? यह एकदम रणनीतिक रूप से ऐसी जगहों पर होतीं हैं जहाँ चार सड़कें जुड़ती होंगी, या संकरी गलियों से गुजरने के बाद एक खुला मैदान होगा जहाँ दुनिया से छिपा कर कुछ ऐसा किया जा सकता होगा जिसकी कानों कान बाहर भनक न लगे… मैं यह अपने अनुभव से कह रहा हूँ क्योंकि मैंने जीवन के ढाई दशक उत्तर प्रदेश और बिहार में बिताए हैं जहाँ हर महीने कोई न कोई बड़ा दंगा होने का इतिहास रहा है… हर बार राजनैतिक रूप से संरक्षण पाए यह दंगाई बच जाते हैं, हर बार यह कोई न कोई पैंतरा अपना कर कानूनी कार्यवाही को प्रभावित कर ले जाते हैं, हर बार हिन्दू/मुसलमान कर अपने कुकर्मों का ठीकरा किसी मोदी पर फोड़ते हैं या किसी कपिल मिश्रा पर फोड़ते हैं – यह भूल जाते हैं गोधरा, यह भूल जाते हैं शाहीन बाग, यह भूल जाते हैं आज़ाद मैदान, यह भूल जाते हैं डॉक्टर नारंग, भूल जाते हैं अंकित, चन्दन और न जाने कितने चेहरे। हाँ लेकिन शक्तिशाली तंत्र होने के कारण “सीट” का “मीट” और फिर वाशिंगटन पोस्ट/ न्यूयॉर्क टाइम्स में “मीट” का “बीफ” जरूर कर जाते हैं!
यहाँ बंगलोर में तो खैर मीम और भीम वाला एंगल भी है सो गिरोह चुप बैठा रहेगा! आप याद रखिये, इनकी हरकतों और इनके उत्पात मचाने के तरीकों पर… अपनी आत्म-रक्षा करना सीखिए, आवाज़ उठाना शुरू कीजिये, इनके हर उत्पात पर प्रतिक्रिया दीजिये, सोशल मीडिया पर लिखिए, इलाके के एमपी, एमएलए को लिखिए, क़ानून और पुलिस को लिखिए। बोलना शुरू कीजिये, कब तक चुप रहेंगे…
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.