१९४७ को नहीं १९४३ को मिली थी भारत को पहिली आजादी।
भारतीय इतिहास में पहली बार अंडमान निकोबार द्वीप पर भारतीय तिरंगे को लहराकर नेताजी ने आजादी का नया पर्व मनाया.....
भारतीय इतिहास में पहली बार अंडमान निकोबार द्वीप पर भारतीय तिरंगे को लहराकर नेताजी ने आजादी का नया पर्व मनाया.....
आप कहेंगे ये क्या है ? भारत को आजादी वो भी १९४३ में, ये कैसे हो सकता? लेकिन यही वास्तविक सच है, यही हमारा गुमनाम हुआ इतिहास है, स्कूल जाने वाले बच्चो से लेकर किसी भी अधिकारी पद पर स्थाई बड़े बड़े अधिकारियों से पूछिए सब यही कहेंगे कि भारत को आजादी १९४७ को मिली है। लेकिन ये पूरा सच नहीं है , हमारे इतिहासकारों ने हमें अपने स्वतंत्रता के इतिहास से ही परे रखा। सच यही है कि भारत को आजादी १९४७ में नहीं बल्कि १९४३ में यानी भारतीय स्वतंत्रता से ४ साल पहिले ही मिली थी। लेकिन गांधी नेहरु परिवार के नामचीन इतिहासकारों ने देश के महान विरो द्वारा किए गए कार्यों को हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों से ही हटा दिया, और हमने केवल वहीं पढ़ा जो हमे गांधी नेहरु परिवार पढ़ना चाहती थी। इतिहास को पढ़कर हम अपना कल बनाते है लेकीन जब इतिहास ही हमे एक परिवार के सीमित पढ़ाया गया हो तो इस देश के युवा अपने असली नायक को पहचान कर अपना कल कैसे संवारेंगे। इस देश के युवावो को देश की स्वतंत्रता के इतिहास के बारे में ना पढाकर ये बताया गया कि गांधी नेहरु परिवार ने इस देश के लिए क्या क्या बलिदान दिया।
आज हम भारत की स्वतंत्रता की बात इस लिए कर रहे है क्युकी आज उस महान वीर स्वतंत्र सेनानी की जन्मजयंती है, जिन्होनें पहीली बार अंग्रेज़ी शासन के गुलामी को पैरो तले कुचलकर आजाद भारत सरकार की घोषणा कर दी थी। लोग उन्हें नेताजी नाम से जानते थे। आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की १२५ जन्मजयंती जिसे भारत सरकार पराक्रम दिन के नाम पर पूरे भारतवर्ष में मनाएंगी। जहा कांग्रेस ने नेताजी, वीर सावरकर जैसे महान सेनानीयो को भुला दिया, उनका गौरव करने के बजाए उनके देशभक्ति पर सवाल खड़े किए, तो वहीं भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने हमेशा मा भारती के वीरो का गौरव किया। आज नेताजी को उनका असली मायनों में मान सम्मान मिला, और आने वाले दिनों में भारतीय इतिहास के पन्नों में वो तमाम वीरो का पराक्रम दर्ज कर देश के युवाओं तक पहुंचाया जाएगा जिन्होनें मा भारती को आजाद कराने में अपना बलिदान दिया। लेकिन इतिहास और गांधी नेहरु परिवार ने किस तरह से नेताजी को, उनके कार्यों को आजादी के बाद गुमनाम करने की कोशिश की इस बात का जिक्र हम करेंगे।
शुरवात में हम एक किताब में लिखे दो राजनेताओं के संभाषण का जायज़ा लेंगे, जिससे आप को समजने में आसानी होगी कि, नेताजी का नेतृत्व भारतीय स्वतंत्रता के लिए कितना महत्वपूर्ण था। ये बात १९५६ की है, भारत को आजादी मिले नौ साल हुए थे, तब ब्रिटेन के पुर्व प्रधानमंत्री क्लिमेट रिचर्ड एटली कलकत्ता में बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल पीबी चक्रवती से मिलने आए थे। इन दो बड़े नेतावो के बीच हुए संभाषण का पूरा विश्लेषण ‘मेज़र जनरल जेडी बख्शी’ ने अपनी किताब ‘बोस एंड सामुराय’ में लिखा है। उसके कुछ अश को हम यहां उल्लेखीत करेगें। पीबी चक्रवती एटली से पूछते है कि, ” १९४२ में अंग्रेजो के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और १९४४ में बिना किसी परिणाम के अंग्रेजो द्वारा उसे ख़त्म कर दिया गया, तो अंग्रेज़ भारत छोड़ने के लिए क्यो तयार हो गए?” तो इसपर एटली ने जवाब दिया कि “अंग्रेज़ भारत छोड़ने पर मजबूर हो गए इसके पीछे सुभाषचंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज थी।” दूसरा सवाल पीबी चक्रवती ने पुछा की ” आजादी में महात्मा गांधी का क्या योगदान था?” तो एटली ने जवाब देते हुए कहा कि “महात्मा गांधी का भारत कि आजादी में योगदान बहुत ही कम था।” अब आप समझ सकते है कि नेताजी वो सेनानी थे जिन्होंने अपने कार्यों से अंग्रेजी हुकूमत को पायदान में मिला दिया था। उनकी हुई तथाकथित मौत के बाद भी उनका प्रभाव भारतीय युवाओं पर येसा पड़ा कि, १९४५ में स्वतंत्रता लिए के एक और बड़ा संग्राम हुआ।
नेताजी दूरदृष्टी विचारो के धनी थे। १९४२ में दिया गया नारा ‘करो या मरो’ और उसी साल छेड़ा गया ‘भारत छोड़ों आंदोलन’ इस बात के लिए नेताजी ने १९३९ में ही कांग्रेस को तयार होने के लिए कहा था; लेकिन तब गांधी ने उन्हें समर्थन नहीं दिया और बाद में १९४२ के आते आते गांधी ने नेताजी द्वारा बताई गई बाते ही दोहराई। अगर यही संग्राम नेताजी के नेतृत्व में छेडा गया होता तो भारत १९४७ के बजाए १४४३ में ही पूर्ण रूप से आजाद हो जाता। वास्तविक सच यही रहा कि नेताजी की उभरती हुई छवि और गांधी का अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति प्यार के वजह से नेताजी के खिलाफ गांधी नेहरू गठजोड़ का बड़ा हिस्सा खड़ा हो गया। जब १९३८ में काग्रेस का हरिपुरा में वार्षिक अधिवेशन होने वाला था तो गांधी ने ही नेताजी को अध्यक्ष पद के लिए नियुक्त किया था । लेकिन नेताजी और गांधी के विचारों में बड़ी भिन्नता थी गांधी आजादी के लिए इंतजार करना चाहते थे तो नेताजी का मानना था कि आजादी के लिए इंतज़ार करना उचित नहीं है। उन्होंने कॉग्रेस के समक्ष कहा कि वर्तमान स्थिति में अंग्रेजो की स्थिति कमकुवत है; हमे इसका फायदा उठाना चाहिए। दूसरे महायुद्ध के दौरान नेताजी अंग्रेजो के विरूद्ध जापान के साथ मिलकर युद्ध छेड़ना चाहते थे लेकिन ये बात गांधी को रास नहीं आई। अंग्रेज़ी शासन के प्रति गांधी की निष्ठा ने नेताजी को अध्यक्ष पद से हटा दिया। रविद्रनाथ ठाकुर , प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद साहा जैसे कही नेतावो ने नेताजी को अध्यक्ष पद से हटाने पर गांधी का विरोध किया और नेताजी के समर्थन में खड़े हुए, तो दूसरी तरफ गांधी नेहरू का बड़ा गटजोड था। आखिर वो स्थिति आ गई जब अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस में चुनाव हुए। नेताजी का केवल एक ही सिद्धांत था और वो था किसी भी हाल में भारत को आजादी। वो जानते थे कि अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन निकालने के लिए ये सही वक्त है और ऎसे दौर में सबका साथ रहना जरूरी है इसलिए उन्होनें कोंग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम नियुक्त किया तो गांधी के तरफ से पट्टाधी सीतारमैय्या का नाम नियुक्त किया गया। गांधी के सहयोग के बाद भी सीतारमैय्या को नेताजी ने २०३ मतो से हरा दिया । १५८० मत पाकर नेताजी ने अध्यक्ष पद तो पा लिया था ; लेकिन गांधी उनके खिलाफ पूरे जोर से खड़े रहे , और सीतारमैय्या की हार को अपनी हर बताकर कहा कि ‘अगर वे सुभाष के तरीके से सहमत नहीं है ; तो वे कोंग्रेस से हट सकते है।’ इसके बाद १४ में से १२ कॉन्ग्रेस कार्यकरिणी के सदस्यो ने इस्तीफ़ा दे दिया, अकेले शरदबाबू ही नेताजी के साथ खड़े रहे थे । १९३९ में जब त्रिपुरा में कोंग्रेस का अधिवेशन हुआ तो शरद बाबू की बीमार सेहत की वजह से वो स्ट्रेचर पर लेटे ही बैठक में पहुंचे तो दूसरी और गांधी ने अधिवेशन में आने से मना कर दिया और बाकी साथियों ने भी नेताजी का सहयोग नहीं किया। नेताजी ने गांधी को बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन गांधी ने अपनी जिद्द के आगे किसिकी नहीं मानी। आखिर कार तंग आकर नेताजी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया; और इसके कम समय पश्चात उन्हें कॉग्रेस से भी निकाला गया। गांधी ने जो कृत्य नेताजी के साथ किया वो कोही नहीं बात नहीं बल्कि इसके पहिले भी सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रभाव को रोकने के लिए गांधी ने कहीं प्रयास किए। गांधी का नेहरु प्रेम राष्ट्र प्रेम के कई ऊपर था , जिसने कभी नेहरु के आगे किसी के बारे में सोचा ही नहीं। हमेशा आजादी के लिए लड़ रहे क्रांति कारियो को पीछे कर नेहरु को आगे करने कि गांधी के इसी नीति ने भारत को आजादी प्राप्त कराने के लिए कहीं समय का इंतज़ार करवाया।
हमने पहिले ही मुद्दा उठाया कि भारत को आजादी १९४७ में नहीं बल्कि १९४३ में मिली थी और उस आजादी को भारत के नाम किया नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने। नेताजी ने एक ऎसि सेना बनाई जिसने अंग्रेज़ी हुकूमत के विरोध में पूरे जोर से मोर्चा निकाला। नेताजी ने ५ जुलाई १९४३ को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से ‘ बर्मा ‘ सहित ‘इम्फाल’ ‘कोहीमा’ में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। २१ अक्टुबर १९४३ को सुभाषचंद्र बोस ने भारतीयों के मन में आजादी कि नई किरण को जागृत किया । उन्होनें आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के तौर पर रहते हुए आजाद भारत के पहिले “स्वतंत्र भारत सरकार” की स्थापना की। तब इस सरकार को ११ देशों ने मान्यता दिती थी। जिसमे जापान, इटली, जर्मनी , थाईलैंड, बर्मा प्रमुख थे। हमारे लिए ये बड़ी सौभाग्य कि बात रही; नेताजी ने भारतीय नागरिकों के मन में आजादी कि उम्मीद जागृत की। ३० दिसम्बर १९४३ को अंडमान निकोबार द्वीप को अंग्रेजो की गुलामी से मुक्त कर भारतीय आजादी के इतिहास में नया इतिहास बनाया । भारतीय इतिहास में पहली बार अंडमान निकोबार द्वीप पर भारतीय तिरंगे को लहराकर नेताजी ने आजादी का नया पर्व मनाया। तुच्छ इतिहासकारों ने हमारे इतिहास से भारत से जुड़ी इतनी बड़ी बात को गायब कर दिया; और यही नहीं उनके कार्यों को दर्शाने वाली हर चीज को गांधी नेहरु परिवार ने इतिहास में रहने ही नहीं दिया, केवल और केवल अपनी ही महानता को दर्शाने में जुट गए और बड़े बड़े क्रान्तिकारियों के बलिदान का श्रेय खुद के नाम लिख दिया।
१८ अगस्त १९४५ में नेताजी की हुई विमान दुर्घटना में मौत खुदमे एक रहस्य बनी हुई है। दूसरे महायुद्ध के अंत में जापान की हार होने पर नेताजी कों देश की आजादी के लिए नए पैतरे की जरूरत थी। इस बात का विचार कर उन्होनें रुस से मदत मांगने की ठान ली; इसलिए वो रुस के लिए रवाना हुए लेकिन ताइवान जाते समय विमान दुर्घटना में उनकी रहस्यमय मौत हो गई। मौत के बारे में अभी तक कोई पुष्टी नहीं हो पाई ७० साल से चली आ रहीं कांग्रेस सरकार ने उनके मौत के दस्तावेजों को कभी सार्वजनिक नहीं किया। विमान दुर्घटना के बाद उनका रहस्यमय तरीके से लापता हो जाना कहीं सवाल खड़े करते, आजादी के बाद अगर वो स्थाई होते तो नेहरु के जगह प्रधानमंत्री के तौर पर नेताजी को ही चुना जाता। लेकिन कांग्रेस का इतिहास रहा है जो व्यक्ति गांधी – नेहरु परिवार के बीच आया उसकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गई । कांग्रेस के इतिहास में नेताजी के आलावा, श्यामा प्रसाद मुखर्जी , लाल बहादुर शास्त्री इनकी मौत आजाद भारत में एक बड़ा रहस्य बना हुआ है।
उनके मौत के पश्चात भारत में स्वतंत्रता की नई लहर उत्पन हुई। एक येसे संग्राम को अंजाम दिया गया जो स्वतंत्रता संग्राम से भी ज्यादा प्रभावी था। उनके लापता होने के बाद उनकी असली पहचान ब्रिटिश सरकार के सामने आई। अंग्रेज़ मिटाना तो नेताजी को चाहते थे लेकिन इसके बाद भारत के हर घर से नेताजी निकले, वो दौर था जब माये अपने बेटों का नाम “सुभाष” रखने पर गर्व महसूस करती थी। अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति लोगों का इतना आक्रोश पहिले कभी नहीं देखा गया था। लोगो के बीच ये आग भड़की केवल नेताजी के वजह से। उनके लापता होने के बाद ‘आजाद हिन्द फौज’ पर अंग्रेज़ सरकार ने कहीं जुल्म ढाए। नवंबर १९४५ को दिल्ली में आजाद हिंद फ़ौज के सेनानीयो पर ब्रिटिशों ने कहीं मुकदमे चलाए। इस बात पर जनता में आक्रोश उत्पन हुआ। “जिल्हा बोर्ड , नगर पालिकाओं से लेकर प्रवासी भारतीयों तक , बम्बई – कोलकात्ता के सितारों से लेकर टांगेवालो तक सब लोगो ने एक साथ अंग्रेज़ी हुकूमत का बहिष्कार किया था।कलकत्ता के गुरुद्वारे आजाद हिन्द फौज के फौजियों के पक्ष में केन्द्र बन गए थे।”
उतने में एक ओर हत्याकांड को अंग्रेजो ने अंजाम दिया । शायद वो हत्याकांड इतिहास से गायब कर दिया हो; लेकीन उस बलिदान की यादें आज भी निलगंज के बैरकपुर गाव में जिंदा है। डिसेंबर १९४५ में भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा हत्याकांड पश्चिम बंगाल के नीलगंज में हुआ। नेताजी के फौज के कहीं फौजियों को अंग्रेजो ने बैरकपुर गाव में बंद कर रखा था, और २५ दिसंबर की रात को उन्ह फौजियों को ब्रिटिशों ने मशिन गन चलाकर मार दिया। करीबन २५०० नेताजी के फौजियों का यहां नरसंहार हुआ। उनके मृत शरीर को नाले में फेक दिया। पानी से बेहने वाला ये नाला उस दिन क्रांतिकारियों के खून से बह रहा था। आख़िर येसा क्या हुआ कि, इस घटना को कभी इतिहास में जगह नहीं मिली। जलियनवाला बाग हत्याकांड से भी बड़ा ये हत्याकांड इतिहास के पन्नों से कैसे गायब हुआ। नेताजी लापता होने के बाद हुए संग्राम, और नीलगंज हत्याकांड को अगर इतिहास में जगह मिल जाती तो नेताजी कि प्रभाव शाली शैली को छुपाना गांधी नेहरु परिवार के लिए आसान नहीं होता।
नेताजी ने अपने जीवन में केवल एक सपना देखा और वो था लाल क़िले पर तिरंगा लहराना। वो हमेशा कहते थे कि , “गुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुए हैं तो स्वतंत्र हिन्दुस्तान में जिए और मरे, तभी आजाद हिंदुस्तान दुनिया को नए नए संदेश दे सकेगा।” वो देश की स्थिती को भलीभाती पहचानते थे , उन्होनें उस वक्त हि महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया। घर बार संभालने वाली महिलाओं को आजाद हिंद फ़ौज में जगह देकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ना सिकाया। उनका अचानक लापता होना आज भी मन को खलता है। आजादी के बाद उनके मौत का रहस्य जानने के लिए १९५६ और १९७७ में दो बार आयोग नियुक्त किया गया था। उस आयोग ने मान्य किया कि १९४५ में हुए विमान दुर्घटना में ही उनकी मौत हुई थी। १९९९ में फिर एक बार मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया । “२००५ में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया की १९४५ में ताइवान में कोई भी विमान दुघर्टना ग्रस्त नहीं हुआ था।” आयोग ने रिपोर्ट तयार कर २००५ में कांग्रेस सरकार को सौंप दी थी; लेकिन कांग्रेस सरकार ने रिपोर्ट को नकार दिया। कांग्रेस ने हमेशा से ही उनके देशभक्ति पर सवाल खड़े किए। संसद भवन में भी नेताजी कि तस्वीर को तब जगह मिली जब केंद्र में पहिली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। नेताजी के बारे में जितना कहे उतना कम है। भगवत गीता को अपने साथ लेकर चलने वाले नेताजी ने इस देश की आजादी में अपना अभूतपूर्ण योगदान दिया।
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