जाने माने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय हर रोज आर्मीनिया से युध्ह का आँखों देखा हाल लिख रहे है. अभिषेक देश के अकेले बड़े पत्रकार हैं जो इस वक्त दुनिया का भविष्य बताने वाले इस युद्ध को भारत की जनता तक पहुच्न्हा रहे है. प्रस्तुत है अभिषेक उपाध्याय की काराबाख डायरी का पांचवां भाग

काराबाख डायरी पांचवा दिन–

पता नही कि उस ड्रोन के निशाने पर क्या था, मगर पहली बार हमने अपनी आंखो के सामने ड्रोन का विध्वंस देखा।

अभी हम सुबह का पहला शूट निपटाकर काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट के अपने होटल पहुंचे ही थे कि हमारा गाइड हायक जोर से चिल्लाया, “Abhishek, Please come. Come immediately. Hurry up. Come fast” मैं उसकी दिशा में भागा। आसमान में अचानक ही कुछ तेज रोशनी सी दिखी और उसके बाद धुएं का गुबार सा। काराबाख की एयर डिफेंस ने हमारी आंखों के आगे ही अजरबैजान का ड्रोन उड़ा दिया था।

हम अपने होटल के कंपाउंड से इस तस्वीर को देख रहे थे। पता नही इस ड्रोन के निशाने पर क्या था? कहीं हमारा होटल या उसके आसपास की इमारत तो नही! मन तमाम तरह की आशंकाओं से भर गया। ड्रोन को लाइव शूट किए जाने की ये तस्वीर हमने पहली बार देखी थी मगर इस इलाके में यह एक आम तस्वीर थी।

यहां ड्रोन का राज है। ड्रोन ही विनाश की दिशा तय करता है। अजरबैजान के ड्रोनो ने इस पूरे इलाके में तबाही मचा रखी है। मगर काराबाख की फौज भी डटी हुई है। ड्रोन को शूट किया जाना, इस इलाके मे एक राष्ट्रीय उत्सव सरीखा है। जैसे ही काराबाख की डिफेंस फोर्स ने इस ड्रोन को शूट किया, हमारा गाइड हायक और सहयोगी केरन खुशी से उछल पड़े। अब तक होटल का स्टाफ और कुछ गेस्ट भी बाहर आ चुके थे। उनके चेहरे पर एक अलग ही तरह का गर्व नाच रहा था।

अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच काराबाख को लेकर छिड़ी जंग का आज 25 वां दिन है। इन 25 दिनों में हजारों जाने जा चुकी हैं मगर जंग के रुकने के कोई आसार नजर नही आ रहे हैं। हम काराबाख के चप्पे चप्पे तक घूमने की कोशिश मे हैं। जब आप कहीं भी सुरक्षित नही हैं तो फिर किसी एक जगह पर टिकने का क्या फायदा? कम से कम उन लोगों से तो मिल सकेंगे तो इस भारी असुरक्षा के बीच भी एक रहस्यमय से जज्बे के साथ आने वाले सुनहरे दिनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

कुछ ऐसा ही सोचकर हम आज आसकेरन पहुंचे। यह नागार्नो काराबाख का ही एक शहर है। इस शहर में भी सन्नाटा पसरा हुआ था। यहां अलग ही तस्वीर दिखाई दी। यहां के मेयर ने हमे बताया कि शहर से महिलाओं और बच्चों को बाहर भेज दिया गया है। केवल मर्द शहर में रूके हैं, 70 साल की आयु तक के। सभी मर्द शहर में हैं। शहर बचाने की जिम्मेदारी उनकी है। मुझे न जाने क्यों यूनाने के एथेंस और स्पार्टा जैसे शहरों की लड़ाई याद आ गई। उस दौर की शहर बचाने की लड़ाईयां भी अजीब होती थीं। आप सभी कुछ फौज के सहारे नही छोड़ सकते थे। शहर के हर बाशिंदे को इस लड़ाई में लड़ने के लिए तैयार रहना पड़ता था। ऐसा लगा कि जैसे इतिहास कुछ कदम पीछे लौट गया है। इस शहर के मेयर ने भी मिलेट्री यूनिफार्म पहन रखी थी। अपने आर्मीनियन सहयोगी केरन के सहारे उनसे बात की तो बोले कि इस दौर में हर कोई योद्धा है। सभी फौज का हिस्सा हैं। हम में से कोई भी घर पर नही बैठ सकता। मुझे जाने क्यूं लगा कि जैसे इस लड़ाई का परिणाम तय हो चुका है। आप फौज से फिर भी जीत सकते हैं मगर मनुष्य की जिजीविषा से कौन जीत सका है? आर्मीनियाई मूल के इन लोगों की जिजीविषा का कोई छोर, कोई पारावार नही था।

मुझे अब समझ आया कि आखिर पिछले ्26 सालों से ये लोग 4400 वर्गमील के इस जमीन के टुकड़े को अजरबैजान जैसे बड़े, धनी और ताकतवर मुल्क से कैसे बचाकर रखे हुए हैं!

कुछ दूर चलने के बाद हम एक घर के आगे रुक गए। यहां ओल्गा हमारा इंतजार कर रहीं थीं। ओल्गा काराबाख की मिलेट्री में साल 1988 से 1996 के बीच सेवाएं दे चुकी हैं। अजरबैजान के साथ जंग में फ्रंटलाइन पर जाकर लड़ चुकी हैं। हर तरह के हथियार चला चुकी हैं। अब फौज से रिटायर हैं। अच्छा खासा घर है। परिवार है। मगर लड़ने का जज्बा नही जाता। इनके पास भी शहर छोड़ने का आप्शन था। मगर नही गईं। इसी शहर में रहकर सेना के जवानों के लिए खाना पकाने का काम करती हैं। इनका पकाया हुआ खाना पैककर सीमा पर अजरबैजान से लड़ रहे सैनिकों को भेजा जाता है। काराबाख के सैनिकों में ये मां के नाम से मशहूर हैं। मां जो युद्ध के मैदान में भी अपने बच्चों के लिए समर्पित है। उनके खाने पीने का ध्यान रख रही है। स्वेच्छा से। न कोई जिम्मेदारी। न मजबूरी। सिर्फ देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा।

जब हम पहुंचे तो उस वक्त ओल्गा सैनिकों के लिए जिगियालोवहात्स पका रहीं थीं। यह एक किस्म का पराठा होता है जिसके भीतर साग भरा होता है। ये जानने पर कि हम शाकाहारी हैं, वे अड़ गईं कि बगैर खाए नही जाना है। यहां कहां शाकाहारी खाना मिलता होगा? हमें पेट भर के जिगियालोवहात्स खिलाया। गुजरे चार दिनो से काराबाख में ब्रेड नोच नोचकर दांत थक गए थे। मन भर गया था। आज आत्मा से चैन मिला। हम खा रहे थे, ओल्गा ममता भरी आ्ंखों से हमें निहार रही थीं। न जाने क्यू्ं ऐसा लगा कि मां की बस देह अलग अलग होती है, रूह एक जैसी ही होती है!

हम आसकेरन शहर से काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट की ओर लौट ही रहे थे कि तभी एक अजीब सी खबर सुनाई दी। मालूम पड़ा कि अजरबैजान की फौजों ने शूशी शहर पर कब्जा कर लिया है। हम जहां रूके थे, वहां से शूशी महज 30 किलोमीटर की दूरी पर था। काराबाख का सबसे ऊंचा शहर जिस पर कब्जे का मतलब है, काराबाख पर कब्जा हो जाना। यहां की ऊंचाई से काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट साफ दिखाई देती है। ठीक उसी तरह जैसे हवाई जहाज की लैंडिंग के वक्त जमीन पर छोटे छोटे मकान दिखाई देते हैं। अगर यहां से हमला किया जाए तो निचाई पर स्थिति स्टेपनाकर्ट का पूरा शहर बर्बाद हो सकता है। हम कुछ दिन पहले ही शूशी से गुजरे थे। शूशी पर कब्जे की खबर अजरबैजान की मिलेट्री के हवाले से वहां के एक टीवी चैनल ने प्रसारित की थी। हैरत से भरे हुए हम लोग तुरंत शूशी की तरफ निकल पड़े। शूशी पहुंचते ही इस बात का अंदाजा हो गया कि ये जंग जितनी जमीन पर लड़ी जा रही है, उतनी ही सूचनाओं के स्तर पर भी। ये एक किस्म का इंफार्मेशन वॉर था। शूशी पूरी तरह सुरक्षित था।

हम शूशी के विक्ट्री सिंबल उस टी 72 टैंक पर भी गए जिसके सहारे शूशी को साल 199्2 में आजाद कराया गया था। जंग में साम दाम दंड भेद नीति सभी का इस्तेमाल किया जाता है। शूशी इसकी जीवित तस्वीर बनकर हमारे सामने खड़ा था। अजरबैजान ने दुनिया को भरमाने की कोशिश की थी। हमारे कैमरे ने ये भरम तोड़ दिया।

काराबाख में एक बात शीशे की तरह साफ है। यहां समाधान युद्ध से ही निकलेगा। जो बातचीत हो रही है, या आगे चलकर होगी, उसका आधार भी युद्ध ही होगा। जो जितना इलाका कब्जा कर लेगा, उसी के आधार पर समझौते की बातचीत होगी। अजरबैजान की मुश्किल यही है। पिछले 25 दिनो से टर्की जैसी ताकत की भरपूर मदद लेने के बाद भी वह इस छोटे से मुल्क के किसी भी बड़े हिस्से पर कब्जा नही कर सका है। अगर कब्जा कर सका होता तो अब तक शांति के लिए हो रहे नेगोशिएशन में कुछ शर्तें रखकर युद्ध की समाप्ति पर मान जाता। उसके आगे संकट यह भी है कि वहां की सरकार अपने देश की जनता को क्या मुंह दिखाएगी? इतनी लड़ाई के बाद का हासिल क्या मिला, क्या बताएगी? अजरबैजान की फौज इस समय काराबाख की फौज से कम लड़ रही है, वह अपने इस “धर्मसंकट” से अधिक लड़ रही है। यही धर्मसंकट इस लड़ाई को लंबा किए जा रहा है।

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