कृषि कानून
वास्तविकता, आशंकाएं और समाधान,
क्या यह तीनों कानून असंवैधानिक है?
किसी भी कानून को सर्वोच्च न्यायालय दो स्थितियों में रद्द कर सकता है।
(१) विषय वस्तु में समस्या होने पर (२) संसद में कानून पारित करने की प्रक्रिया में गड़बड़ी होने पर।
(1) विषय वस्तु की दृष्टि से कोई कानून कब रद्द हो सकता है-
(१) संविधान, अनुच्छेद 13 के माध्यम से ही ऐसे किसी कानून बनाने से संसद और राज्य विधानसभाओं पर प्रतिबंध लगाता है जो नागरिको को प्रदत्त “मौलिक अधिकारों” में कटौती करता हो या उनसे वंचित करता हो। अनुच्छेद 13 के प्रावधान मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु हैं और ऐसे किसी भी कानून को शून्य घोषित करता है जो मौलिक अधिकारों की अवमानना करते हों या इनके साथ असंगत हों।
(२) संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध होने पर।
(३) केंद्र और राज्यों के मध्य विवाद होने की स्थिति में।
अब प्रश्न उठता है कि ना तो यह कानून मूल अधिकारों के विरुद्ध है और ना ही संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध तो क्या यह जैसा की विपक्ष द्वारा दावा किया जा रहा है कि यह केंद्र का राज्य की शक्तियों पर अतिक्रमण है, क्या सचमुच ऐसा है?
सबसे पहले देखते हैं कि विपक्ष किस आधार पर यह दावा कर रहा था-
संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य की शक्तियों का उल्लेख किया गया है, उन्हीं शक्तियों में सूची की 14 वीं एंट्री में राज्य को कृषि पर कानून बनाने की शक्ति है-
(१४) कृषि जिसके अंतर्गत कृषि शिक्षा और अनुसंधान, नाशक जीवों से संरक्षण और पादप रोगों का निवारण है।
साथ ही
(२६)सूची 3 की प्रविष्टि 33 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के भीतर व्यापार और वाणिज्य।
(२७)सूची 3 की प्रविष्टि 33 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, माल का उत्पादन, प्रदाय और वितरण।
अब जबकि प्रथम कानून में इन तीनों ही विषयों को लिया गया है तो लगता है कि यह केंद्र का राज्य शक्तियों पर अतिक्रमण है, परंतु रूकिए ऐसा नहीं है क्यों नहीं आगे पढ़िए।
“संविधान की समवर्ती सूची में उन विषयों को सम्मिलित किया गया है, जिस पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों कानून का निर्माण कर सकती है | दोनों सरकारों द्वारा बनाये गए कानून में गतिरोध उत्पन्न होने पर केंद्र सरकार के क़ानून को मान्यता प्रदान की गयी है, केंद्र सरकार द्वारा बनाये गए कानून को लागू करते ही राज्य सरकार का कानून स्वतः ही समाप्त मान लिया जाता है, इसके लिए किसी भी प्रकार की अधिसूचना जारी नहीं की जाती है |”
– संविधान (तृतीय संशोधन) अधिनियम, 1954: इस संशोधन द्वारा समवर्ती सूची की 33वीं प्रविष्टि में संशोधन किया गया। मूल रूप में इस प्रविष्टि में आवश्यक खाद्य-पदार्थों के पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति केन्द्रीय सरकार को न होकर राज्यों को प्राप्त थी। स्थिति बड़ी असन्तोषजनक थी। देश की खाद्य-समस्या बड़ी गम्भीर थी। खाद्य-पदार्थों की आपूर्ति कम थी। इस समस्या के निराकरण के लिए इस संशोधन में 33वीं प्रविष्टि के क्षेत्र को और भी विस्तृत कर दिया गया। केन्द्रीय सरकार को सभी प्रकार के आवश्यक पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण पर पूर्ण नियन्त्रण की शक्ति प्रदान कर दी गई।
अतः यहां पर केंद्र का राज्य की शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं है।
तो अब प्रश्न उठता है और ज्यादातर लोग यह कह रहे हैं की सरकार ने लॉकडाउन का लाभ उठाकर असंवैधानिक रूप से कानूनों का पारित करवा लिया, इनको इतनी शीघ्रता क्यों थी? अब इस बात का मुझे नहीं पता की सरकार की शीघ्रता क्यों थी परंतु एक किसान होने के नाते मैं यह अवश्य कह सकता हूं कि सरकार की शीघ्रता में उसकी नीयत का खोट तो निश्चित ही नहीं था।
आगे पढ़िए
सरकार यह अच्छे से जानती और समझती है कि बिना बड़े कृषि सुधारों के किसानों के जीवन में कोई भी बड़े बदलाव लाना असंभव है।
इसलिए 5 जुन 2020 को सरकार ने अध्यादेश लाकर कानून लागू कर दिए। अब जब उन्होंने अध्यादेश के सहारे कानून को लागू कर दिया तो उन कानूनों को संसद में पारित करवाना आवश्यक है अन्यथा वो कानून छः महीने के बाद समाप्त हो जाते हैं, अतः उन्होंने संसद के मानसून सत्र सितंबर में कानून पारित करवाए।
अध्यादेश क्या है?
अध्यादेश ऐसे कानून हैं , जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल की संस्तुति पर भारत के राष्ट्रपति (भारतीय संसद) द्वारा प्रख्यापित किया जाता है , जिसका संसद के अधिनियम के समान प्रभाव होगा । उन्हें केवल तभी जारी किया जा सकता है जब संसद सत्र में नहीं हो। वे भारत सरकार को तत्काल विधायी कार्रवाई करने में सक्षम बनाते हैं । अध्यादेश या तो संसद के छह सप्ताह के भीतर संसद द्वारा उन्हें मंजूर नहीं किए जाने पर, या यदि दोनों सदनों द्वारा अस्वीकृत प्रस्तावों को पारित कर दिया जाता है, तो वे कार्य करना बंद कर देते हैं। छह महीने के भीतर संसद का सत्र होना भी अनिवार्य है।
– क्या लोकसभा में कानून असंवैधानिक रूप से पारित हुए तो उत्तर है, नहीं।
क्यों नहीं क्योंकि सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में है और कोई भी उनको लोकसभा में यह कानून पारित करने से रोक नहीं सकता।
– तो क्या राज्यसभा में कानून असंवैधानिक ढंग से पारित हुए?
तो इसका भी प्रतिउत्तर है नहीं।
क्यों नहीं?
तो उस दिन राज्यसभा में विपक्ष ने यह कहा कि कानून को आज पारित मत करो, इसको संसद की समिति को सौंप दीजिए ताकि इसपर वह समिति विचार कर सके।
परंतु सलेक्ट कमेटी को कानून को सौंपना और ना सौंपना सदन के बहुमत से तय होता है।
सरकारकानूनों को समिति को सौंपने पर राजी नहीं हुई।
इसके बाद सदन में विपक्ष द्वारा जो एक प्रकार से मारपीट की गई उसको सारे देश ने देखा, सभापति ने अभद्र सांसदों को निलंबित किया।
एक बात जो विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है वो यह की उस दिन सदन में एनडीए का बहुमत था, इंटरनेट पर इसके आंकड़े आप देख सकते हैं।
अंततः राज्यसभा में कानून ध्वनिमत से पारित हुआ।
परंतु विपक्ष ने फिर हंगामा किया और न्यायालय में जाने को कहा, इस पर सरकार का तर्क है कि राज्यसभा की कार्यवाही में जो मताधिकार की पूरी प्रक्रिया है, उसकी प्री कंडिशन है कि वोट डालने वाले मताधिकारी अपनी तय की गई सीट पर बैठा होना चाहिए।
उस समय कोरोना था तो दो गज दूरी का पालन करना था, अतः सब नियमानुसार दो गज की दूरी का पालन करते हुए अपने स्थान पर नहीं बैठे थे।
अब स्वाभाविक सा प्रश्न है कि क्या उस दिन सरकार के पक्ष वाले बहुसंख्या में थे या नहीं तो सरकार का उत्तर है हां थे।
तो क्या विपक्ष सरकार के इस दावे को लेकर की वो सदन की कार्यवाही में मेजोरिटी में थे, यह सही नहीं है अतः हम सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे।
क्या वो जा सकते हैं?
इससे पहले संविधान का अनुच्छेद 122 को पढ़िए –
(1) संसद की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
(2) संसद का कोई अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके अधीन संसद में प्रक्रिया या कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियाँ निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय के अधीन नहीं होगा।
अब यदि मान भी लें की सरकार उस दिन राज्यसभा में कानून पारित करवाने में असफल रहती तो क्या होता?
उत्तर है – संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक होती और दोनों सदनों की कलेक्टिव स्ट्रेंथ से वोटिंग होती और सामान्य बहुमत से कानून पारित हो जाता।
क्योंकि सरकार के पास दोनों सदनों का कुल बहुमत बुरी से बुरी स्थिति में भी 400+ होता है।
बहुमत के लिए सरकार को 393 सदस्य चाहिए।
अब आप यहां यह समझ लें कि संयुक्त बैठक में कोई कितनी भी ताकत लगा लें सरकार को कानून पारित करवाने से कोई रोक नहीं सकता था।
अब आप यहां नैतिक रूप से कह सकते हैं कि सरकार ने बुरा किया, राज्यसभा में ध्वनि मत से कानून पारित करवाया, कानूनों को सलेक्ट कमेटी के पास नहीं भेजा आदि आदि परंतु कानूनी रूप से यह बिल्कुल उचित था और इसलिए ही सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनों को रद्द करने के स्थान पर केवल उनपर रोक लगाकर एक समिति का गठन किया है।
अतः कोई यह नहीं कह सकता कि यह कानून असंवैधानिक है।
20 सितंबर 2020 को सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किए जो निम्न प्रकार है-
(1) कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020
(2) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020
(3) आवश्यक वस्तु संशोधन बिल।
अब हम प्रथम अधिनियम के प्रावधानों की चर्चा से पहले APMC के बारे में चर्चा कर लेते हैं।
APMC की आवश्यकता क्यों पड़ी?
हमारे देश का किसान सदियों से शोषण का शिकार रहा है। लंबे समय से जमींदारी प्रथा ने उसका खूब शोषण किया था, इसे इस प्रकार समझिए की APMC एक्ट आने से पहले किसान गांव के किसी साहूकार से ऊंची ब्याज दरों पर ऋण लेता था। यदि आपने प्रेमचंद का गोदान उपन्यास पढ़ा हो तो आप समझ जाएंगे। तो किसान ऋण लेता था तो जब फसल पकती थी तो साहूकार उसके खेत पर पहुंच जाता था अपना बकाया वसूलने और वहीं पर उसकी फसल को औने-पौने दाम पर खरीदकर थोड़ा बहुत अपना ऋण चुकता कर सारी फसल ले जाता था और किसान साल भर मेहनत करने के बाद भी अपने पास कुछ नहीं रख पाता था।
अतः कृषि राज्य का विषय है और अधिकांश राज्य सरकारों ने जमींदारो के एकाधिकार को समाप्त करने के लिये 1950 या उसके बाद APMC अधिनियम को लागू किया। यह समग्र रूप में सरकारी नीतियों का विस्तार है, जो खाद्य सुरक्षा, किसानों के लाभकारी मूल्य और उपभोक्ताओं के उचित मूल्य को निर्देशित करता है। हालाँकि, इस अधिनियम के संबंध में यह व्यापक धारणा रही है कि हाल के दिनों में इसने घोषित लक्ष्यों के विपरीत काम किया है।
क्योंकि किसान अपनी फसल APMC मंडियों के बाहर अपनी फसल किसी और को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं था, और मंडियों में उपजी नई प्रकार की जमींदारी से शोषित था।
APMC के एकाधिकार के नुक़सान-
(१) APMC का एकाधिकारः यह एक तरफ किसान को बेहतर ग्राहकों से वंचित करता है, वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ता प्रभावित।
(२) कार्टेलाइज़ेशन-APMC के एजेंटों द्वारा संगठित होकर उत्पादों की कम बोली लगाई जाती है और बाद में इसे उच्च कीमतों पर बेचा जाता है जिससे किसानों के हित प्रभावित होते हैं।
(३) प्रवेश बाधाएँ: इनमें लाइसेंस शुल्क अत्यधिक है तथा अनेक APMC में किसानों को संचालन की अनुमति नहीं। साथ ही दुकानों का किराया अत्यधिक, जो प्रतियोगिता से दूर करता है।
(४) हितों का टकरावः APMC नियामक और बाज़ार की दोहरी भूमिका निभाते हैं। बाज़ार की बजाय नियमन को अधिक महत्त्व, जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा।
(५) उच्च कमीशन, कर और लेवी-किसान कमीशन, कर विपणन शुल्क और सेस का भुगतान करते हैं, जो उत्पादों की कीमतों को अत्यधिक बढ़ा देता है।
(६) इसके अलावा एजेंट बिना कारण या बिना स्पष्टीकरण के भुगतान का एक हिस्सा रोक लेते हैं। किसानों को कभी-कभी भुगतान पर्ची देने से मना कर दिया जाता है, जो ऋण प्राप्त करने के लिये आवश्यक है।
(1) कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020 के प्रावधान।
(१) Trade area Outside of APMC
अब किसानों को यह अधिकार या छुट है कि वह अपनी उपजाई गई फसल को APMC से बाहर भी बेच सकते हैं। परंतु इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि APMC खत्म हो जाएगी।
यह ट्रेड एरिया क्या हो सकते हैं?
फार्म गेट – किसी व्यापारी ने किसानों के खेतों के बाहर उनसे खरीदने की व्यवस्था की हो और यदि किसान को अपनी फसल का मूल्य वहीं पर उचित मील रहा है तो वहीं बेच सकता है।
यहां फार्म गेट के स्थान पर कोई फेक्ट्री हो सकती है, कोई संग्रहण घर हो सकता है, कोई कोल्ड स्टोरेज करने वाला है, या कोई एक्सपोर्ट करने वाला है तो जहां से उसको उचित दाम मिला उसे बेचने के लिए स्वतंत्र है।
ऐसा इन कानूनों के लागू होने से पहले नहीं था।
(२) Inter state – intra state अर्थात अंर्तराज्यीय और अंत:राज्यीय –
पहले APMC एक्ट के अंतर्गत किसान केवल अपने पास की मंडी में ही अपनी फसल बेच सकता था, वह अपने राज्य के दुसरे जिलों की मंडियों में भी नहीं जा सकता था, दुसरे राज्यों में तो जाने की बात ही नहीं थी। यदि कोई ऐसा करता था तो वह चोर समझा जाता था और उसके ऊपर कानून कार्यवाही होती थी।
अब इस कानून के लागू होने के बाद वह अपने गृह जिले से दूसरे जिले में भी बेच सकता है या अपने पास के या भारत के किसी और राज्य में जाकर बेचने को स्वतंत्र है।
(३) Online trading अर्थात ऑनलाइन वाणिज्य – अभी तक ऐसा था कि भारत का कोई भी व्यापारी किसी भी व्यवसाय से जूड़ा हो केवल कृषि को छोड़कर अपने उत्पाद ऑनलाइन बेच सकता था। केवल किसान ही अपनी फसल बेच नहीं सकता था, अतः अब इस कानून के कारण वह अपनी फसल को अब ऑनलाइन भी बेच सकेगा।
(४) No state Texas – इस प्रावधान के अनुसार कोई भी राज्य सरकार कृषि उत्पादन, व्यापार और वाणिज्य पर किसी भी प्रकार का कर नहीं लगा सकती।
(५) Dispute settlement mechanism – यदि कहीं पैसा है तो विवाद भी है अतः इस प्रावधान के अनुसार किसान और व्यापारी के मध्य हुए विवाद का समाधान SDM या जिला कलेक्टर करेगा।
SDM/ जिला कलेक्टर निम्न प्रकार से विवाद को खत्म करेगा –
(१) एक कमेटी गठित करके समझौता करवाकर (२) यदि समझौता नहीं होता तो मामला SDM के पास चला जाएगा और फिर उसको तीस दिनों के भीतर फैसला देना होगा और यदि दोनों पक्ष में से कोई एक या दोनों उस फैसले से संतुष्ट नहीं है तो (३) जिला कलेक्टर के पास अपिल कर सकेगा, फिर जिला कलेक्टर इस मामले को सुलझाएगा।
परंतु किसान सिविल कोर्ट में अपील नहीं कर पाएगा, इसके पीछे सरकार का तर्क है की इससे किसान को ही धन और समय की हानी होगी, परंतु मेरा मानना है कि किसान को अपिल करने का अधिकार होना चाहिए।
– कानून की अच्छाइयां
(१) Business to business possiblity – अर्थात कल्पना कीजिए की एक दो वर्ष बाद किसान किसी एप्प के माध्यम से अपनी फसल को बेच रहा है, और ऐसा होगा भी।
(२) दुसरे राज्यों में अपनी फसल बिना किसी रोक-टोक के बेच सकेगा।
(३) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा।
(४) रचनात्मकता – आज कोई भी छोटे किसान के बच्चे कृषि को अपना पेशा नहीं बनाना चाहता, परंतु इस कानून के लागू होने से कृषि में धन आएगा तो रचनात्मकता भी बड़ेगी और युवा कृषि को अपना अंतिम नहीं प्रथम पेशा के तौर पर अपनाएगा।
कानून को लेकर शंकाएं और समाधान-
(१) APMC खत्म हो जाएगी?
जो कथित आंदोलनकारी है, उनका कहना है कि किसानों को मुक्त बाजार मिलने के बाद मंडियां खत्म हो जाएगी, परंतु कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि फिर यह क्यों हला मचा रहे हैं?
उत्तर है कि यह जो वहां हला मचा रहे हैं, इनको किसान की समस्याओं से कोई लेना-देना है ही नहीं, अन्यथा तो वे सरकार से कानून में थोड़ा सा संशोधन करवाते ना की कानूनों को ही रद्द करने का हट करके वहां अभी तक बैठे होते।
वो संशोधन क्या होना चाहिए था?
अब स्पष्ट है कि राज्य सरकारें मंडियों से बाहर किसान की किसी भी व्यापारिक गतिविधियों पर कर नहीं लगा पाएगी, परंतु APMC में तो कर का प्रावधान यथावत है, अतः किसान क्यों कर देकर अपनी फसल को ऐसी मंडी में बेचेगा? जब वो अपनी फसल वहां नहीं बेचेगा तो स्वाभाविक है कि APMC को नष्ट हो जाने का खतरा है।
अतः इससे बचने के लिए सरकार को या तो APMC के बाहर के बाजार पर भी कर लगा देना चाहिए या दोनों ही स्थानों को कर मुक्त कर देना चाहिए।
इसके बाद ही प्लेइंग लेवल मैदान मिल पाएगा और तभी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो पाएगी।
अंत में मैं फिर बता दूं कानून में APMC मंडियों को खत्म करने का कोई प्रावधान है ही नहीं, तो इन कथित आंदोलनकारियों को कानूनों को रद्द करने का प्रलाप छोड़कर इस में यह संशोधन कराने पर जोर देना चाहिए।
(२) न्यायिक सहायता – ऐसा हो सकता है कि विवाद को निपटाने वाले अधिकारी व्यापारी या कंपनियों से रिश्वत लेकर या सरकार के दबाव में, क्योंकि वह सरकारी अधिकारी सरकार के अधीन है तो हो सकता है सरकारें उनके ऊपर यह दबाव डाले की फैसला उनके पक्ष में ही करे और इसकी संभावना तो है ही, इसलिए किसान को कोर्ट में अपील करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। क्योंकि कोर्ट सरकारी दबाव से परे है, और ना ही वो रिश्वत जैसा कुछ लेकर फैसला व्यापारी, कंपनी आदि के पक्ष में करेगा।
अतः सरकार को इस बिंदु पर भी विचार करके किसानों कोर्ट में अपील करने के लिए स्वतंत्र कर देना चाहिए।
(३) नियमों का ना होना –
किसान से फसल के खरीददारों को लेकर किसी भी प्रकार के नियमों का ना होना, क्योंकि कोई कानून नहीं है तो कोई भी व्यक्ति खरिददारी कर सकता है और फिर ऐसे में उसके भागने की संभावना भी है, अतः सरकार को इस और ध्यान देकर इनके लिए भी नियम सुनिश्चित करना चाहिए ताकि किसान के माथे पर इस प्रकार का बोझ ना रहे।
मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020
कानून का सामान्य अर्थ और उद्देश्य –
किसान सशक्तिकरण और संरक्षण – इसका सामान्य अर्थ है कि यह कानून किसानों को सशक्त और संरक्षण प्रदान करेगा
किससे सुरक्षा?
किसान को इस कानून के लागू होने से किसी व्यापारी, होटल, कंपनी आदि से अनुबंध करके फसल बोने की स्वतंत्रता प्राप्त होगी तो जो अनुबंध किसान और व्यापारी में होगा तो उस अनुबंध के मामले में किसानो को सुरक्षा देने का प्रावधान है।
– अनुबंध किस चीज का करेंगे?
अनुबंध दो चीजों का होगा यथा
(१) Price assurance अर्थात् मूल्य आश्वासन (२)Farm services अर्थात् फार्म की सेवाएं
१ – मूल्य आश्वासन का अर्थ – कोई किसान किसी व्यापारी आदि से अनुबंध करके जो फसल बोएगा उसकी उचित कीमत उसे मिले वो इसकी गारंटी का तय होना।
२ – फार्म सर्विसेस से तात्पर्य यह है कि फसल के अलावा जो सेवाएं वो स्वयं दे रहा है या किसी और से ले रहा है तो उसके बदले उसे क्या कीमत मिलेगी उसकी गारंटी का होना।
सेवाएं जैसे – खाद, बीज, रसायन, कृषि वैज्ञानिक की सेवाएं, परिवहन सेवाएं आदि।
– कानून के मुख्य प्रावधान
(१) किसान अनुबंध कर सकेंगे।
अनुबंध दो पार्टियों के मध्य होगा पहला किसान और दुसरे को कानून में स्पॉन्सर अर्थात प्रायोजक करके इंगित किया गया है।
दोनों के मध्य किस बात पर अनुबंध हो सकेगा तो प्रथम तो किसान की फसल पर और दुसरा प्रायोजक और किसान के मध्य खेती के लिए काम आने वाली सेवाएं यथा खाद, बीज, रसायन, परिवहन आदि प्रायोजक से लेगा इसपर।
(२) अनुबंध कितने समय तक हो सकता है – कानून में स्पष्ट लिखा है कि दोनों के मध्य एक फसल चक्र से लेकर पांच वर्ष तक अनुबंध करने का अधिकार है।
(३) मॉडल कॉन्ट्रैक्ट –
१ सरकार अपनी ओर से भी किसानों के लिए एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट “बना सकती है”।
२ केन्द्र सरकार आवश्यकता पड़ने पर इन मॉडल कॉन्ट्रैक्ट्स पर गाइडलाइंस भी जारी कर सकती है।
(४) मूल्य निर्धारण की शर्तें – इसे इस प्रकार से समझिए की किसान और किसी चिप्स बनाने वाली कंपनी के मध्य अनुबंध होता है और दोनो 20 रू. प्रति किलो की दर से आलू की फसल को बेचने और खरीदने पर सहमत हो जाते हैं, अब मानलें की और बाजार में सामान्य आलू की कीमत भी 20₹ किलो ही हो जाती है तो किसान को लगेगा की मेरी फसल तो उससे भी अच्छी थी तो यदि में इस फसल को बाजार में 25₹ किलो में बेच सकता था। ऐसी स्थिति में वो कैसे पहले से ही मूल्य निर्धारण कर लें?
इस कानून में मूल्य का निर्धारण दो प्रकार से हो सकता है यथा
(१) फसल बोने से पहले ही फसल की कीमत पर सहमती।
(२) Price flexibility –
इस प्रावधान के अनुसार वो अनुबंध करते समय कीमत को लेकर इस बात पर सहमत हो जाएं की कम से कम कीमत तो मान लो 20₹ किलो रहेगी ही रहेगी इससे कम वो नहीं दे सकेगा, परंतु यदि बाजार में फसल का दाम ज्यादा है तो किसान यह कह सकता है कि हमारी फसल के दाम में भी बाजार की कीमतों के अनुसार वृद्धि करो।
यह आदर्श स्थिती है किसान को कोई भी नुकसान किसी भी प्रकार से है ही नहीं।
(५) पैसे के भुगतान की क्रियाविधि – जिस दिन व्यापारी कंपनी अर्थात किसान का जिससे भी अनुबंध हुआ है वो जिस दिन किसान से फसल लेगा उसे उसी दिन पैसे का भुगतान करना होगा।
MSP में भी यह सुविधा नहीं है, कई बार तो मैंने किसानों को दो-तीन महीनों तक पैसों के लिए चक्कर काटते देखा है।
(६)किसान की भुमि को लेकर कानून – आपने इन दिनों यह खुब सुना होगा की जब किसान किसी उद्योगपति से अनुबंध करेगा तो वह उसकी जमीन को भी अपने अधीन कर लेगा, इससे मूर्खतापूर्ण बात मैंने नहीं देखी यह उसी प्रकार की बात है कि जब 2019 के अंत में एक विशेष समुदाय ने यह कहकर हुड़दंग मचाया था कि नागरिकता संशोधन कानून से हमारी नागरिकता छीन लेंगे।
कानून में स्पष्ट लिखा है कि किसान और जो प्रायोजक है उनके मध्य केवल और केवल फसल को लेकर अनुबंध होगा। यदि कोई भुमि को लेकर अनुबंध में कोई ऐसी बात लिखता है तो वो हिस्सा स्वत: ही अप्रभावी हो जाएगा।
तो यह स्पष्ट है कि किसान की भुमि को कोई ले ही नहीं सकेगा।
(७) रेगुलेशन – कानून में लिखा है कि राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि वो अपनी समझ के अनुसार एक अथोरिटी बना सकती है जो उस राज्य में हुए कृषि अनुबंधों का लेखा जोखा रख सकेगी। जिससे की अनुबंध की वैधता सुनिश्चित रहे।
(८) Force measures – इस प्रावधान के अनुसार यदि कोई प्राकृतिक आपदा यथा सूखा, बाड़, ओलावृष्टि आदि हो जाए तो ऐसी स्थिति में यह प्रावधान कहता है कि किसान का इसमें कोई दोष नहीं था अतः उसको किसी भी प्रकार का नुक़सान नहीं होना चाहिए।
(९) विवादों का समाधान – इसमें भी पिछले कानून के जैसे ही सरकार ने सुनिश्चित किया है कि कम समय में विवादों का निपटारा हो इसलिए स्थानीय अधिकारियों को सहारे विवाद को सुलझाया जाए।
(१०) अर्थदंड – यदि दोनों पक्षों में विवाद होता है और दोनो कहते हैं कि इसने मेरा नुकसान किया ऐसे में यदि गलती प्रायोजक की पायी जाती है तो उसे अर्थदंड अनुबंध में तय राशी का डेढ़ गुना किसान को देना होगा।
और यदि गलती किसान की पायी जाए तो किसान पर अर्थदंड नहीं लगाया जाएगा, उसे केवल उतनी राशी ही प्रायोजक को देनी होगी जो प्रायोजक ने वहां पर इन्वेस्ट की है।
कानून की अच्छाइयां –
१ – किसान को अनुबंध करके अपनी फसल की कीमत पहले ही तय करने का अधिकार होगा।
२ – स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी।
३ – कृषि में नये रचनात्मक बदलाव आएंगे।
४ – फसल के पैटर्न में बदलाव होने से पर्यावरण में उत्पन्न समस्याओं का समाधान होगा।
५ – सहकारी खेती की संभावनाओं में वृद्धि होगी।
– कानून से जुड़ी चिंताएं और समाधान
(क) कोर्ट में किसान का अपिल ना कर पाना, सरकार को इस विषय में अवश्य ही ध्यान देकर किसान कोर्ट में अपील कर सके ऐसा प्रावधान करना चाहिए।
(ख) बाजार में फसल का मूल्य ज्यादा होने पर किसानों को नूकसान हो सकता है, परंतु यह कोई गंभीर समस्या नहीं है क्योंकि किसान के पास विकल्प है कि वो अनुबंध करते समय फसल की कीमतों को पहले ही तय ना करके दुसरे तरीके पर अनुबंध करे।
(ग) रेगुलेशन – यह पक्ष थोड़ा कमजोर है क्योंकि कोई भी पेन कार्ड वाला व्यक्ति अनुबंध करने के योग्य है, अतः वह भाग भी सकता है, इसलिए सरकार को कुछ रूल्स व रेगुलेशन लाकर ऐसी स्थिति ना हो इसका उपाय करना चाहिए। जिससे की यदि वो गलती करे तो उस पर कठोर कार्रवाई हो सके।
एक और निर्थक प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि इन कानूनों के लागू होने से MSP अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा, परंतु सरकार ने विभिन्न दौर की वार्ता के समय और अभी संसद में कृषि मंत्री और अब स्वयं प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया है कि इन कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त नहीं होंगे और ना ही कानूनों में ऐसा प्रावधान ही है।
क्या होता है MSP?
सरकार किसान की फसल के लिए एक न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है, जिसे MSP कहा जाता है।
यह एक तरह से सरकार की तरफ से गारंटी होती है कि हर हाल में किसान को उसकी फसल के लिए तय दाम मिलेंगे।
यदि मंडियों में किसान को MSP या उससे ज्यादा पैसे नहीं मिलते तो सरकार किसानों से उनकी फसल MSP पर खरीद लेती है। इससे बाजार में फसलों की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव का किसानों पर असर नहीं पड़ता।
आरंभ
MSP की आरंभ कैसे हुआ?
आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में किसान इस बात को लेकर काफी परेशान थे कि अगर किसी फसल का बंपर उत्पादन हो जाए तो उन्हें उसके अच्छे दाम नहीं मिल पाते थे।
इस तरह से किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती थी, जिस कारण वो आंदोलन करने लगे।
इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री रहते हुए 1 अगस्त, 1964 को एलके झा के नेतृत्व में एक समिति बनी, जिसका काम अनाजों की कीमतें तय करने का था।
समिति के सुझावों को लागू होने के बाद 1966-67 में पहली बार गेहूं के लिए MSP का ऐलान किया गया।
इसके बाद से हर साल सरकार बुवाई से पहले फसलों के MSP घोषित कर देती है। MSP तय करने के बाद सरकार स्थानीय सरकारी एजेंसियों के जरिये अनाज खरीदकर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) और नेफेड के पास उसका भंडारण करती है।
फिर इन्हीं स्टोर्स से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के जरिये गरीबों तक सस्ते दामों में अनाज पहुंचाया जाता है।
नियम
फिलहाल 20 से अधिक फसलों पर दिया जाता है MSP
शुरुआत में केवल गेहूं के लिए MSP तय किया गया था। इससे किसान बाकी फसलों को छोड़कर सिर्फ गेहूं की फसल उगाने लगे, जिससे अनाजों का उत्पादन कम हो गया।
फिर सरकार की तरफ से धान, तिलहन और दलहन की फसलों पर भी MSP दिया जाने लगा।
फिलहाल धान, गेहूं, मक्का, जई, जौ, बाजरा, चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, शीशम, सूरजमूखी, गन्ना, कपास, जूट समेत 20 से अधिक फसलों पर MSP दिया जाता है।
जिम्मेदार संस्था
MSP कौन तय करता है?
देश में MSP तय करने का काम कृषि लागत एवं मूल्य आयोग का है।
कृषि मंत्रालय के तहत काम करने वाली यह संस्था शुरुआत में कृषि मूल्य के नाम से जानी जाती थी। बाद में इसमें लागत भी जोड़ दी गई, जिससे इसका नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग हो गया।
यह अलग-अलग फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है। वहीं गन्ने का MSP तय करने की जिम्मेदारी गन्ना आयोग के पास होती है।
प्रक्रिया
कैसे तय होता है MSP?
MSP तय करने की प्रकिया काफी जटिल और लंबी होती है।
इसके लिए आयोग अलग-अलग इलाकों में किसी खास फसल की प्रति हेक्टेयर लागत, खेती के दौरान आने वाले खर्च, सरकारी एजेंसियों की स्टोरेज क्षमता, वैश्विक बाजार में उस अनाज की मांग और उसकी उपलब्धता आदि मानकों के आंकड़े इकट्ठा करता है।
इसके बाद सभी हितधारकों और विशेषज्ञों से सुझाव लिए जाते हैं। अंत में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति इस पर अंतिम फैसला लेती है।
सभी फसलों की सरकारी खरीद न होना है परेशानी
सभी फसलों की सरकारी खरीद न होना है परेशानी
सरकार भले ही 20 से ज्यादा फसलों के लिए MSP तय करती है, लेकिन आमतौर पर सरकारी स्तर पर खरीद केवल गेहूं और धान की हो पाती है।
ऐसे में सभी किसानों को MSP का फायदा नहीं मिल पाता। इसकी वजह यह है कि गेहूं और धान को सरकार PDS प्रणाली के तहत गरीबों को देती है इसलिए उसे इसकी जरूरत होती है।
बाकी फसलों की उसे इतने बड़े स्तर पर जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए उनकी खरीद नहीं होती।
(3) आवश्यक वस्तु संशोधन बिल 2020
अर्थ, उद्देश्य एवं प्रावधान –
इस कानून सीधा सा अर्थ यह है कि अब उद्योगपति किसान से उसकी फसलों को खरीद कर अपने गोदाम, कोल्ड स्टोरेज आदि बनाकर एकत्रित कर सकेगा।
इसके पीछे सरकार का कहना है कि हम अब अन्न, सब्जियों, फलों के मामले में आत्मनिर्भर है तथा नख केवल आत्मनिर्भर है अपितु बाहर देशों को बेचते भी है तो क्यों हमें इनको सरकार के खर्च पर इकट्ठा करके रखना चाहिए।
क्योंकि आपने देखा होगा बरसात के समय में लाखों टन अनाज खराब हो जाता है क्योंकि सरकार के विभाग के पास इतने संसाधन नहीं है कि वो सारे के सारे अनाज को सुरक्षित रख सके।
– असामान्य स्थितियों में आवश्यक खाद्यान्नों का भंडारण (क) सरकार ने प्रावधान किया है कि वह खाद्य पदार्थों का भंडारण तब ही करेगी जब या तो युद्ध हो रहा हो, अकाल होने पर, बाड़ या सुखा होने पर या किसी महामारी के फैलने पर।
(ख) दुसरे तब जब कि किसी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी हुई हो और इस बिन्दु को लेकर लोग भ्रम फैला रहे हैं कि कोई फलां उद्योगपति अपने यहां भंडारण कर देगा और बाजार में अनियमितता करके अचानक उस वस्तु की कमी पैदा कर देगा और फिर अपनी मन मर्जी से उसको बेचेगा।
परंतु यह भ्रामक तथ्य है क्योंकि सरकार ने प्रावधान किया है कि यदि वो वस्तुएं सब्जियां, फल, फूल आदि है और पिछले एक साल में उनकी कीमतों में 100% तक की बढ़ोतरी हुई है तो सरकार उसको भंडारण करने पर रोक लगा देगी
यदि अनाज, दालें, मुंगफली, सरसों आदि में पिछले एक वर्ष की तुलना में इनकी कीमतों में 50% तक की बढ़ोत्तरी हो जाती है तो उनके भी भंडारण पर सरकार रोक लगा देगी।
तो यह तीनों कानूनों का सार है, सरकार को कुछ थोड़े से और संशोधन करके कानूनों पूर्ण रूप से लागू करना चाहिए और कानूनों को रद्द करने का जो यह बाल हट पकड़कर बैठे हुए आन्दोलनजीवियों के दबाव में आकर कानूनों को किसी भी स्थिति में रद्द नहीं करना चाहिए।
जैसा की प्रधानमंत्री जी ने संसद में कहा की इस देश का 80% किसान छोटे किसानों की श्रेणी में आता है और मैं स्वयं इसी श्रेणी का किसान हूं यह कानून हम जैसे छोटे किसानों के जीवन में निश्चित ही बड़े बदलाव लेकर आएगा।
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