तारीख का उनवान बदलना है तुझे, उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे… मरहूम शायर कैफी आज़मी ने ये शेर दुनिया भर की औरतों को पुकारते हुए बोला था। कैफ़ी आज़मी तो कब्रिस्तान में दफन हो गए मगर उनकी यह पुकार नक्कारखाने में तूती की तरह इस्लाम के कट्टर मुल्ले मौलवी के फरमानों में कैद हो गई। वक्त ने एक बार फिर अंगड़ाई ली है और अब इस्लामिक कट्टर हुकूक को बेनकाब करने के लिए मुसलमान औरतों ने मध्ययुगीन सोच को बेपर्दा करना शुरू कर दिया है। अब मुसलमान औरतें अपने लिए खुद मस्जिदें तामीर कर रही हैं.. कोपेनहेगन से लॉस एंजेलिस तक ऐसी मस्जिदें औरतों के हक और उनकी आजादी की नई इबारत लिख रही हैं। 

तहखानों में सीमित, इमामों के हुक्म से खामोश और मुख्य दरवाजे से दूर मुस्लिम औरतों ने मर्दों का जुल्म बहुत सह लिया। अब वो अपनी मस्जिदें खुद तामीर कर रही हैं. कोपेनहेगन से लॉस एंजेलेस तक ऐसी मस्जिदें आकार लेने लगी हैं.।

औरतें अपने लिए इबादत की बिल्कुल वैसी ही जगह चाहती हैं जैसी कि मर्दों को सदियों से मिलती आई है।  पिछले दो सालों से महिलाएं नमाज का नेतृत्व कर रही हैं, उपदेश दे रही हैं और कोपेनहेगन की मरियम मस्जिद को चला रही हैं।

ऐसी मस्जिदें लॉस एंजेलेस में हैं, एक जर्मन शहर बर्लिन में, इसके अलावा एक और मस्जिद इंग्लैंड के ब्रैडफोर्ड में भी बनाने की तैयारी है जो ब्रिटेन की पहली महिला मस्जिद है।

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