कालखंड है अटल के 6 साल के शासन युग का जिसमें उन्होंने शक्ति -२ परीक्षण किया और लाहौर तक बस से सफर किया। शायद अटल पहले भारतीय थे जिनके पास पाकिस्तान के लिए प्रेम था जबकि वे पाकिस्तान में जनमे नहीं थे वरना आज तक बाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां वही जलाते रहे हैं जिन की पैदाइश पाकिस्तान में हुई या पुरखे पाकिस्तान से वाबस्ता थे। उसी कालखंड में परमाणु परीक्षण के बाद श्रीलंका के राजदूत से यह पूछा गया कि क्या भारत ने परमाणु परीक्षण करके सही किया है?तब उस राजदूत ने जो उत्तर दिया वह उत्तर नहीं एक शिलालेख है जिसने उसने कहा कि भारत ने सही किया या गलत किया यह विवेचना का विषय नहीं है बल्कि विवेचना का विषय यह है कि क्या किसी को परमाणु परीक्षण करना चाहिए? पत्रकार निःशब्द था।यह बात तब और याद आई जब एक खेल परिसर को वर्तमान प्रधानमंत्री के नाम से पुनर्नामित किया गया। क्या समर्थक क्या विपक्षी सब के सब लटक गए इसी मुद्दे पर। मेरा मानना है कि हमेशा मरने पर ही अमर क्यों हुआ जाए। क्यों न जीवित रहते स्वर्ग का अनुभव किया जाए। अगर अहमदाबाद के किसी परिसर का नाम नरेंद्र दामोदरदास मोदी के नाम पर होता है इससे बेहतर बात क्या हो सकती है!जिस व्यक्ति के लगभग 50 सार्वजनिक वर्ष पूरी तरह से हिन्दुत्व और सनातन के नाम समर्पित रहा , जिसने कार्यकर्ता के रूप में पंडाल संयोजन से लेकर लगभग डेढ़ दशक मुख्यमन्त्रित्व और अपने अगले छः साल अब तक प्रधानमन्त्री के रूप में बिताया हो उसके नाम पर किसी संस्था का नामकरण कोई बुरी बात है , ये मैं नहीं मानता।जिस देश में बच्चे का नाम आक्रान्ता तैमूर के नाम पे रखा जाये जहाँ पूरे भारत के हर शहर में कम से कम दस पार्क, सड़क , अस्पताल, कालेज , स्कूल , चौराहा या सार्वजनिक स्थल आदि में से कम से कम दस जगहों में गान्धी और नेहरू नाम की गूँज हो, अंग्रेजों और मुगलों के नाम पे सड़कें हों वहाँ एक वर्तमान प्रधान मन्त्री को यदि एक सम्मन दिया गया तो क्या गज़ब हो गया जब कि जबकि एक प्रधान मन्त्री तो भारतरत्न के लिये अपने नाम का विरोध नहीं कर पाये। मोदी को सम्मान देना उनके दशकों लम्बे राजनैतिक जीवन का सत्कार है जबकि सुभाष चन्द्र बोस और मोरारजी भाई को तो ये पुरस्कार कूरियर हीं किये गये। एक वाटर प्यूरिफ़ायर बेचने वाले को भारत रत्न देने वाली कमीटी को आज तक ध्यान चन्द ना दिखे। एक आधुनिक भारत के एक मात्र गणितज्ञ रामानुजन को न तो आज तक हमने अपने १७ साल के छात्र जीवन में कभी नहीं पढ़ा। विश्वविद्यालयों ने भी इस जीनियस को राजनैतिक हरी झण्डी के अभाव में आज तक बिसरा दिया और जब राम को नहीं पूछा तो वशिष्ठ की क्या विसात… लाश कुछ घंटे अशोक राजपथ पर फ़ोल्डिंग बेड पर पड़ी रही। तब तो बस मोदी से जलन है क्यों कि लुटियन ज़ोन में मात्र राम का नाम लेकर एक योगी सरीखा बन्दा वामपन्थियों की हवा टाइट किये बैठा है। आने वाले दो चार दशक तक गेरुआ रंग उतरता नहीं दीखता है। ये डर अच्छा है। यही डर तो है जो कभी शाहीन बाग को घेरती है तो कभी दिल्ली की सरहदों को। यही डर तो है जो ग्रेटा थनवर्ग से लेकर पोर्न स्टार तक से भी खेती करा देती है। यही डर है जो ग़ुलाम को ग़ुलाम ए नवी की आवाज़ में हिन्दोस्तान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की तारीफ़ करने पर विवश कर देती है । यही डर है जो एक अ-हिन्दू डीएनए को दत्तात्रेय गोत्र प्रदान कर देता हैऔर यज्ञोपवीत पहना देता है। ये डर ज़रूरी है।अगर अल्पसंख्यक तुष्टिकारी शक्तियाँ बहुसंख्यकों की भावनाओं को समझने लगे तो बात हीं क्या है!सवाल तो अब भी यही है कि क्या किसी भी सार्वजनिक वस्तु का नाम किसी खास व्यक्ति के नाम पर रखना उचित है? विरोध सब करेंगे पर जवाब किसी के पास ना होगा। हम लेनिन की मूर्ति बना सकते हैं, देर रात एक सेण्टल यूनिवर्सिटी में बीफ़ पार्टी आयोजित कर सकते हैं , बेटे का नाम तैमूर रख सकते हैं , शिक्षण संस्थाओं में क्रिसमस मना कर सरस्वती पूजा को इग्नोर कर सकते हैं , अपना सरनेम रावण भी रख कर बलात्कारी के लिये फ़ाँसी की माँग कर सकते हैं, कृष्ण जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में छुट्टी के बाद कटरा केशव की मस्ज़िद में रंगरोगन कर सकते हैं , अमरनाथ यात्रा में छड़ी मुबारक को कबूल कर सकते हैं और औरंगज़ेब रोड या अकबर रोड से गुजरकर जनपथ पर आ सकते हैं पर जैसे हीं मोदी के नाम का स्टेडियम दिखता है तो बस पाँव को लकवा मार जाता है ।
ऐसे लोगों के लिये बस एक शेर है कि –

जाने किस किस की ग़ज़ल रोज सुना करते हो

हमने एक शेर सुनाया तो बुरा मान गये ॥

जनाब ये तो पहला शेर है… पूरी गज़ल फिर कभी।

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