भारत के मर्म और मन को समझ पाने में असमर्थ व्यक्तियों एवं विचारधाराओं ने सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व, राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीयत्व जैसे विचारों एवं शब्दों को या तो सदा से नितांत वर्जित एवं अस्पृश्य माना है या उसकी एकांगी-अनुचित व्याख्या की है। हिंदू और हिदुत्ववादी को भिन्न बताकर काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सर्वथा नवीन, मौलिक एवं विचारोत्तेजक विवेचना प्रस्तुत की हो, ऐसा बिलकुल नहीं है। सनद रहे कि उनके वक्तव्य को सुनकर ताली पीटने वालों की लहालोट मुद्राएँ ऊर्जा, उत्साह और समर्थन के ही नहीं, बल्कि बोझ, खीझ या विवशता के भी द्योतक हो सकते हैं। सच तो यह है कि ”हिंदुत्ववादियों को सत्ता से बाहर कर हिंदूवादियों को सत्ता सौंपने” वाला उनका वक्तव्य वर्षों से चली आ रही तुष्टिकरण की चिर-परिचित काँग्रेसी राजनीति का परिवर्तित एवं नया रूप है। जिन्हें हिंदू धर्म व दर्शन की न्यूनतम समझ भी हो, वे भी जानते हैं कि ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्व’ एक-दूसरे से पृथक नहीं, अपितु पर्याय हैं। इतने कि जैसे आत्मा और शरीर, विचार और व्यवहार या चरित्र और आचरण, इतने कि जैसे स्त्री और स्त्रीत्व, मातृ और मातृत्व, पितृ और पितृत्व, व्यक्ति और व्यक्तित्व। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय फ़ैसला दे चुका है कि ”हिंदुत्व एक जीवन-शैली है, उसे केवल आस्था या पूजा-पद्धत्ति तक सीमित नहीं किया जा सकता।” पर काँग्रेस और उसके तमाम राजनेता कदाचित यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती! घिसे-पिटे नारों-मुहावरों, आरोपों-आक्षेपों को दुहराकर कोई भी नेता या दल परिवर्तन का वाहक नहीं बन सकता! परिवर्तन का वाहक बनने के लिए अतीत की भूलों से सबक ले, वर्तमान को सुधार, भविष्य की दिशा तय करनी पड़ती है। परंतु आश्चर्य नहीं कि खंडित एवं आधे-अधूरे भारत-बोध से भरे काँग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता और दरबारियों से घिरे उसके युवा अध्यक्ष तुष्टिकरण को ही सुविचारित नीति एवं ढाल की तरह आगे बढ़ाकर, दशकों पुरानी क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी, वामपंथी, बौद्धिक लीक-लकीर का अनुसरण करने में ही स्वयं को सुरक्षित पाते हैं। जो असहमत हैं, वे किनारे लगा दिए गए दिग्गज़ों का हाल देख मौन साध लेने में ही अपना-अपना हित और राजनीतिक भविष्य देखते हैं।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानने वाले आम एवं प्रबुद्ध जनों को निश्चित स्मरण होगा कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही सलमान ख़ुर्शीद हिंदुत्व की तुलना बोकोहरम और आईसिस से कर चुके हैं, राशिद अल्वी ‘जय श्रीराम’ बोलने वालों को ‘निशाचर’ एवं ‘राक्षस’ तक बता चुके हैं, शशि थरूर भारत के ‘हिंदू-पाकिस्तान’ बन जाने की आशंका व्यक्त कर चुके हैं, यह अलग बात है कि 2018 के उनके वक्तव्य और 2019 में प्रधानमंत्री मोदी को व्यापक जनादेश मिलने के बाद भी भारत का लोक व तंत्र दोनों यथावत है! बल्कि सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण को तीव्र करने वाले ऐसे अतिरेकी वक्तव्यों को लेकर काँग्रेस के प्रबुद्ध माने जाने वाले तमाम दिग्गज़ों के बीच भी प्रायः एक अघोषित प्रतिस्पर्द्धा-सी छिड़ी रहती है। हर दूसरा नेता ऐसे बयान जारी कर अपने नेतृत्व और समुदाय विशेष की दृष्टि में ख़ुद को अधिक बड़ा एवं सेकुलर नेता साबित करने के लिए आए दिन ताल ठोंकता रहता है। मणिशंकर अय्यर ने महाराणा प्रताप की तुलना में अकबर-बाबर-हुमायूँ-जहाँगीर-शाहजहाँ-औरंगजेब को अधिक भारतीय मानने की वक़ालत एवं पैरवी करने के बाद, कुछ दिनों पूर्व तो यहाँ तक कह दिया कि ”2014 के बाद हम अमेरिका के ग़ुलाम हैं।” प्रश्न यह है कि सत्ता छिनने के पश्चात इस सीमा तक विवेक और संतुलन खोकर वक्तव्य जारी करने से क्या देश की वैश्विक छवि को हानि व ठेस नहीं पहुँचती होगी? और ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार के बयान भावावेश या ध्रुवीकरण की राजनीति के सह-उत्पाद हों, बल्कि नीतिगत स्तर पर भी काँग्रेस अपने पिछले कार्यकाल में ‘सांप्रदायिक हिंसा विधेयक’ लाने का प्रस्ताव रख चुकी थी, जिसमें अपने ही देश के बहुसंख्यकों को दोयम दर्ज़े की नागरिकता प्रदान करने की पैरवी की गई थी, वह सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर कह चुकी थी कि ‘भगवान राम एक काल्पनिक चरित्र हैं।’ उसके नेता 26/11 के मुंबई आतंकी हमले का दोष हिंदुओं पर मढ़ने का असफ़ल षड्यंत्र रच चुके थे, उसमें विफलता मिलने के पश्चात भी बड़ी ढिठाई से वे सार्वजनिक विमर्श में ‘भगवा आतंक’ जैसे शब्द व जुमले उछालते रहे। अपने को ‘सच्चा सेकुलर’ साबित करने के लिए उसके नेता निर्दोष गाय के एक बछड़े का वध करने से भी परहेज़ नहीं करते, उनका यह प्रदर्शन इस सीमा तक पहुँच जाता है कि वे केरल में ‘बीफ़’ के सह-भोज का आयोजन तक कर चुके हैं। उन्हें कश्मीर-घाटी से हिंदुओं के पलायन के लिए जिम्मेदार इस्लामी ताक़तों से हाथ मिलाने, सत्ता में आने पर दुबारा धारा 370 लागू करने की घोषणा और आतंकवाद के सरगना को ‘जी’ कहकर सम्मानित और संबोधित करने में कुछ भी अनुचित नहीं लगता। उन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए इस वक्तव्य पर गर्व है कि ”राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है।” वे इस बयान को आयतों की तरह दुहराते रहे हैं कि ‘बाटला हॉउस एनकाउंटर’ के बाद उनकी सर्वमान्य एवं देश की शक्तिशाली नेत्री रात भर रोती-सुबकती और आँसू बहाती रहीं। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महँगाई हटाओ महारैली में काँग्रेस-नेता राहुल गाँधी का वक्तव्य अनायास नहीं आया, वह सायास दिया गया है, क्षणिक नहीं, अपितु पार्टी की सुदीर्घ एवं सुविचारित नीति एवं परंपरा का अविच्छिन्न अंग एवं भावी रणनीति व योजना का विस्तार है। वस्तुतः ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्व’ में कथित भेद का नया काँग्रेसी राग, मिथ्या प्रचार कर भोले-भाले हिंदुओं के वोट झटकने और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर उनका ध्रुवीकरण तेज़ करने का दशकों पुराना ‘खेल’ है।
उल्लेखनीय है कि ऐसे बयानवीर हिंदू समाज या हिंदुत्व के अनुदार, आक्रामक या विस्तारवादी होने के एक प्रमाण नहीं देते। वे पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफगानिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे हिंसक हमलों पर एकदम मौन साध जाने की कला में सिद्धहस्त हैं। उन्हें इस यथार्थ से कोई मतलब नहीं कि स्वतंत्र भारत में भी बहुसंख्यकों को ही घाटी तथा कुछ अन्य क्षेत्रों से पलायन को विवश होना पड़ा। वे जान-बूझकर इस ऐतिहासिक तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि हिंदू-समाज ने बाहर से आए शकों-हूणों-कुषाणों-यवनों को तो आत्मसात किया ही, एक ही मूल से निकले जैनों-बौद्धों-सिखों को भी स्वतंत्र फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया तथा बहुत मामूली संख्या वाले यहूदियों-पारसियों की भी भिन्न-विशिष्ट पहचान, पूजा-पद्धत्ति व उपासना-स्थलों की रक्षा की। इस्लाम और ईसाईयत के साथ भी हिंदू समाज का सदैव सहयोग एवं समन्वय का ही भाव रहा है। वस्तुतः हिंदू कहें या हिंदुत्व, उसका पूरा दर्शन ही सह-अस्तित्ववादिता एवं प्राणि-मात्र के कल्याण की भावना से प्रेरित-संचालित है। वहाँ जय है तो धर्म की, क्षय है तो अधर्म की, आग्रह है तो कर्त्तव्यों के पालन की, उपेक्षा है तो हिंसा, छल, बल व परपीड़ा पर अवलंबित सोच व आयातित दर्शन की। निष्कर्षतः हिंदू यदि बाह्य स्वरूप है तो हिंदुत्व उसका भीतरी गुण-धर्म, दोनों में भेद ढूँढ़ना या तो नितांत मूढ़ता है या कोरी राजनीति।
प्रणय कुमार
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