It was believed that our ancestors gained and then lost dark skin throughout evolution. But I came across an article on the internet a few days ago, where a research paper was published by a professor of dermatology and his wife. According to them, heavily pigmented skin was evolved because it forms a strong barrier against a host of environmental challenges. Then our ancestors shed some of these pigments through natural selection as they moved towards the north because they needed less protection against these threats. During their research work, they also came to know that darkly pigmented skin has a far better function, including resistance towards certain microorganisms, even pathogens.
But, contrary to this theory and research work, most of us prefer the fair skin colour over the dark one. Be it the newly born baby or the choice for a life partner, we always favour the fairer one. It’s the misconception that fair colour is beautiful. The Westerns have given rise to this discrimination by posing themselves as superior. And this trend continues for centuries, which has, in turn, changed the mind-set of people. We have seen how slavery was evident in history, which was meant for the dark coloured only. Whites appeared to be the dominating, but they might have forgotten about their common ancestral roots. Isn’t it a pseudo mentality to look fairer? Do they possess any exceptional calibre? In my opinion, a big no.
Last month, one of my colleagues developed some allergy on the face. There were some red spots above the left eye and the chin. Those spots were visible even from some distance. When enquired, it was revealed that a skin whitening lotion has caused that atopic dermatitis. Obviously, our skin has to tackle with so many chemicals in the form of soap, bleaching agents, face wash, etc. In a few days, the reddened skin turned into blisters and the swelling was evident. The face becomes partially asymmetrical, beyond imagination. The disfiguring of the epidermis was so impactful that the orbicularis oculi muscle might have told the Procerus Muscle, to remain immobile, else it would become tender. But it’s a great irony that those whose favourite colour is black still use fairness creams and other related cosmetics products to look fairer.
This was just an exemplar to show how unsafe skin whitening products are maligning our perspective and frame of mind. Skin lightening has become a desirable norm due to the implications of brands and their ambassadors. This silly attempt to reduce the melanin concentration of the skin by using chemicals (toxic in nature), even mercury, may cause neurological complications and renal problems. We must know that mercury-based products can discolour the skin by accumulating themselves within the dermis. Its toxicity may create acute symptoms of pneumonitis as well as gastric irritation, insomnia, memory loss, irritability. Some of the products are carcinogenic and even induce genetic changes too. The list is too long, and you can use the wiki for further details.
Nature has given us varied colours based on our needs and abode. Every individual has uniqueness in terms of traits. If nature has given us a particular trait, who we are to barge in? Be yourself and enjoy life. Blame the melanin. Who knows whose favourite is dark?
Dr. R. K. Panchal
जीवन के रंग
यह माना जाता रहा है कि हमारे पूर्वजों (जो आज के अफ्रीका महाद्वीप में रहते थे) की त्वचा अधिक रंजित थी लेकिन फिर धीरे धीरे विकास के दौरान उसका कालापन खो दिया । परन्तु मुझे कुछ दिन पहले इंटरनेट पर एक लेख मिला, जहां त्वचा विज्ञान के प्रोफेसर और उनकी पत्नी द्वारा एक शोध पत्र प्रकाशित किया गया था। उनके अनुसार, भारी रंजित त्वचा विकसित हुई क्योंकि यह कई पर्यावरणीय चुनौतियों के खिलाफ एक मजबूत बाधा बनाती है। फिर हमारे पूर्वजों ने इनमें से कुछ वर्णक प्राकृतिक चयन के माध्यम से छोड़ दिए क्योंकि वे उत्तर की ओर बढ़े | शायद उन्हें इन खतरों से कम सुरक्षा की आवश्यकता थी। अपने शोध कार्य के दौरान, उन्हें यह भी पता चला कि गहरे रंग की त्वचा का कार्य बेहतर होता है, जिसमें कुछ सूक्ष्मजीवों, यहां तक कि रोगजनकों के प्रति प्रतिरोध भी शामिल है।
इस सिद्धांत और शोध कार्य के विपरीत, हम में से अधिकांश लोग गहरे रंग की तुलना में गोरा रंग पसंद करते हैं। नवजात शिशु हो या जीवन साथी की पसंद, हम हमेशा सुनहरे रंग का ही पक्ष लेते हैं। यह गलत धारणा है कि गोरा रंग सुंदर होता है। पाश्चात्यों ने स्वयं को श्रेष्ठ बताकर इस भेदभाव को जन्म दिया है। और यह प्रवृत्ति सदियों से जारी है, जिसने लोगों की मानसिकता को बदल दिया है। हमने देखा है कि इतिहास में गुलामी किस प्रकार अस्तित्व में आई, जो केवल गहरे रंग के लिए थी। गोरों का दबदबा था, लेकिन वे अपनी सामान्य पैतृक जड़ों के बारे में भूल गए होंगे, जो उसी अफ्रीका से जुडी हुई हैं जहाँ से वो गुलामों को कैद करके ले जाते थे । क्या गोरा दिखना एक छद्म मानसिकता नहीं है? क्या उनके पास कोई असाधारण क्षमता है?
पिछले महीने, मेरे एक सहयोगी के चेहरे पर कुछ एलर्जी विकसित हो गई। बाईं आंख के ऊपर और चेहरे के अन्य हिस्सों पर कुछ लाल धब्बे थे। वे धब्बे कुछ दूर से भी दिखाई दे रहे थे। पूछताछ करने पर पता चला कि त्वचा को गोरा करने वाले लोशन से एटोपिक डर्मेटाइटिस हो गया है। जाहिर है, हमारी त्वचा को साबुन, ब्लीचिंग एजेंट, फेस वाश आदि के रूप में बहुत सारे रसायनों से निपटना पड़ता है। कुछ ही दिनों में उनकी लाल हुई त्वचा दानों में बदल गई और सूजन भी हो गई। चेहरा आंशिक रूप से विषम हो गया, कल्पना से परे। एपिडर्मिस का विघटन काफी प्रभावशाली था | (हो सकता है की ऑर्बिक्युलिस ओकुली माँसपेशी ने प्रोसेरस माँसपेशी को भी स्थिर रहने के लिए कहा होगा, अन्यथा समस्या और विकट हो जाती।) लेकिन यह बड़ी विडंबना है कि जिनका पसंदीदा रंग काला है, वे अभी भी गोरा दिखने के लिए फेयरनेस क्रीम और अन्य संबंधित कॉस्मेटिक उत्पादों का उपयोग करते हैं।
यह दिखाने के लिए सिर्फ एक उदाहरण था कि कैसे असुरक्षित त्वचा को गोरा करने वाले उत्पाद हमारे दृष्टिकोण और मानसिकता को खराब कर रहे हैं। ब्रांडों और उनके मॉडल्स के प्रभाव के कारण त्वचा का रंग हल्का करना एक वांछनीय मानदंड बन गया है। रसायनों (विषाक्त प्रकृति), यहां तक कि पारा का उपयोग करके त्वचा की मेलेनिन एकाग्रता को कम करने का यह मूर्खतापूर्ण प्रयास तंत्रिका संबंधी जटिलताओं और गुर्दे की समस्याओं का कारण बन सकता है। पारा आधारित उत्पाद त्वचा के भीतर जमा होकर त्वचा का रंग खराब कर सकते हैं। इसकी विषाक्तता न्यूमोनिटिस के साथ-साथ आमाशायिक जलन, अनिद्रा, स्मृति हानि, चिड़चिड़ापन के तीव्र लक्षण पैदा कर सकती है। कुछ उत्पाद तो इसमें ऐसे हैं जो कैंसर कोशिकाओं को जन्म दे सकते हैं और यहां तक कि आनुवंशिक परिवर्तन भी ला सकते हैं। सूची बहुत लंबी है, और अधिक जानकारी के लिए आप विकिपीडिया का उपयोग कर सकते हैं। यह सब जानते हुए भी ऐसे उत्पादों का धडल्ले से प्रयोग किया जा रहा है, और वो भी सिर्फ प्राक्रतिक उपहार से छेड़छाड़ के लिए !
प्रकृति ने हमें हमारी जरूरतों और पर्यावरण के आधार पर विविध जीवन के रंग दिए हैं। प्रत्येक व्यक्ति में गुणों की दृष्टि से अद्वितीयता होती है। यदि प्रकृति ने हमें कोई विशेष गुण दिया है, तो हमें किसमें परिवर्तन करना है? आत्मविश्वासी बनें और जीवन का आनंद लें। कौन जानता है कि किसका पसंदीदा रंग काला ही है?
डॉ आर के पांचाल
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