प्रधानमंत्री इ-विद्या योजना की सार्थकता: सांस्कृतिक विरासत
कोरोना की वजह से दुनिया का स्वरुप बदल रहा है, बदलाव ब्यक्ति और समाज की सोंच में भी हुआ है, और इसका असर आनेवाले समय में और साफ दिखाई देगा.
कोरोना की वजह से दुनिया का स्वरुप बदल रहा है, बदलाव ब्यक्ति और समाज की सोंच में भी हुआ है, और इसका असर आनेवाले समय में और साफ दिखाई देगा.
कोरोना की वजह से दुनिया का स्वरुप बदल रहा है, बदलाव ब्यक्ति और समाज की सोंच में भी हुआ है, और इसका असर आनेवाले समय में और साफ दिखाई देगा. इस अकल्पनीय स्वास्थ्य आपदा ने शिक्षा प्रणाली के ढांचे को चरमरा कर रख दिया है। प्रभाव इतना गहरा है कि कई राज्यों में मेडिकल कॉलेज की एमबीबीएस की कक्षाएं बंद कर दी गई हैं। उच्च शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, बेसिक शिक्षा, प्राविधिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा एवं बाल विकास कार्यक्रमों के तहत दी जाने वाली सभी प्रकार की कक्षाएं रद की जा चुकी हैं। कमोबेश यही हाल उच्च शिक्षा केंद्रों का भी है। इस बीच भारत के प्रधानमंत्री ने एक आत्मनिर्भर भारत की बड़ी योजना की घोषणा की है, इसके कई आयाम है, उसमे एक महत्वपूर्ण पक्छ शिक्छा से जुड़ा हुआ है. प्रधानमंत्री इ-योजना के तहत ५० लाख विद्यालय और ५० हज़ार से अधिक उच्च शिक्छण संस्थान को डिजिटल बनाने की बात सोंची जा रही है. भारत के पास संसाधन और इक्छा शक्ति दोनों ही बातें है जो इसको सफल बना सकते है.केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने सपष्ट शब्दों में कहा कि दुनिया के सामने भारत एक मानक बन सकता है. विश्व विद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन प्रोफ डी.पी सिंह भी उच्च शिक्छा को पूरी तरह से डिजिटल बनाने के हक़ में है. प्रोफ सिंह के अनुसार इसके कई फायदे है और समय की जरुरत भी है.
यह भी तय है कि जबतक स्तिथि सामान्य नहीं बन जाती तबतक केंद्र या राज्य सरकार इनको खोलने कि इजाजत नहीं देगी. क्योंकि यहाँ बच्चों के जीवन की सुरक्छा का मसला है. अगर इसी तरह लॉक डाउन में शिक्छा को बंद अँधेरी गलियों में छोड़ दिया जाये तो भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए कई मुसीबते खड़ी हो जाएंगी. भारत के सामने २०१४ की एबोला की महामारी एक सीख है जो पश्चिमी अफ्रीका में आयी थी, और उसकी वजह से सिएरा लियॉन, गुएना और लाइबेरिया में स्कूल ६ से ९ महीने के लिए बंद कर दिया गया था. जब स्कूल खुला तो ड्राप आउट का प्रतिशत २३ से ३० प्रतिशत तक पहुंच गया. अर्थात १५ लाख नामाकिंत बच्चों में तक़रीबन ५ लाख बच्चे पुनः स्कूल में दाखिला नहीं ले पाए, उनमे से अधिकांश बाल मजदूरी में तब्दील हो गए. इस श्रृंखला में बालिकाओ की तादाद ज्यादा थी. ठीक यही भय और संशय भारत में भी है. राजस्थान और बिहार में ड्राप आउट का औसत अन्य राज्यों से अधिक है, अगर स्कूल में अनिश्चित काल तक शिक्छा की ब्यस्था बहाल नहीं होती तो भारत की दशा भी यही होगी जो पश्चिमी अफ़्रीकी देशों में हुआ. कोरोना के दौरान ही यूनिसेफ की रिपोर्ट में यह बात दर्ज की गयी थी कि कोरोना कि वजह से बाल विवाह की समस्या कई गुणा बढ़ जाएगी. साथ ही बाल मजदूरी भी उसी अनुपात में बढ़ेगा.
अगर हम उच्च शिक्छा की बात करे तो भारत की स्तिथि अन्य देशों की तुलना में बहुत अच्छी नहीं रही है. ५०० की श्रृंखला में भारत के किसी भी संस्था का नाम दर्ज नहीं है, जबकि चीन की स्तिथि १९९० तक भारत जैसी ही थी, लेकिन पिछले २० वर्षो में चीन ने छलांग लगा कर अपनी उच्च शिक्छा को एक सम्मानजनक हालत में पंहुचा दिया है. इसलिये कोरोना की समस्या भारत के लिए एक अवसर भी बनकर आया है. यह जानते हुए कि भारत की मानसिकता अभी भी उच्च शिक्छा को डिजिटल बनाने और समझने की नहीं बनी है. एक मनोवैज्ञानिक ग्रंथि है जो माता-पिता और शिक्छकों में धसा हुआ है. उसे निकलना होगा. आज जिन बातों की विवेचना इस माहमारी में हो रही है, और उसके रोकथाम के लिए जो उपाय बताये जा रहे है, वो सारी बातें भारतीय जीवन पद्धति में उपलब्ध है. जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय के कुलपति ने रामायण को आधार बनाकर पुरे देश में भारतीय संस्कृति को पढ़ने और पढ़ाने की शुरुवात की है. उनके शब्दों में राम के द्वारा बताई गयी बातों से से बेहतर कोई सीख नहीं जो इस प्रतिकूल परिस्थिति में दुनिया और मानव समाज को ब्यस्थित और संतुलित रख सके. प्रोफ जगदेश कुमार ने गाँधी की टिपण्णी को उद्धरत किया है जो उन्होंने १९४६ में कही थी ,” राम एक मानक है, सबकी रक्छा करने वाले, और सबका मालिक, उनके मार्ग को अपनाकर हर मुसीबत से लड़ा जा सकता है” यही बात भारत के अन्य बुद्धिजीवियों का मानना है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख सुनील अम्बेकर का भी कहना है कि कोरोना से लड़ने के लिए भारतीय जीवन पद्धति का अनुसरण दुनिया के लिए एक सशक्त हथियार बन सकता है.
प्रश्न उठता है कि ऑनलाइन शिक्छा ब्यस्था कैसे संभव बन पाएगी? क्या भारत के पास संसाधन है? क्या हमारी मनोवैज्ञानिक मानसिकता इसको अपनाने के लिए तैयार हो पाएगा? क्या इस रस्ते पर चलते हुए भारत एक समर्थ और सार्थक विश्व शक्ति बन पाएगी? इन तमाम प्रश्नो का उत्तर जरुरी है. पहला, भारत कि उच्च शिक्छा की तादाद तक़रीबन ३५ मिलियन है जबकि हमारे देश में स्मार्ट मोबाइल का आकड़ा ५० मिलियन से ज्यादा है. उच्च शिक्छण संस्थाओ की संख्या भी ५० हज़ार से अधिक है. अर्थात हर विधार्थी के पास स्मार्ट फ़ोन है. पिछले कुछ सालों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने डिजिटल इंडिया अभियान के तहत दैनदिन की ब्यस्था को पेपर वर्क हटाकर ऑनलाइन में तब्दील कर दिया है. इस हुज़ूम में लाखो अंगूठा छाप महिला और पुरुष भी है. अगर एक अशिक्छित ब्यक्ति ऑनलाइन ब्यस्था को अपना सकता है तो एक पढ़ा लिखा नौजवान ऑनलाइन शिछा तंत्र को क्यों नहीं अंगीकार कर सकता है. चीन, अमेरिका और जापान ५ जी की टेक्नोलॉजी को अपना चुके है, भारत भी इस दौड़ में है. ऑनलाइन शिक्षा की पहुंच अब सिर्फ शहरी या इंटरनेट की उपलब्धता वाले कस्बाई क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि इसकी पहुंच अब सभी दूरदराज व सीमावर्ती क्षेत्रों तक होगी। जो अभी तक इंटरनेट की पहुंच से दूर हैं। इसे लेकर सरकार ने एक बड़ी योजना पर काम शुरू किया है। जिसके तहत देश में बच्चों को पढ़ाने के लिए 12 नए डेडीकेटेड टीवी चैनेल शुरु किए जाएंगे। जो पहली से लेकर बारहवीं तक की प्रत्येक क्लास के लिए अलग-अलग होंगे। जिसमें स्कूलों की तरह तय समय पर ही क्लास लगेगी। फिलहाल इस योजना को पीएम ई-विद्या नाम दिया गया है। यह सभी चैनेल मंत्रालय के पास मौजूद स्वयंप्रभा के 32 चैनेलों में से ही उपलब्ध कराए जाएंगे। मौजूदा समय में इनमें से कई चैनल यूजीसी, एनआईओएस, इग्नू जैसे संस्थानों को आवंटित है।इस बीच मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एनसीईआरटी को अध्ययन सामग्री तैयार करने का जिम्मा सौंपा है।
दूसरा, भारत की शिक्छा ब्यस्था में केवल ब्वयासिकता की सोंच नहीं थी, यह संच है कि आजादी के उपरांत अंग्रेजियत ब्यस्था ने इसे उसी रंग ढंग में ढiल दिया, जहाँ चरित्र निर्माण और समाज की सूझ बुझ को भूलकर नौकरी शिक्छा का एक मात्र पैमाना बन गया. ज्ञान और विज्ञानं की परम्परा भी कुंठित होती चली गयी. देसज ज्ञान फालतू बन गया. अपनी संस्कृति और इतिहास बेगाना बन गया. अपनी भाषा और अस्तित्व बोध भी सवालो के घेरे में खड़ा दिखाई देने लगा. आज जब पूरी दुनिया भारत के पारम्परिक ज्ञान की बिगुल बजा रही है, अमेरिकी वाइट हाउस में वेदों का उच्चारण हो रहा हो, और भारत की पर्यावरण समझ को दुनिया समझने को लालायित हो तो ऐसी स्तिथि भारत की उच्च शिक्छण संस्थानों के लिए एक चुनौती भी है, लेकिन उस चुनौती में एक बेहतरीन मौका भी है, देश की ज्ञान परम्परा को विकसित करने की. किस देश में पेड़, पहाड़, नदियों, और जंगल की आराधना और पूजा होती है? किस संस्कृति में ब्रह्माण्ड को नियामक एक देवता सुनिश्चित है, महज अग्नि देवता, वायु देवता और जल देवता. भारत के आदिवासी समूह में भी प्रकृति की पूजा की जाती है. जबकि अन्य देशों की संस्कृति प्रकृति को एक साधन मानती रही है, यही कारण है कि इसका दोहन और लूट होता रहा. १९९५ में क्योटा प्रोटोकॉल से लेकर पेरिस संधि तक पश्चिमी देश स्वार्थ की राजनीति करते रहे. भारत के पास एक अवसर है इन तमाम विषयो पर एक सुसंगठित विषय वस्तु की रचना कर और दुनिया के सामने उसे परोसने की. आज भारत की बात को मानाने से कोई इंकार नहीं कर सकता. भारत के वेदों में विज्ञानं के गूढ़ रहष्य छिपे हुए है. समय है इसे स्थापित करने की. यह काम भारत के उच्च शिक्छण संस्थान ही कर सकते है. जेएनयू ने लीडरशिप की भूमिका शुरू कर दी है. जरुरत है प्रधांनमंत्री की सोंच और भारत को उस मुकाम तक पहुंचाने की जहाँ से इस राष्ट्र की विश्व गुरु की स्वाभाविक पहचान को साथ स्थापित किया जाये.
एक रिपोर्ट के अनुसार एशिया और यूरोप के देशों में करीब पांच लाख भारतीय छात्र अध्ययनरत हैं। अकेले चीन के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हजार से भी ज्यादा छात्र एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे हैं। इसी तरह से इटली में करीब एक हजार, ईरान में 1,500 और स्पेन में 200, जबकि अमेरिका में एक लाख 86 हजार भारतीय छात्र अध्ययनरत हैं। भारत के लाखों विधार्थी अरबो रुपया खर्च करके विदेशों में पड़ने जाते है, जिसमे सबसे बड़ी संख्या अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पड़ने वालों की है, उसी तरह अन्य यूरोपीय देश और चीन भी जाते है. कोरोना के बाद शायद माता पिता अपने बच्चे को बहार भेजने से बाज आएंगे, अर्थात हज़ारो करोड़ का खर्च देश में ही बना रहेगा , और ब्रेन ड्रेन भी रुक जाएगा. भारत के उच्च शिक्छण संस्थान के लिए एक अवसर है, अपनी आर्थिक सम्पदा और बौद्धिक पूंजी को राष्ट्र के हित में प्रयोग करने की. भारत में आधुनिक और पारम्परिक ब्यस्था के मिश्रण से एक अदभुत ब्यस्था की नीव डाली जा सकती है. जब १०० वर्ष से भी पहले रविंद्र नाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन को स्थापित कर भारत की पारम्परिक शिक्छण प्रणाली की नीव डाली, जो आज के आधुनिक युग में भी भारत का बेहतरीन शिक्छण संस्थान के रूप में स्थापित है तो और ऐसे ही संस्थान की स्थापना क्यों नहीं हो सकती, जिसे एक मानक पर ऑनलाइन विधि के द्वारा एक देश और एक ब्यस्था के तहत उच्च शिक्छा को स्थापित किया जा सके.
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