पिछले दिनों प्रधानमंत्री के द्वारा लोकल से ग्लोबल की बात कही गयी. यह सोच तो उल्टी गिनती जैसी लग रही है. पिछले ७० वर्षो में भारत ने ग्लोबल से लोकल की लकीर पर रेंगता रहा. हमारे देश बनने चीजे ग्लोबल मार्किट की पर्तिस्पर्धा में दम तोड़ती गयी और हम समय के धारा कब लोकल से ग्लोबल बन गए पता ही नहीं चला. कोकोकोला और पेप्सी भारत के गावं की दुकानों में बिकने लगी. भागलपुर की रेशमी साडी जो माचिस की डिब्बिया में समां जाती थी, पश्मीना का शॉल और कानपूर का जूता समय के साथ दम तोड़ता गया. बहुत कुछ अंग्रेजो की महरबानियो से ख़त्म हुआ तो बहुत नेहरू जी कि पश्चिम प्रेम ने लोकल को हमेशा हमेशा के लिए ताला लगा दिया. आज इस विश्व महामारी ने दुनिया को अपने अस्तित्व का बोध करा रहा है. भारत के लिए भी यह एक सीख है. १९९९ में इम्माउनेल वलस्तीन ने एक पुस्तक कि रचना कि थी जिसका शीर्षक ही था, “दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी दिखती है”. वलस्तीन अंतराष्ट्रीय राजनीति के विद्वान है. उनकी शीर्षक के पीछे आणविक हथियारों का भय था, ठीक एक साल पहले भारत और पाकिस्तान ने आणविक परीक्छण को अंजाम दिया था. लेकिन उनकी बात सौ प्रतिशत सही निकली, कारण कुछ और बना. सभी इस बात को मानते है कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं होगी, न ही आर्थिक ब्यस्था और न ही सामाजिक सम्बन्ध. और इन दोनों के साथ पूरी दुनिया कि राजनीति और कूटनीति भी बदल जाएगी. प्रधानमंत्री की सोच में कोई बुराई नहीं है. लेकिन प्रश्न उठता है कि बड़े औधौगिक घराने ऐसा होने देंगे. राजनीति और ब्यापारिक घरानो में एक दूसरे के बीच कि लें देन क्या इसे सफल होने देंगी. महज एक उदाहरण काफी है. भारत में रेड़ी फेरीवालों कि संख्या लाखो में है. जिसकी चर्चा प्रधानमंत्री अपने भाषण में तीन बार की. क्या उनको इस योजना का लाभ मिल सकता है? क्या मैक्डोनाल्ड और बड़े बड़े फ़ूड ब्रांड पर अंकुश लगाया जा सकता है? फ़ूड कोर्ट बड़े ब्यापारियों और राजनेताओ के है.राष्ट्रीय कामगारों की एक संस्था भी है जिसका नाम नाशवी है. इसके निदेशक अरबिंद सिंह का मानना है कि प्रधानमंत्री की सोंच देश के अनौपचारिक कामगारों के लिए जीवन घुट्टी बन सकती है बसर्ते इसका अनुपालन सही ढंग से किया जाये. इसी तरह की ब्यस्था अन्य सेक्टरों में बनानी होगी.

पहला, दुनिया में दो विचारधाराओ ने पूरे विश्व की राजनीति और आर्थिक ब्यस्था को अपने सांचे में ले लिया. एक पूंजीवादी और दूसरा समाजवादी. किसी तीसरे मॉडल को पनपने की गुन्जाईस ही नहीं छोड़ी . एक में राज्य को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान कर दी और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया. समाज की रचना और उसकी सार्थकता दोनों ही ब्यस्था में गौण होती चली गयी. एक में राज्य को सबकुछ करने की निष्कंटक छूट तो दूसरे में ब्यक्ति को अपने हद तक  करने की आजादी मिल गयी. सामाजिक ढांचा बन ही नहीं पाया. आजादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक सोंच भी इन्ही दो धाराओ में सिमट गयी. प्रथम प्रधामंत्री जवाहरलाल नेहरू रूस के केंद्रीकृत ब्यस्था से बहुत प्रभावित थे, जितनी उनकी चली, उतना उन्होंने भारत को सोवियत मुखी बनाने की कोशिश की. चुकि राजनीतिक आधार लोकतान्त्रिक था, इसलिए बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोंच से जुड़ गया. जब ब्रिटैन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के द्वारा एक आधुनिक लिबरल वर्ल्ड आर्डर की वैश्विक इकाई बनायीं गयी तो दुनिया के अन्य देशो के साथ भारत भी उसमे शामिल हो गया. गाँधी के विचारो का हनन तो आजादी के बाद ही शुरू हो गयी थी. जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर राम राज्य की बात गाँधी ने की थी, उसकी बड़ी ही निर्ममता के साथ हत्या कर दी गयी. गावं की रोजगार ब्यस्था टूट कर शहरों की दौड़ लगाने लगी, लाखो की संख्या में लोग मजदुर बनकर महानगरों में जा कर चिपक गए. पर्यावरण की न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया. गाँधी ने आजादी के पहले ही एक बीबीसी पत्रकार के पूछे जाने पर कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजो के द्वारा बनायीं  गयी आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा, क्योकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ऐसे ग्रह कि जरुरत पड़ेगी. लेकिन गाँधी कि बातें केवल उपदेश बनकर रह गयी. आज जब इस माहमारी ने भौतिक वादी सोंच पर आघात किया है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देसज ब्यस्था का अनुसरण करना होगा. भारत की राजनीतिक ब्यस्था में राज्य और ब्यक्ति के बीच समाज होता है, जो दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है. राज्य के प्रति आदर और सम्मान पैदा करता है और राज्य को ब्यक्ति के विकास के लिए अनुशासित करता है. इस ढांचे में द्वन्द नहीं बल्कि एक लगाव और भाई चारा विकसित की जाती है.

अब प्रश्न उठता है कि कोरोना के बाद दुनिया को बचाने का रास्ता क्या होगा? क्या जिस रफ़्तार से पूंजीवादी ब्यस्था चल रही है, उसी पर चलना ठीक होगा? चीन ओ.बी आर. के नाम पर दुनिया के गरीब देशों के संसाधनों को लूट रहा है, विश्व में युद्ध जैसी स्तिथि पैदा कर रहा है. अमेरिका जैसे तमाम पश्चिमी देश पैरिश कांफ्रेंस के अनुमोदन का अनुपालन करने में कोताही कर रहे है. हथियारों का संवर्धन किया जा रहा है, कई देश आतंक वाद का सहारा ले रहे है. महासंकट में भी पश्चिमी दुनिया विखंडित दिखयी दी. न ही यूरोपीय यूनियन और न ही जी-८ सम्मलेन में एक सामूहिक हित कि चर्चा कि गयी. यहाँ तक कि रूस जो गेहूं का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, उसने किसी भी देश को निर्यात करने से मना कर दिया. फ्रांस के राष्ट्रपति जो भूमंडलीकरण के सबसे बड़े हितैषी थे, उन्होंने फ़ूड को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि पश्चिम कि सोंच और ढांचा केवल लूट और खसोट पर टिकी हुई थी, जबकि भारत कि वसुधैव कुटुंबकम किसी स्वार्थ और लिप्सा पर नहीं बनी है, इसमें सभी का हित हो, उसी कि चर्चा है. गाँधी का ग्राम स्वराज भी यही था कि किसी भी चीज के लिए शहरों के मुहताज नहीं होगा. शिक्छा स्वास्थ्य और रोजगार तीनो ही बातें गावं के इर्द गिर्द स्थापित होगी, इसलिए पलायन कि नौबत ही नहीं आएगी. लेकिन गांधी की बातें किताबो के पन्नो तक सिमट कर रह गयी. अगर प्रधानमंत्री का यह पैकेज भारत की तश्वीर को बदलने के लिया होगा या महज एक राजनीतिक जुमला बन कर रह जाता है, इसका फैसला तो समय ही करेगा.

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