राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने कहा कि कोरोना वायरस जैसी महामारी के समय आरएसएस के स्वयंसेवक सभी वर्ग की मदद कर रहे हैं। मुस्लिम भी इस देश का हिस्सा हैं. उन्होंने कहा कि कोविड-19 के बाद विश्व की अर्थव्यवस्था मैं भारत आत्मनिर्भर बनकर उभरेगा। भारत स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देगा । अपने ऊपर निर्भरता बढ़ाएगी । भौतिकवादी सोच के कारण जो आज अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है उस सोच को बदलने की जरूरत है। विदेशी मीडिया से बात चीत के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने संघ की विश्व दृष्टि कि ब्याख्या की. चुकि पूरी दुनिया इस महामारी से जूझ रहा है इसलिए इसकी चर्चा बेहद समकालीन है.

जब दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका इसमें पूरी तरह से झुलसा हुआ है और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा वैदिक मंत्रो का उच्चारण किया जा रहा है, जिससे इस मुसीबत से मुक्ति मिले. भारत के स्तिथि भी गंभीर बानी हुई है. अपनी बात में उन्होंने संघ की वैश्विक सोंच को भी रखने की कोशिश की. जिसमे तीन बातों की चर्चा जरुरी है. पहला, समाजवाद और पूंजीवाद ने दुनिया की राजनीतिक और आर्थिक ढांचे को बेतरतीब बना दिया. दूसरा, इस माहमारी की बखूबी जाँच होनी चाहिए, जिससे दुनिया को सच का पता चल सके और तीसरा, दुनिया इसके बाद पूरी तरह से बदल चुकि होगी, इसलिए भारत की अपनी आर्थिक और सामाजिक संस्कारो को पुनः स्थापित करना होगा, जिसे हम स्वदेशी मॉडल कहते है, जो भारत में ऋषि मुनियो के द्वारा स्थापित थी. उसका आधुनिक काल में स्वरुप कैसा होगा, उस पर विस्तृत शोध और विमर्श किया जा सकता है.

कोरोना महामारी ने राष्ट्रीय स्वयं  सेवक संघ की विश्व दृष्टि

पहला, दुनिया में दो विचारधाराओ ने पूरे विश्व की राजनीति और आर्थिक ब्यस्था को अपने सांचे में ले लिया. एक पूंजीवादी और दूसरा समाजवादी. किसी तीसरे मॉडल को पनपने की गुन्जाईस ही नहीं छोड़ी . एक में राज्य को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान कर दी और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया. समाज की रचना और उसकी सार्थकता दोनों ही ब्यस्था में गौण होती चली गयी. एक में राज्य को सबकुछ करने की निष्कंटक छूट तो दूसरे में ब्यक्ति को अपने हद तक  करने की आजादी मिल गयी. सामाजिक ढांचा बन ही नहीं पाया. आजादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक सोंच भी इन्ही दो धाराओ में सिमट गयी. प्रथम प्रधामंत्री जवाहरलाल नेहरू रूस के केंद्रीकृत ब्यस्था से बहुत प्रभावित थे, जितनी उनकी चली, उतना उन्होंने भारत को सोवियत मुखी बनाने की कोशिश की. चुकि राजनीतिक आधार लोकतान्त्रिक था, इसलिए बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोंच से जुड़ गया. जब ब्रिटैन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के द्वारा एक आधुनिक लिबरल वर्ल्ड आर्डर की वैश्विक इकाई बनायीं गयी तो दुनिया के अन्य देशो के साथ भारत भी उसमे शामिल हो गया. गाँधी के विचारो का हनन तो आजादी के बाद ही शुरू हो गयी थी. जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर राम राज्य की बात गाँधी ने की थी, उसकी बड़ी ही निर्ममता के साथ हत्या कर दी गयी. गावं की रोजगार ब्यस्था टूट कर शहरों की दौड़ लगाने लगी, लाखो की संख्या में लोग मजदुर बनकर महानगरों में जा कर चिपक गए. पर्यावरण की न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया. गाँधी ने आजादी के पहले ही एक बीबीसी पत्रकार के पूछे जाने पर कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजो के द्वारा बनायीं  गयी आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा, क्योकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ऐसे ग्रह कि जरुरत पड़ेगी. लेकिन गाँधी कि बातें केवल उपदेश बनकर रह गयी. आज जब इस माहमारी ने भौतिक वादी सोंच पर आघात किया है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देसज ब्यस्था का अनुसरण करना होगा. भारत की राजनीतिक ब्यस्था में राज्य और ब्यक्ति के बीच समाज होता है, जो दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है. राज्य के प्रति आदर और सम्मान पैदा करता है और राज्य को ब्यक्ति के विकास के लिए अनुशासित करता है. इस ढांचे में द्वन्द नहीं बल्कि एक लगाव और भाई चारा विकसित की जाती है.

दूसरा, कोरोना वायरस एक माहमारी है लेकिन इसमें कई षड्यंत्र भी छिपे हुए है. चीन और अमेरिका की आपसी मुठभेड़ में दुनिया पिसती जा रही है, इसलिए इसकी निस्पक्छ जाँच होनी चाहिए. एक दसक पहले एक हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और अंतराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ ने कहां था कि, ‘जिस दिन चीन अमेरिका कि तरह दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बन जाएगा तो दुनिया के लिए कई नयी मुसीबते पैदा हो जाएंगी

उनकी बात किस हदतक सही साबित हुई. जबकि चीन को यह स्थान अभी मिला नहीं है, तब यह हालात है. अमेरिकी राष्ट्रपति को जब यह कहना पड़े कि विश्व स्वास्थ्य केंद्र या विश्व ब्यापार संगठन, दोनों में सबसे बड़ा नालायक कौन हो तो अमेरिकी दर्द को महसूस किया जा सकता है. दुनिया के संस्थाओ को अपनी मुट्ठी में रखने वाला देश खुद को असहाय महसूस कर रहा है, क्योंकि विश्व राजनीति में केवल छल और बल के बुते पर चला, लेकिन कोरोना ने ऐसी ब्यस्था को बदलने कि घंटी बजा दी है. अब प्रश्न उठता है कि कोरोना के बाद दुनिया को बचाने का रास्ता क्या होगा? क्या जिस रफ़्तार से पूंजीवादी ब्यस्था चल रही है, उसी पर चलना ठीक होगा? चीन ओ.बी आर. के नाम पर दुनिया के गरीब देशों के संसाधनों को लूट रहा है, विश्व में युद्ध जैसी स्तिथि पैदा कर रहा है. अमेरिका जैसे तमाम पश्चिमी देश पैरिश कांफ्रेंस के अनुमोदन का अनुपालन करने में कोताही कर रहे है. हथियारों का संवर्धन किया जा रहा है, कई देश आतंक वाद का सहारा ले रहे है. महासंकट में भी पश्चिमी दुनिया विखंडित दिखयी दी. न ही यूरोपीय यूनियन और न ही जी-८ सम्मलेन में एक सामूहिक हित कि चर्चा कि गयी. यहाँ तक कि रूस जो गेहूं का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, उसने किसी भी देश को निर्यात करने से मना कर दिया. फ्रांस के राष्ट्रपति जो भूमंडलीकरण के सबसे बड़े हितैषी थे, उन्होंने फ़ूड को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि पश्चिम कि सोंच और ढांचा केवल लूट और खसोट पर टिकी हुई थी, जबकि भारत कि वसुधैव कुटुंबकम किसी स्वार्थ और लिप्सा पर नहीं बनी है, इसमें सभी का हित हो, उसी कि चर्चा है. इसलिए सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के आह्वान भारत मुखी विश्व ब्यस्था ही दुनिया को बचा सकती है.

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