अगर मैं आपको कहूं कि कनाडा जो कि भारत में किसान आंदोलन में और इसके पहले भी भारत विरोधी ताकतों के साथ खड़ा दिखता है – उसके अपने घर में भी एक कश्मीर है तो क्या आप विश्वास करेंगे? लेकिन यह सच है।

कनाडा में एक फ्रेंच भाषी समुदाय भी है जो खुद को इंग्लिश बोलने वाले लोगों से अलग समझता है। यह लोग ज्यादातर कनाडा के क्यूबेक क्षेत्र में रहते हैं जिसकी राजधानी मॉन्ट्रियाल है। इन लोगों में अंग्रेजी बोलने वाले बहुतायत कनाडा के लोगों के प्रति एक डर की भावना है। और इनको अपने फ्रेंच भाषा और संस्कृति को बचाने की परिणीति एक अलग देश के रूप में दिखती है। यह आंदोलन समय-समय पर जोर पकड़ता है। इस आंदोलन में एक रेफरेंडम की भी बात की जाती है जिसमें कनाडा से अलग देश बनाने‌के बारे में लोगों को सीधा वोट देने की व्यवस्था होनी है। कनाडा के केंद्र सरकार के इसमें हमेशा आनाकानी करती रहती है।

इस झगड़े की जड़ औपनिवेशिक काल में ही पड़ ‌गयी‌ थी। 1608 में फ्रांस ने कनाडा को अपना उपनिवेश बनाया। फ्रांस के शासन के समय कनाडा की भाषा फ्रेंच बनी और फ्रेंच संस्कृति सभ्यता का वहां पर विस्तार हुआ। लंबे युद्ध के बाद फ्रांस ने 1763 में ब्रिटेन को फ्रांस के अधिकांश हिस्सों का कब्जा एक शांति समझौते के अंतर्गत दे दिया। यह समझौता “ट्रीटी ऑफ पेरिस” के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत कनाडा का कुछ हिस्सा फ्रांस के ही नियंत्रण में रखा गया‌ जबकि बाकी हिस्सों को ब्रिटेन को दे दिया गया। यहीं से अंग्रेजी बोलने वालों और फ्रेंच बोलने वालों के संघर्ष की नींव पड़‌ गई। फ्रांसीसी मूल के लोग अपने आप को फ्रेंच कनाडियन कहते हैं और बड़ी शिद्दत से अपनी भाषा और संस्कृति को बचा कर रखते है।,

वैसे तो यह बहुत पुराना आंदोलन है लेकिन 1960 के बाद इस भावना में उबाल आया। 1968 में ‘ Parti québécois’ पार्टी के बनने के बाद इस आंदोलन ने खासा जोर पकड़ा। इसमें कनाडा सरकार की दमनकारी नीतियों का भी बड़ा हाथ था। ‌इस आंदोलन मे शामिल कुछ युवाओं ने कनाडा की केंद्र सरकार के बल प्रयोग और उत्पीड़न के खिलाफ हथियार भी उठाए। इस क्षेत्र कके लोग कनाडा की सरकार को औपनिवेशिक सरकार मानते हैं और अपनी सभ्यता संस्कृति को बचाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रबल इच्छा रखते हैं।

‘Front de libération du Québec’ (FLQ) नाम के गुट ने कई सारे लूट और बमबाजी की घटनाओं को अंजाम दिया। ऐसी कई सारी घटनाओं की परिणिती 1970 में अक्टूबर क्राइसिस के रूप में हुई। अक्टूबर 1970 में केंद्र की कनाडा सरकार ने इन लड़ाकों पर युद्ध की अघोषित कार्यवाही शुरु कर दी। यह FLQ द्वारा क्यूबैक के बड़े राजनीतिज्ञ, जो कि कनाडा की सरकार का कठपुतली था, उसको किडनैप किए जाने का प्रतिकार था। सेना और हथियार के दम पर क्यूबेक के लोगों के मानवाधिकार का दमन किया गया। लड़ाकों के अलावा सामान्य नागरिकों को भी बहुत यात्नाओं का सामना करना पड़ा। आज भी यहां के निवासियों के लिए अकतूबर क्राइसिस की यादें बहुत ही कड़वी हैं।

इस आंदोलन में आज के समय में एक प्रभावी नेतृत्व और दिशा की कमी महसूस होती है। पर फ्रेंच कनाडियन में यह भावना जस की तस है और किसी भी मजबूत केंद्र सरकार के आने पर और मुखर होकर सामने आती है। इस मामले की वजह से कनाडा और फ्रांस के बीच के रिश्ते भी कई बार बनते बिगड़ते रहे हैं। क्यूबेक के आंदोलन के बारे में बहुत सारा लिखा गया है। इनमें से कुछ प्रमुख पुस्तकें: Richard Rohmer’s की Separation (1976), Clive Cussler’s की Night Probe! (1984), David Foster Wallace’s की Infinite Jest, Harry Turtledove की Southern Victory Series of alternate history आदि हैं।

आज का अनुभवहीन कनेडियन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अगर भारत में खालिस्तान को छदम तरीके से समर्थन दे रहा है तो उसे यह कहना अनुचित नहीं होगा की – “जिनके अपने घर शीशे के हो वह दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।”

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