देश की आजादी के सात दशक गुजर चुके हैं। सबसे बड़ा और लिखित संविधान भारत का ही विश्‍व में है। संविधान में भारतीय लोगों को कुछ स्वतंत्रता दी गई, तो कुछ उत्तरदायित्व की जिम्मेदारी भी दी गई। देश का संविधान 26 नवंबर, 1949 को तैयार हुआ। देश को सुचारू रूप से चलने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत थी कि उस समय देश में व्याप्त समस्याओं के निदान और नागरिकों को न्याय और समाज में अपनी दिनचर्या गुजारने के लिए कुछ अधिकार दिए जाएं। जिसके लिए संविधान की व्यवस्था की गई। 
संविधान की पराकाष्ठा बहुत मजबूत थी जब इसे देश की व्यवस्था में लागु किया गया पर जैसे जैसे राजनितिक दल आते गए देश में राजनितिक समीकरण बदलते गए वैसे वैसे संवैधानिक सुविधाओं को भी सरकारों ने वोटबैंक के आधार पर बदल दिए और इसका परिणाम आज की जनता भुगत रही है कि आज भी दलित, शोषित, पीड़ित के नाम पर राजनीती करने वाले ये राजनितिक दलों ने वंचित पीढ़ी को विकास से पूरी तरह से विमुख करके छोड़ दिया है आजादी के समय वंचित समुदाय में से 95% वाकई में जरूरतमंद था जिसे संविधान में हक़ और अधिकार के लिए जगह दी गयी पर 5% लोग उस समय भी सक्षम थे जिन्हे भी जाति के आधार पर दलितों और वंचितों में शामिल कर दिया गया जिसका दुष्परिणाम ये हुआ कि आज भी 5% दलित और ज्यादा सक्षम और काबिल हो गए और 95% और ज्यादा गरीब और सामान्य जीवन से पिछड़ गए और दुःख तो तब होता है जब यही 5% लोग अब जाति के नाम पर सुविधाएं लेना बंद करने की बजाय जाति प्रमाण पत्र दिखाकर अपने ही समुदाय के लोगो के साथ भेदभाव कर रहे है और देश और संविधान के साथ धोखा कर रहे है.
जहाँ संविधान को लागु करते समय उस समय की कमिटी ने साफ साफ कहा था कि किसी भी प्रकार कि जाति आधारित सुविधा केवल 10 वर्ष के लिए दी जाएगी उसके बाद किसी प्रकार की सुविधा ना दी जाये क्यूंकि फिर ऐसी सुविधाओं का दुरूपयोग होने की संभावनाएं बढ़ जाती है पर इन राजनितिक दलों ने अपनी वोटबैंक बचाने के लिए इसी व्यवस्था का सहारा लेकर सत्ता हासिल की जिसकी बदौलत आज स्थितियां काफी भयावह है क्यूंकि इन्ही समुदाय के सामाजिक कार्यकर्ता राजनितिक दलों की सह में कभी कभी देश को भी भारी नुकसान करने में पीछे नहीं हटते, जिसका सबसे बड़ा असर 2 अप्रैल 2018 को आरक्षित समुदाय ने SC/ST कानून की आड़ में पुरे भारत को बंद करने के नाम पर देश के काफी संसाधनों को नुकसान पहुँचाया और जिसका दूर दूर तक काफी गलत सन्देश गया और कई नकारात्मक ताकतें उभरकर सामने आई जिन्होंने अपने राजनितिक पंख देश की वर्तमान व्यवस्था में फैलाने के प्रयास भी किये.
आज सभी राजनितिक दल केवल अपनी वोटबैंक की चिंता करते नजर आते है जिन्हे केवल अपने वोट प्रतिशत की चिंता है जबकि देश के विकास में सहभागी होने वाले तमाम घटक उनके लिए महज अब चुनावी मसौदा बनकर रह गए है विकास का मुद्दा धूमिल करके धार्मिक, जातीय या भावनाओ से जुड़े मुद्दों पर अपनी मुखरता दिखाकर ये राजनितिक दल अपनी नाकामी को छुपाने का प्रयास करते है गरीबों, पिछड़ों और वंचितों के नाम पर शोरगुल तो सड़क से लेकर संसद तक सुनाई देता है पर उनके हक़ और अधिकारों को खाने में यही राजनितिक दल सबसे आगे रहते है अपनी जरूरतों को पूरा करने में ये किसी का भक्षण करने से नहीं चूकते है फलस्वरूप आज की स्थति आपके सामने है देश आज भी चुनौतियों के दौर से गुजर रहा है
देश में वर्तमान समय की बात की जाए, तो लोग अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हो गए, लेकिन संविधान ने देशवासियों को जो दायित्व दिए थे, उनके निर्वहन से उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। आज देश में कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और जातिवाद की समस्या जोरों से तूल पकड़ती जा रही है, लेकिन इससे समाज और देश को निजात दिलाने के लिए न तो देश की राजनीतिक पार्टियां अपने आपको आगे लाकर समाज में व्याप्त समस्या के समाधान पर गौर करती हुई दिख रही हैं, न ही वह समाज जो आजादी के पहले देश और समाज के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने को उतावला दिखाई पड़ता था, देश की आजादी के बाद से देश में रहने वाले नेताओं के सुर ही नहीं बदले, समाज के रहवासियों का जीने का तरीका और उनका सलीका भी बदल चुका है। देश और समाज का सत्‍यानाश करके उन्हें केवल स्वहितों की पड़ी रहती है।
देश के संविधान निर्माण के समय संविधान में देश और समाज के प्रति समर्पण के लिए लोगों को जो उत्तरदायित्व दिए गए थे, उनका आज हनन होने के अलावा कुछ भी नहीं हो सका है। समय और परिस्थिति में बदलाव के साथ मानव जीवन के व्यवहार और उसके कार्य करने के तरीके में परिवर्तन होने चाहिए, लेकिन वह भी एक दायरे में रहकर, लेकिन वर्तमान विकास की अंधी दौड़ में अपने हितों के पीछे समाज और राजनीतिक दलों की नियत पागलों की तरह होती जा रही है। उन्हें अपने हितों को साधने के अलावा कुछ भी नहीं सुझ रहा है। 
देश में समाज का एक तबका आज भी ऐसा है, जो गरीबी और सामाजिक परिदृश्‍य में व्याप्त असमानता के बीच अपने जीवन जीने को विवश है। देश में वर्तमान समय में पूंजीवादी व्यवस्था और विकासवाद की बात की जाती है। देश में विकास की अंधीलीला जिस तरह से अपना कारवां बांधकर आगे बढ़ने को बेताब दिख रही है, उसमें संविधान में वर्णित समाज, देश और पर्यावरण व्यवस्था को चलाने के कुछ मुख्य संदर्भ काफी पीछे छूटते जा रहे हैं, जो आने वाली पीढ़ी के लिए खतरे की घंटी मानी जा सकती है, लेकिन वर्तमान दौड़ में अपने को बनाए रखने के लिए देश और समाज का प्रतिष्ठावान तबका गरीबों और दलितों को दबाने में ही अपना भला समझता है।
देश की राजधानी दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे भारत देश में पर्यावरण प्रदूषण की भयावह स्थिति काल के समान मुंह उठाए खड़ी नजर आ रही है, जिस पर दिल्ली के मासूम जागृति दिखाते हैं, लेकिन देश की बिगड़ैल राजनीतिक व्यवस्था और अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों को ताक पर रखने वाला समाज इस समस्या से उत्पन्न होने वाली विकट स्थिति से अवगत होने के बावजूद या तो ध्यान देना नहीं चाहती या उसे अपने हितों के आगे ये सारी स्थितियां बौनी लगने लगती हैं। देश में आजादी के सात दशक बाद भी लोगों को यह बताने की आवश्‍यकता महसूस की जाने लगे कि तुम्हारे और आने वाली पीढ़ी के लिए क्या उचित होगा, तो यह देश और संवैधानिक ढांचे के प्रतिकूल ही माना जा सकता है। 
आज देश में लोगों को स्वच्छता और जरूरी ज्ञान सरकारी तंत्र द्वारा दिया जा रहा है, तो यह संविधान की आत्मा और उसके उत्तरदायित्वों की हानि ही कही जानी चाहिए। आज देश में बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या व्याप्त है, लेकिन राजनीतिक दल अपने हितों को साधने के लिए संसद को केवल अपने हितों के साधने का अड्डा मानकर चल रहे हैं। हजारों करोड़ों रुपए खर्च करके जिस जनप्रतिनिधि को संसद में भेजा जाता है, वह उस संसद तक पहुंचते ही अपने सारे वादे और जिम्मेदारियों को भूलकर अपने हितों को लेकर राजनीति साधने में ही दिखाई पड़ता है। देश की आबादी में लगभग 20 लाख रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं, लेकिन उनके हितों को लेकर राजनीति करता हुआ कोई भी अपने बयानों के तीर भांजता नहीं दिखाई देता । 
कुपोषण, मलेरिया और अन्य भयावह बीमारियां देश की आजादी के समय भी देश के लोगों को काल के मुख में समेटने को उतारू दिख रही थीं, और आज भी विकराल रूप में मुंह फैलाए नजर आ रही है, लेकिन देश इन रोगों से छुटकारा दिलाने में असमर्थ दिख रहा है। भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका को भी मलेरिया जैसे रोगों से मुक्ति मिल गई, जिसे आर्थिक सहायता भारत ही करता है, फिर यह सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि आखिर यह समस्याएं किस स्तर पर व्याप्त हैं। दूसरी पंचवर्षीय योजना में खाद्य सुरक्षा पर बल दिया गया, उस समय थोड़ी राहत तो देश के गरीब और निचले तबके को मिली, लेकिन फिर उदारीकरण का दौर आते-आते देश में पूंजी बनाने की प्रक्रिया इतनी तेजी से अपने पांव पसारने लगी कि आज गरीब और निचले तबके का मजदूर किसान आत्महत्या करने को विवश नजर आता है, और दूसरी ओर देश में पिछले पंद्रह वर्ष में हुए धन बढ़ोतरी का 65 प्रतिशत हिस्सा केवल एक प्रतिशत लोगों के पास सिमटकर रह गया, फिर इसे किसकी नाकामी मानी जाए कि देश में इस तरीके की असमानता होने के बावजूद समय-समय पर संविधान की दुहाई देकर राजनीतिक दल अपने हितों और निजी स्वार्थ के लिए संविधान में बदलाव और किसी कड़े फैसले के आ जाने पर उसे हटाने की मांग करने की शुरुआत कर देते हैं । 
तो क्या आज के समय में जब देश की लगभग 25 करोड़ जनसंख्या भुखमरी, 26% आबादी अब भी शिक्षा से वंचित है और देश के लगभग 18% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, उस समय संविधान का उपयोग केवल राजनीतिक दल अपने हितों को साधने के लिए करते रहेंगे, और देश में व्याप्त असमानता और समस्याओं से इसी तरह देश की राजनीति भटकती रहेगी। किसानों की आत्महत्या, गरीबी, पर्यावरण और लोगों को अच्छे रोजगार के लिए भी देश की राजनीति कभी विचार करेगी, इन सब बातों के साथ आम जनता को भी संविधान से मिले अपने दायित्वों और अधिकारों के प्रति जागरूक होना पड़ेगा ।                                  वन्दे मातरम..
सम्पत सारस्वत ‘बामनवाली’

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