आज सम्पूर्ण विश्व एक अलग तरह की गंभीर समस्या का सामना कर रहा है । पूरे विश्व में आज हर जगह धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है और हर जगह लोग एक “धर्म विशेष” के लोगों द्वारा की गई हिंसा का शिकार हो रहे हैं। कुछ अरसे पहले लंदन में सड़कों पर समुदाय विशेष के लोगों द्वारा की गयी हिंसक तोड़फोड़ का दृश्य देख वहाँ के मूल निवासी हतप्रभ थे।फ़्रांस में आए दिन होने वाली गोलीबारी और इस्लामिक आतंकवाद का अभ्युदय सम्पूर्ण विश्व के लिए नींद से जागने का समय और खतरे की घंटी है। समूचे विश्व को “इस्लामिक इस्टेट” में तब्दील करने और ‘इस्लाम’ कबूल कराने की असंभव परिकल्पना को साकार करने के लिए कई संगठनों द्वारा कई स्तर पर कई तरह और कई रंग-रूप में किया जा रहा “जिहाद” आज सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है।और अगर विश्व न चेता तो यही एक दिन विश्व युद्ध और मानव जाति के विनाश का कारण बन सकता है।न सिर्फ इंग्लैंड और फ़्रांस बल्कि विश्व के कई देशों में आज इस्लामिक आतंकवाद और मुस्लिमों द्वारा अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता और कट्टरता बढ़ी है। जिसके कारण कई देशों में सामाजिक समरसता में कमी आई है और लोगों के बीच वैमनस्यता बढ़ी है।

                        हमारा देश भी उससे अछूता नहीं है। बल्कि आज हमारा देश उनकी धार्मिक कट्टरता का सबसे बड़ा और सबसे आसान शिकार बन गया है।एक ऐसा देश जिसका बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ ,जिसे इस्लाम के नाम पर दो–दो देश दे दिये गए- पाकिस्तान और बांग्लादेश।फिर भी उदारता दिखाते हुए  धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यहाँ मुस्लिमों को रहने का विकल्प दे दिया गया। न सिर्फ रहने दिया गया बल्कि संवैधानिक अधिकार भी और अल्पसंख्यक का दर्जा भी।और कहीं-कहीं तो विशेषाधिकार भी!इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड।एक ऐसा देश जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक रहा है वहाँ बँटवारे के बाद इस देश में जहाँ हिंदुओं को विशेषाधिकार मिलना चाहिए था वहाँ विशेषाधिकार तो दूर उसे अपने मौलिक अधिकारों के लिए भी कोर्ट की शरण में जाना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि उसे अपने आराध्य भगवान श्रीराम के जन्मभूमि पर एक ‘मंदिर’ के लिए भी सदियों तक संघर्ष करना पड़ा है।क्या किसी इस्लामिक देश में मस्जिद बनाने के लिए ऐसे संघर्ष की आप कल्पना भी कर सकते हैं?हिंदुओं को अपने मामूली अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है। मुस्लिमों की भावनाएं आहत न हो इसके लिए हिंदुओं को कई बार अपना मन मसोस कर रह जाना पड़ता है।तभी तो 491 वर्षों के बाद राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जश्न भी हिंदुओं ने नहीं मनाया, ताकि उनकी भावनाओं को ठेस न लगे। पर यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बाबरी मस्जिद के पक्ष में गया होता तो क्या वे हिंदुओं की भावनाओं का ख्याल रखते हुए जश्न न मनाने का फैसला कर पाते…..?इसका जवाब शायद हम सभी जानते हैं।रही-सही कसर उनको “एकमुश्त वोट बैंक” के रूप में देखे जाने के बाद “तुष्टीकरण की राजनीति” ने पूरी कर दी है। इस कारण हिंदुओं के सबसे बड़े देश में हिंदुओं को ही दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाने लगा है। 

                                              इन चीजों के मूल में यदि हम जाएँ तो इसका सबसे बड़ा कारण भारत का “सेकुलरिस्म” ही नज़र आता है  जिसे 1976 में आपातकाल के दौरान धोखे से भारत के संविधान में जोड़ दिया गया। जिसे कई जानकार संविधान की मूल आत्मा के साथ छेड़छाड़ बताते हैं।तो सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि सेकुलरिस्म की परिभाषा क्या है? मेरे हिसाब से एक ऐसा देश जहाँ हर व्यक्ति को निर्बाध रूप से अपने धार्मिक कर्तव्य करने की आजादी हो,जहाँ उसकी आस्था पर किसी अन्य धर्मों या समुदायों का दबाव न हो।और ना ही उसके धार्मिक कर्तव्यों से किसी की आस्था अथवा  स्वतंत्रता का हनन हो, तभी उस देश को सही मायनों में सेकुलर कहा जा सकता है।मगर आज सेकुलरिस्म की परिभाषा ही इस देश में यह हो गयी है कि “मुस्लिमों को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए,उनके साथ न्याय होना चाहिए ; भले ही उसके लिए यहाँ की हर दूसरी कौम के साथ अन्याय हो जाए। इसकी कोई परवाह नहीं।“ दरअसल इस मानसिकता की नींव देश की आजादी और इसके बँटवारे के समय 1947 में ही रख दी गयी थी।जब धर्म के आधार पर बँटवारे के बावजूद इस देश में मुसलमानों को रहने की इजाजत दी गयी। उनको यह कह कर रखा गया कि वे भी हमारे भाई हैं। यह देश धर्मनिरपेक्ष है। हमारे तत्कालीन भाग्य विधाता गांधी और नेहरू ने मुस्लिमों को हिंदुओं के ऊपर तरजीह दी। उनको ऐसा महसूस कराया कि वे खास हैं और भारत में रहकर उन्होने कोई उपकार किया है।जबकि वास्तविकता यह है कि वे भारत में रूके जरूर मगर उनका दिल आज भी पाकिस्तान के लिए ही धड़कता है।और इसका इज़हार वे न चाहते हुए भी कई मौकों पर बरबस ही कर जाते हैं।विशेष कर पाकिस्तान के साथ बार्डर पर तनातनी और भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैचों के दौरान।और आज स्थिति यह हो गई है इस देश में कि बँटवारे के 70 वर्ष बाद हिन्दू ही स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगा है।जिन परिस्थितियों के कारण उस समय देश का धर्म के आधार पर बँटवारा हुआ था ,उसी प्रकार की स्थितियाँ आज उत्पन्न हो गई हैं या फिर येन-केन-प्रकारेण वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की कोशिश की जा रही है।दुनिया को दिखाने के लिए नित नए प्रपंच रचे जा रहे हैं जिनसे ये साबित किया जा सके कि भारत में मुसलमानों के साथ गलत हो रहा है।जबकि वास्तविकता कुछ और है। आजादी के समय जिन मुस्लिमों की संख्या कुल आबादी का 9.8% थी वह 2011 की जनगणना में 14.2% हो गई है और अब 2021 की जनगणना में 18% तक हो सकती है। जबकि इसी बीच हिन्दू जो 1951 की जनगणना में 84.1% थे वे 2011 में 79.8% पर पहुँच गए और 2021 में 78% तक हो सकते हैं।उनका इस तरह से फलना-फूलना ये बताता है कि उन्हें इस देश में कोई कष्ट नहीं है। मगर उनकी लगातार बढ़ती जनसंख्या यहाँ पर अन्य धर्मों के लोगों के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं।वजह है- उनकी अथाह धार्मिक कट्टरता।अपने धर्म के प्रति निष्ठावान होना अच्छी बात है मगर अन्य धर्मों के प्रति नफ़रत का भाव ये अच्छी बात नहीं! और कटुता भी इतनी कि वे अन्य धर्मों के लोगों को अपने आस-पास देखना भी पसंद नहीं करते:और वो भी उस देश में जिस देश ने उन्हें बँटवारे के बाद भी यहाँ रहने दिया था और अपना समझा था।उनके दिमाग में ये बात उनके धर्मगुरुओं और कट्टरपंथियों द्वारा डाल दी जाती है कि जिसने इस्लाम कबूल नहीं किया है वो “काफ़िर” है और उसे इस दुनिया में जीने का कोई हक़ नहीं।पूरी दुनिया को इस्लाम कबूल कराने की मुहिम को वे “जिहाद” कहते हैं।आज की सारी ‘इस्लामिक कट्टरता’ और ‘आतंकवाद’ उसी “कट्टर जिहादी सोच” का परिणाम है।पहले उनकी जनसंख्या कम थी तो उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा और उनकी सारी सुविधाएं दी गई।मगर आज जब उनकी जनसंख्या 25 करोड़ के लगभग हो गई है तो वे अब यदा-कदा सरकार की नीतियों के विरोध के नाम पर देश की संप्रभुता को चुनौती देने लगे हैं।25 करोड़ की जनसंख्या किस दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक हो सकती है?इसकी समीक्षा की भी और नए सिरे से परिभाषित करने की भी आवश्यकता है।आज वे अपनी संख्या के बल पर दूसरों को डराने लगे हैं। उनकी एक विशेषता है कि वे जहाँ भी बसते हैं ,समूहों में बसते हैं। अन्य धर्मों के लोगों की तरह अपनी आवश्यकतानुसार स्वच्छंदतापूर्वक नहीं।उसी समूह के बल पर वे अपने आसपास बसे अन्य समुदाय के लोगों को डराते हैं, प्रताड़ित करते हैं।तब उनको या तो इस्लाम में परिवर्तित करवा दिया जाता है या फिर अंत में उनके पास वो जगह छोड़ कर भागने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता।कश्मीर और कैराना या अभी मेवात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

                                ये सब बातें करने की आज इसलिए ज़रूरत हुई है क्योंकि आज हम एक ऐसे हिंदुस्तान में जी रहे हैं जहाँ सारे लोग सिर्फ दिखावे के लिए सेकुलरिस्म, सहिष्णुता, दलित और अल्पसंख्यक हित की बात कर रहे हैं: जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है।‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ ही यहाँ “सेकुलरिस्म” का पर्याय बन कर रह गया है।हर राज्य की सरकारों द्वारा और केंद्र सरकार द्वारा अलग-अलग तरीकों से उन्हें खुश करने के उपाय किए जा रहे हैं और अतीत में भी किए जाते रहे हैं। मगर फिर भी वे कभी भी यहाँ की सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों से संतुष्ट न हो सके।और तो और उल्टे उन्होने सरकार द्वारा स्वयं को प्रताड़ित करने का लांछन लगाया है।

                इसके अलावा यहाँ रह रहे अन्य धर्मों के लोगों जिन्हें वास्तविक रूप में अल्पसंख्यक कहा जा सकता है : उन्हें ज़्यादा कष्ट नहीं है। बौद्ध , जैन, पारसी और ईसाई, इन सभी धर्मों के लोग भी तो इसी देश में रह रहे हैं। ईसाई मिशनरियाँ सरकार की ढील का फायदा उठाकर आदिवासियों और अन्य गरीब जनजातियों के लोगों का जबरन या फिर प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करने में लगी हैं।मुस्लिम सभी हिन्दू लड़कियों को लव जिहाद के सहारे मुस्लिम बना देना चाहता है।क्या यही वो सेकुलरिस्म है जिसकी कल्पना गाँधी और नेहरू ने की थी? क्या धर्म के आधार पर भेदभाव करके किसी देश को सेकुलर बनाया जा सकता है? या फिर धर्म के आधार पर आरक्षण देकर ही कोई देश सेकुलर रह सकता है?

                     अगर ऐसा नहीं है तो फिर भारत में सभी मंदिरों की सम्पत्तियों का नियंत्रण सरकार के पास और मस्जिदों तथा चर्चों की संपत्तियों का नियंत्रण उनके धार्मिक बोर्ड के पास क्यों है? और समय-समय पर उन्हें सरकार की ओर से अनुदान भी मिलता रहता है। क्या धर्म के आधार पर भेदभाव करने से ही देश में सेकुलरिज्म बना रहेगा? 

           मंदिर, शिवलिंग और शिवालय तोड़ भी दिए जाएँ तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता मगर किसी चर्च की खिड़की का शीशा यदि गलती से भी टूट जाये तो ये उनकी धार्मिक आजादी पर हमला हो जाता है। मंदिर का पुजारी भूख से मर जाये कोई बात नहीं मगर मस्जिद के मौलवियों को हर महीने पच्चीस हज़ार रूपये सरकार पगार दे; ये कैसा सेकुलरिज्म है इस देश में?जहाँ धर्म विशेष के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बना दिया जाये और जब वह देश के संविधान से इतर अपने धर्म के हिसाब से शरीयत कोर्ट की बात करने लगे,  क्या इससे सेकुलरिज्म ज़िंदा रहेगा? जहाँ इस्लाम के नाम पर दो-दो देश देने के बावजूद वहां के मुस्लिमों को भारत में बसाने के लिए सीएए का विरोध करने से और स्वास्तिक को खंडित कर उसका पोस्टर लगा देने से सेक्युलरिज्म जिंदा रहेगा? या फिर अपने गाल पर फ़क हिंदुत्व लिखवा कर नारे लगाने से ही धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हो पाएगी? यह कैसा सेकुलरिज्म है जो हिंदुत्व की बलि ले लेना चाहता है? जो हिंदुओं को देखना तक नहीं चाहता! उन्हें हिंदुओं से इतनी नफरत क्यों है? 

              जब तुष्टीकरण ही धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बन जाए, तब ऐसे ही दिन देखने पड़ते हैं जैसे आजकल दिखाई दे रहे हैं।जब सरकार ही अपनी जनता में धर्म के आधार पर भेदभाव करेगी तो वह जनता से कैसे सेकुलर बने रहने की उम्मीद कर सकती है?और जब सरकार ही सेकुलरिज्म की गलत परिभाषा और गलत उदाहरण पेश करे तो कैसे यह देश सेक्युलर रह सकेगा?जब एक धर्म को अलंकृत और दूसरे को कुंठित किया जाएगा तो सामाजिक सद्भाव की कल्पना करना बेमानी है।और क्यों सेकुलरिज्म की कीमत हमेशा हिन्दुओं को ही चुकानी पड़ती है? इस देश में सामाजिक सद्भाव बना रहे यह सभी धर्मों की सामूहिक ज़िम्मेदारी है ना कि किसी एक धर्म की। और सबसे पहले यह ज़िम्मेदारी सरकार की है कि वह अपनी नीतियों में धर्म के आधार पर भेदभाव ना करे। जब सभी धर्मों के लोग दूसरों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करने लगें तब ही उन्हें सेक्युलर कहा जा सकता है।और भारत हमेशा से हिन्दुओं की भूमि रही है तो हिन्दुओं को दुःखी करके या उन्हें प्रताड़ित करके भी कोई कब तक सेक्युलर बने रहने का दिखावा कर सकता है?वैसे ढोंगी लोगों की अब पूरी तरह से पोल खुल चुकी है।तभी तो आज हिन्दू स्वयं ही अपनी रक्षा के लिए उठ खड़ा हुआ है।देश के सेकुलरिज्म को बनाये रखने के लिए हिन्दुओं का मजबूत और संगठित होना अति आवश्यक है ।ताकि हर उन्मादी तत्त्वों का मुँहतोड़ जवाब दिया जा सके ।संगठित और मजबूत हिन्दू ही देश के अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा कर सकता है ।

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