महाभारत के कर्णपर्व में त्रिपुरासुर की वध की कथा बड़े विस्तार से आयी है। त्रिपुरासुर को नष्ट करने के कारण महादेव को त्रिपुरांतक कहा जाता है।
जिस समय तारकासुर का वध भगवान् षड़ानन ने किया, उसी समय उसके बेटों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए घोर जंगल में प्रवेश कर गए, और हजारों साल तक अत्यन्त दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया।

जैसा कि असुरों का स्वभाव है, वे हमेशा मृत्यु पर विजय चाहते थे । इसलिये आदतन उन्होंने भी ब्रह्माजी से अमरता का वरदान माँगा। पितामह ने उन्हें मना कर दिया, और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो जो अत्यन्त कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर हीं तुम्हारी मृत्यु हो। तीनों ने खूब विचार कर, ब्रह्माजी से वरदान माँगा–हे स्वयंभू! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर देवें और वे तीनों पुरियाँ जब अभिजित् नक्षत्रमें एक पँक्ति में खड़ी हों, और कोई क्रोधजित् अत्यन्त शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा–एवमस्तु!


शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियाँ प्रदान की गई। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। ये तीनों भाई इन तीनों पुरियों में रहते हुए, अपने आतंक से सातों लोकों को आतंकित कर दिया।

वे जहाँ भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहाँ तक कि उन्होंने देवताओं को भी, उनके लोकों से निकाल बाहर किया । अमरगण इधर– उधर छुपकर, मर–मर कर जैसे–तैसे जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनलोगों ने मिलकर अपना सारा बल लगाया लेकिन त्रिपुरासुर का कुछ नहीं कर पाये। हारकर अंत में महादेव की शरण में जाना पड़ा।

प्रभु के चरणों में नतमस्तक होकर देवता रोने लगे। भगवान् शंकर ने पूछा–अरे! क्या हो गया? देवताओं ने अपनी दुर्दशा का बखान कर दिया। महादेव कहने लगे, सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते! देवताओं ने कहा–हम सब इकट्ठे प्रयास करके देख चुके हैं कि हमसे कुछ नहीं हो पाया। तब शिव ने कहा–मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूँ और तुम फिर प्रयास करके देखो। लेकिन सम्पूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को सम्हालने में असमर्थ रहे।

तब परमेश्वर ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। साथ ही सब देवताओं ने अपना–अपना आधा बल महादेव को समर्पित किया। अब उनके लिए रथ और धनुष बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुँच कर राक्षसों का विदारण कर सकें।

इस रथ का पुराणों में बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है। पृथ्वी को हीं भगवान् ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, स्त्रष्टा सारथी बने, विष्णु भगवान् बाण, मेरुपर्वत धनुष और वासुकी बना उस धनुष की डोर। इस प्रकार संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान् उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं के द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान् वृषभ बन कर उस रथ के जुए में जा जुड़े।

उन घोड़ो और वृषभ के पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस दानव नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर, तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे। उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों हीं समाहित थे। अभीजित् नक्षत्र में, उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते हीं महादेव ने हँसते–हँसते, अपने बाण से जलाकर खाक कर दिया और तब से शंकर त्रिपुरांतक हो गये।

इससे जुड़ी एक रोचक कथा और मिलती है , जब शिव असुरों के संहार में बार बार विफल हो रहे थे तो उन्हें ध्यान आया की उनहोंने गजानन गणेश की पूजा अर्चना किये बिना ही युद्ध क्षेत्र में आने का निर्णय कर लिया था ,इसलिए वे अबकि बार गणेश पूजा करके असुरों के साथ युद्ध करने निकले और उनका संहार एक ही बाण से कर दिया।

आंध्रप्रदेश के कृष्णा नदी के तट पर मल्लिकाजु‍र्न के पास हीं त्रिपुरांतक लिङ्ग स्थित है। वहाँ पर और भी अड़सठ शिव क्षेत्र बतलाये गये हैं।

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