याद कीजिये , आज से कुछ साल पहले समाचार चैनलों पर आरोप लगते थे कि वो एक तरफा समाचार ही दिखाते हैं। जिसके जवाब में या तो दूसरे तरफ की खबरें वो तब दिखाते जब ज्यादातर जनता सो रही होती या फिर वो सिर्फ एक “फ्लैश” न्यूज़ बनकर रह जाती। आज भी ऐसा ही हो रहा है बस जनता ने अपनी निर्भरता इस माध्यम पर कम कर ली। लोगों ने अपने सोर्स बनाये , कुछ स्वतंत्र पत्रकारों में अपने चैनल बनाये , कुछ लोगों ने अपनी websites बनायीं। एक तरफ़ा समाचारों को काउंटर किया जाने लगा। पारम्परिक चैनलों पर आने वाली गलत/भ्रामक खबरों का खंडन शुरू हुआ। सोशल मीडिया ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अगली क्रांति इन सोशल मीडिया प्लेटफार्म की मोबाइल पर उपलब्धता से आयी। शुरुआत में लगभग सभी सोशल मीडिया के प्लेटफार्म लोगों के व्यक्तिगत सूचनाओं के साझा करने में प्रयोग में आये पर धीरे धीरे इनका प्रयोग समाचार , राजनीति , उत्पादों के प्रचार, सबमे होने लगा। इससे प्लेटफार्म को फायदा ये होता है की उनके पास लोगों की ऐसी जानकारियों का भण्डार हो जाता है जिसे लोग ऊंचे दामों में खरीदते हैं और इसका प्रयोग अलग अलग तरीके से होता है।
पर धीरे धीरे इन प्लेटफॉर्म्स पर सवाल उठने शुरू हुए। फेसबुक-एनालिटिक पहला ऐसा बड़ा मुद्दा था जो सामने आया। कई देशों की राजनीति पर इसका असर दिखना शुरू हुआ जिसमें भारत भी शामिल था। कई देशों ने संसदीय समितियां तक बैठायीं , जांच हुई। कुछ पर जुर्माना भी लगा , अपनी नीतियों को स्पष्ट रूप से बताने की हिदायतें भी दी गयीं।
हाल ही में कैपिटॉल हिल पर हुए प्रदर्शन और उसके हिंसक हो जाने के चलते ट्विटर/फेसबुक ने राष्ट्रपति ट्रम्प के अकाउंट अपने प्लेटफार्म पर बंद कर दिए। ट्विटर ने तो अकाउंट हमेशा के लिए बंद कर दिया। कुछ अन्य माध्यमों पर जब राष्ट्रपति ट्रम्प ने जाने की कोशिश की तो ओपेरटिंग सिस्टम्स (OS ) ने उन एप्प को अपने स्टोर से ही हटा दिया। राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने आधिकारिक अकाउंट से ट्वीट करने की कोशिश की तो उन ट्वीट्स को भी डिलीट कर दिया गया।
अब कई सवाल उठना लाज़मी है :
१.अगर ये कदम दंगे रोकने के लिए उठाये गए थे तो जब तक जांच एजेंसीज अपना काम पूरा नहीं करतीं तब तक ही प्रतिबन्ध लगता , उसके बाद प्रतिबन्ध को स्थायी किया जाता अगर ज़रुरत होती।
२.राष्ट्रपति ट्रम्प के पिछले कई महीनों के ट्वीट्स को ट्विटर अपने कमेंट के साथ ही दिखा रहा था। कौन सा क्लेम गलत है या डिस्प्यूटेड है। ऐसा वो और कितने एकाउंट्स के साथ कर रहा था ?
३.OS अपने एप्पस्टोर से कोई एप्प हटा सकते हैं ये उनका अधिकार है पर क्या जो एप्प इस सिचुएशन में हटाई गयी वो सिर्फ राष्ट्रपति ट्रम्प उपयोग कर रहे थे ? बाकी लोग जो उसका उपयोग करना चाह रहे हैं वो डाउनलोड भी नहीं कर सकते ?
पिछले कुछ सालों में आन्दोलनों के नाम पर भारत में कई हुड़दंग हुए हैं। आप थोड़ा सा भी खोजेंगे तो पाएंगे कि ऐसे ट्वीट ना जाने कितने लोगों ने किये थे। तब ट्विटर या फेसबुक ने इतने कितने अकाउंट बंद किये ? इसमें से तो कई सो कॉल्ड ब्लू टिक वाले थे जिनको ट्विटर ने वेरीफाई भी किया था। २०१९ चुनाव के दौरान गलत बयानी करने वाले कितने नेताओं के हैंडल , खासकर जिनका निशाना प्रधानमंत्री मोदी थे , को इन प्लेटफॉर्म्स ने ब्लॉक किया। राफेल पर किये जाने वाले कितने ट्वीट पर लिखा गया कि ये क्लेम डिस्प्यूटेड है ? इसके इतर कई ऐसे अकाउंट ज़रूर बंद किये गए जो ऐसे ना जाने कितने प्रोपोगैंडा का विरोध करते थे।
नीचे कुछ उदाहरण हैं :
ऐसे और ना जाने कितने उदाहरण निकाले जा सकते हैं। पर इन पर ना तो किसी प्लेटफार्म का ध्यान जाता है और ना उनकी एप्प किसी एप्प स्टोर से हटती है। धीरे धीरे लोगों को ये पक्षपात पूर्ण रवैया दिख रहा है। लोग अन्य सोशल मीडिया माध्यमों पर जा रहे हैं। पर ऑपरेटिंग सिस्टम जिस तरीके से उन एप्प को ही हटा दे रहे हैं उससे लोगों में फिर से उन सोशल मीडिया माध्यमों में रुझान बढ़ रहा है जोकि ब्राउज़र से चल जाएँ और एप्प डाउनलोड करने की बाध्यता ना हो। कुछ लोगों ने अपना OS बनाने की कवायद भी शुरू कर दी है।
अपने एकतरफा और पक्षपात पूर्ण रवैये के चलते इस तरीके के सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ऑपरेटिंग सिस्टम खुद अपने लिए गड्ढे खोद रहे हैं। रोज बदलती टेक्नोलॉजी के दौर में ये बहुत घातक हो सकता है। नास्टैल्जिया को छोड़ दें तो आज कितनों को याद है की एक था ऑरकुट ?
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