बिहार विधानसभा चुनाव धीर-धीरे रफ्तार पकड़ रहा है। सीटों के बंटवारे से लेकर विरोधियों को परास्त करने की तरकीबें सोची जा रही हैं। नये बिहार से लेकर बिहार के विकास के जुमले उछाले जा रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल ‘चलो लालटेन जलाते हैं’ और ‘राम-राम, हरे-हरे, 2020 में लालटेन जली घरे-घरे’ के नारे के साथ चुनावी मैदान में है। अब भला कोई तेजस्वी यादव से पूछे कि इन्वर्टर के जमाने में कोई लालटेन क्यों जलाना चाहेगा? और वो जमाना कब का बीत चुका है जब लालटेन रोशनी का प्रमुख जरिया होता होता था, अब तो विकास के लट्टू दूरदराज के गांवों में टिमटिमाने लगे हैं।

शहरों में तो शायद ही किसी घर में आपको लालटेन दिखाई दे। सजावट के तौर पर किसी ने घर में टांगा हो तो अलग बात है। मान लीजिए अगर किसी के घर में लालटेन रखी भी है, तो उसे जलाता कौन है? शहरों में तो बिजली गुल होने पर मोमबती जलाने का चलन भी लगभग खत्म हो चुका है। हर छोटे-बड़े शहरों और कस्बों में इन्वर्टर अंधेरा होने ही नहीं देते। इन्वर्टर ना भी हो तो कम से कम कोई लालटेन तो नहीं जलाता। अब तो गांवों में भी डिबरी, लालटेन की बजाय सोलर लाइट और इमरजेंसी लाइट आम बात है। लालटेन तो शायद आरजेडी वालों के पास ही बची है।

नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार की नेगेटिव छवि का बदलने का बड़ा काम किया है। नीतिश से पहले की सरकारों ने बिहार की छवि और प्रतिष्ठा को गहरी ठेस पहुंचाई। देशभर में रोटी रोजगार के लिये जाने वाले बिहारी इस नेगेटिव छवि का खामियाजा भुगतते थे। नीतीश के शासन में बिहार और बिहारियों के प्रति देशवासियों की सोच और नजरिये में फर्क साफ तौर पर दिखाई देता है। और ये सकारात्मक अंतर खुद बिहार के निवासी भी महसूस करते हैं।

ये खुला तथ्य है कि लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन में बिहार का चप्पा-चप्पा अपहरण, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, रंगदारी, भ्रष्टाचार आदि की घटनाओं से भरा हुआ था। विरोधी कहते हैं कि लालू-राबड़ी के शासन में किडनैपिंग को उद्योग का दर्जा मिल गया था। द टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से तब करवाए गए एक सर्वे से पता चला कि साल 1992 से 2004 तक बिहार में किडनैपिंग के 32,085 मामले सामने आए। कई मामलों में तो फिरौती की रकम लेकर भी बंधकों को मार दिया जाता था। बिहार पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक, साल 2000 से 2005 की पांच साल की अवधि में 18,189 हत्याएं हुईं।

लालू-राबड़ी के राज में बिहार जातीय हिंसा की आग में झुलस गया था। लालू-राबड़ी शासन में शहाबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव जैसे कई नेताओं का अपने-अपने इलाके में आतंक व्याप्त था। लालू पर जाति की राजनीति को परवान चढ़ाने का भी आरोप लगता रहा है। इस आरोप के समर्थन में लोग लालू के ‘हमको परवल बहुत पसंद है, भूरा बाल साफ करो’ जैसे जुमले याद दिलाते हैं।

लालू-राबड़ी के शासन में राबड़ी के भाइयों साधु यादव और सुभाष यादव ने आतंक मचा रखा था। सीवान के सांसद शहाबुद्दीन की करतूतों को भला कौन भूल सकता है। लालू-राबड़ी के शासनकाल में विकास के मामले में बिहार की स्थिति जर्जर हो गई। नए उद्योग-धंधे लगने की बात तो दूर, पहले से चल रहे उद्योग भी बंद हो गए। रोजगार के लिए लोगों को दूसरे राज्यों का रुख करना पड़ा। शिक्षा की हालत ऐसी कर दी गई कि आज भी बिहार इससे पूरी तरह से उबर नहीं पा रहा है।

लालू प्रसाद ने हमेशा खुद को ‘गुदड़ी का लाल’ के तौर पर पेश किया। और इसी शीर्षक से स्कूलों की किताबों में एक चैप्टर भी जुड़वाया था। जिसमें उनके जीवन संघर्ष का बखान करते हुये उन्हें गरीबों के मसीहा के तौर पर पेश किया गया। लेकिन, सच्चाई यह है कि सत्ता मिलते ही लालू ने उन्हीं गरीबों के हिस्से का पैसा डकार गए। चारा घोटाले की सजा तो फिलवक्त वो भुगत ही रहे हैं।

बिहार निवासियों के सामने लालू-राबड़ी और नीतीश कुमार का 15-15 साल का कार्यकाल खुली किताब की तरह हैं। अब बिहार वालों को ये फैसला करना है कि उन्हें लालटेन की मद्धम रोशनी में जिंदगी गुजारनी है या फिर चमचमाती लाइटों के प्रकाश में।

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