गुड मॉर्निंग एक्सक्लुसिव: सौरभ शाह

(newspremi.com , शुक्रवार, २५ दिसंबर २०२०)

आज तिथि के अनुसार गीता जयंती और तारीख के अनुसार अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती है. २५ दिसंबर १९२४ को उनका जन्म हुआ था. लालकृष्ण आडवाणी उम्र में उनसे करीब तीन साल छोटे हैं. ८ नवंबर १९२७ को उनका जन्मदिन आता है. अभी वे ९३ वर्ष के हैं. वाजपेयी की जन्मशताब्दी चार वर्ष बाद मनाई जा रही होगी.

भारत की राजनीति में वाजपेयी और आडवाणी का जमाना जिन्होंने देखा है उन्हें नरेंद्र मोदी और अमित शाह का वर्तमान समय देखकर दोनों कालखंडों के बीच की साम्यता और दोनों कालखंडों के बीच के अंतर का निरीक्षण करने में मजा आएगा.

भारत के इन दोनों महान नेताओं- वाजपेयी और आडवाणी की जोडी को राजनीति में जो वातावरण विरासत में मिला, उस वातावरण को व्यापक बनाने के लिए दोनों ने भारी पुरुषार्थ किया. उनके द्वारा दृढ़ता निर्मित नींव पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह भारत वर्ष की भव्य इमारत का निर्माण कर रहे हैं. भविष्य में इस इमारत की ऊँचाई को और ऊपर ले जाने के लिए नया कैडर तैयार हो रहा है- योगी आदित्यनाथ, देवेंद्र फडणवीस और अन्य कई राजनेताओं के रूप में.

ऐसा नहीं है कि भारत और भारतीयता के गौरव को लौटाने में केवल वाजपेयी और आडवाणी के दो नाम ही हैं. वीर सावरकर और स्वामी विवेकानंद से लेकर सरदार पटेल तक अनेक विभूतियों ने अपने तन-मन -धन की अंतिम बूंद निचोड़कर इइ तपोभूमि को सिंचित किया है. १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करनेवाले केशव बलिराम हेडगेवार से लेकर १९५१ में जनसंघ की स्थापना करनेवाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी सहित अनेक महानुभावों का स्मरण हो आता है. महात्मा गांधी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी याद आते हैं. श्री अरविंद और भगत सिंह भी याद आते हैं. ऐसे सैकड़ों, बल्कि हजारों महानुभावों ने अपने ऊपर श्रद्धा रखनेवाले लाखों ही नहीं बल्कि करोडों भारतीयजनों के सहारे राम और कृष्ण की जन्मभूमि होने के गौरव से विभूषित आज के भारत का निर्माण किया है.

इन सभी के पुण्य स्मरण के साथ आज वाजपेयी-आडवाणी की जोडी द्वारा भारत को `भारत’ बनाने के लिए किए गए छह दशक के संयुक्त पुरुषार्थ की बात करेंगे.

गुड कॉप, बैड कॉप. वाजपेयी को मीडिया गुड कॉप के रूप में चित्रित करता रहा और आडवाणी को बैड कॉप. स्कॉटलैंड यार्ड में और विदेश में कई स्थानों पर पुलिस विभाग के लोग भी जोडी में काम करते हैं. भारत में भी काफी हद तक ऐसा ही होता है. आरोपी से जानकारी निकलवाने के लिए एक पुलिस इंस्पेक्टर धमकी से, डराकर, जोर जबरदस्ती से, सख्ती से बर्ताव करता है. जब कि उसी आरोपी को बहला-फुसलाकर, लालच देकर, छोटी मोटी सुविधाएं देकर पटाने का प्रयास करता है. दोनों के इरादे तो समान ही होते हैं. गुड कॉप-बैड कॉप की संकल्पना परिवारों में भी देखने को मिलती है. परिवार में पिता बैड कॉप होता है तो मां गुड कॉप होती है. कभी कभी इससे उलट भी होता है. मित्र मंडली में भी कहा जाता है कि ये दोस्त अच्छा है पर उसकी वाइफ जरा….संयुक्त परिवार या बडा परिवार होता है तो बच्चे कोई काम निकलवाने के लिए पिता के पास जाने के बजाय छोटे या बडे चाचा के पास जाते हैं. व्यवसाय में भी बाहर के लोगों के लिए एक पार्टनर गुड कॉप होता है तो दूसरा बैड कॉप. हर जगह ऐसा चलता है. राजनीति में विशेष रूप से. सच्चाई तो ये होती है कि ये सबकुछ बाहर से देख रहे लोगों की आंखों से दिखता है. अंदर अंदर तो गुड कॉप और बैड कॉप दोनों के हेतु समान ही होते हैं.

वाजपेयी अपने जमाने में विरोधियों के लिए भी सर्वस्वीकृत माने जाते थे. जब कि आडवाणी अपने ही दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए उग्र स्वभाव के माने जाते. डिफिकल्ट टू टैकल विथ. लेकिन इस मीडिया ने और बाहर के लोगों ने नमक मिर्च लगाकर ये इमेज खडी की थी. अंदर से तो दोनों का लक्ष्य एक ही था और उस लक्ष्य तक पहुंचने का दोनों का मार्ग भी एक ही था- हिंदुत्व.

महान लोगों के निकटवर्ती लोगों को, निकटतम सर्कल के लोगों को, बाहरी दायरे के लागों को तथा मीडिया को दूर बैठकर महापुरुषों के विचारों, उनकी राय, उनके व्यवहार, उनके मूड, इरादों और यहां तक कि उनके चेहरे के हावभाव तथा बॉडी लैंग्वेज का विश्लेषण करके उसे सामान्य जनता तक पहुंचाने में मजा आता है क्योंकि विश्लेषकों को ऐसा भ्रम होता है कि ऐसे विश्लेषण के कारण उनका महत्व बढ़ता है.

असल में कोई भी महापुरुष अपने मन की बात दूसरे को पता नहीं चलने देता. उनके चेहरे से आपको पता ही नहीं चलेगा कि उनके मन में चल क्या रहा है, कौन सी रणनीति वे सोच रहे होंगे, उनके शतरंज की आगे की तीन तो क्या, अगली चाल भी कौन सी होगी उसका सुराग तक नहीं लगेगा. वे एक एक शब्द तौलकर बोलते हैं- वे जानते हैं कि उनके शब्दों, उनकी बातों का कितना महत्व है. सार्वजनिक रूप से तो बिलकुल नहीं, लेकिन निजी जीवन में भी वे कभी लूज़ टॉक नहीं रकते. अन्य लोग क्या बोलते हैं, और बिटवीन द लाइन्स क्या कहना चाहते हैं, इसे तत्काल पहचानने की विलक्षण और तीक्ष्ण बुद्धि भगवान ने उन्हें दी होती है, जिसकी धार को वे निरंतर तेज बनाए रखते हैं. भविष्य की योजनाओं के बारे में या अपनी अगली चाल के बारे में यदि वे बोलेंगे तो वह इरादापूर्वक होगा, अनायास या गलती से बात मुंह से निकल जाए ऐसा कभी नहीं होगा. ऐसी विशेषताओं के कारआडवाणी को प्रचारक के रूप में राजस्थान में काम करने के लिए भेजा गया जहां पर कभी बस में तो कभी साइकिल पर और कभी ऊंट पर बैठकर भी प्रवास करना पडता.ण ही वे महान कार्य करके महान पुरुषों की सूची में स्थान प्राप्त करते हैं.

आडवाणी को प्रचारक के रूप में राजस्थान में काम करने के लिए भेजा गया जहां पर कभी बस में तो कभी साइकिल पर और कभी ऊंट पर बैठकर भी प्रवास करना पडता.

वाजपेयी सक्रिय राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जब दाखिल हुए तब आजादी के बाद के वर्षों में, किसी को कल्पना तक नहीं थी कि नेहरू के बनावटी समाजवाद से देश को उबारनेवाला वातावरण बनने वाला है. इसके बावजूद आरएसएस से लेकर जनसंघ तक अनेक संस्थाओं या राजनीतिक दलों के निष्ठावान नेता दिन रात मेहनत कर रहे थे जिससे कि एक दिन नेहरू की विरासत को उखाड कर भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि का पोषण करने योग्य वातावरण बनाने में सक्षम होगा.

विभाजन के समय आडवाणी और उनका परिवार अपना मूलस्थान कराची छोडकर दिल्ली आए. कराची में समृद्ध परिवार में पले बढे आडवाणी किशोरावस्था में ही आर.एस.एस. से जुड गए थे. दिल्ली आकर स्थानीय शाखा से जुडे. वाजपेयी भी कॉलेज के समय से स्वयंसेवक थे.

१९४६ में वाजपेयी कानपुर में एल.एल.बी. की पढाई कर रहे थे तब संघ की ओर से उन्हें आदेश आया कि पढना छोड दो, हिंदी पत्रिका शुरु करनी है. उसी वर्ष आडवाणी कराची से संघ के तृतीय वर्ष के वर्ग में नागपुर आए थे. उत्तीर्ण होने के बाद कराची लौटे तब उन्हें संघ में बडी जिम्मेदारी दी गई. ५ अगस्त १९४७ को सरसंघचालक गुरु गोलवलकर कराची के प्रवास पर गए थे. तब रेलवे स्टेशन पर उन्हें सुनने के लिए एक लाख हिंदू जुटे थे. उनके स्वागत के लिए दस हजार स्वयंसेवक संघ के गणवेश में राष्ट्रभक्ति का गीत गाने के लिए और भीड को नियंत्रित करने के लिए तैनात थे. इन दस हजार स्वयंसेवकों के नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्नीस वर्ष के युवक आडवाणी को सौंपी गई थी. १५ अगस्त १९४७ के दिन आरएसएस की ओर से लखनऊ में हिंदी मासिक राष्ट्रधर्म' शुरू किया गया जिसके सबसे पहले संयुक्त संपादक बाईस वर्ष के वाजपेयी थे जो कुछ ही महीने बाद आरएसएस के ही साप्ताहिकपांचजन्य’ के संपादक के नाते जुडे.

सितंबर १९४७ में आडवाणी शरणार्थी के रूप में कराची से दिल्ली आए और दो महीनों में मुंबई जाकर वीर सावरकर से मिले. आत्मकथा माय कंट्री, माय लाइफ' में आडवाणी लिखते हैं:(विनायक दामोदर सावरकर के) शिवाजी पार्क के घर उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से आकर्षिक होकर बैठा था उस समय वे मुझसे पार्टीशन के बाद सिंध और वहां के हिंदुओं की हालत के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए सवाल पूछ रहे थे.’

श्यामाप्रसाद मुखर्जी राजस्थान में चुनाव प्रचार करने गए तब उनके भाषणों का अनुवाद करके माइक पर बोलने के वाजपेयी को दिल्ली से कोटा भेजा गया.

आडवाणी को प्रचारक के रूप में राजस्थान में काम करने के लिए भेजा गया जहां पर कभी बस में तो कभी साइकिल पर और कभी ऊंट पर बैठकर भी प्रवास करना पडता. ३० जनवरी १९४८ को गांधीजी की हत्या हुई और नेहरू के आदेश से संघ के हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी की गई जिसमें आडवाणी भी थे. कई महीने जेल में रहे. जेल में उन्हें दो बार तीन मोटी-कच्ची पक्की रोटी और बेस्वाद भोजना मिलता. जेल से छूटने के बाद भी महीनों तक पुलिस से बचने के लिए एक के बाद एक घर बदलते हुए घुमंतू की जिंदगी उन्होंने जी. कुछ ही दिन पहले जिनका निधन हुआ ऐसे आरएसएस के बहुत बडे नेता मा.गो. वैद्य (जिनके पुत्र मनमोहन वैद्य वर्तमान में संघ की बडी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं) उस समय संघ पर प्रतिबंध के कारण भूमिगत रहकर सायक्लोस्टाइल्ड पत्रक छापने की जिम्मेदारी संभाल रहे थे और पुलिस को शक न होने पाए कि वे आरएसएस के कार्यकर्ता हैं, इसलिए गले में टाई लगाकर ब्रिटिशों के प्रति वफादार नागरिकों की तरह घूमा करते. संघ के प्रचारकों को स्थानीय निवासी बारी बारी से अपने घर आमंत्रित करके भोजन कराते हैं लेकिन संघ पर प्रतिबंध के कारण और नेहरू की सरकार द्वारा तैयार किए गए भय के वातावरण के कारण मा.गो. वैद्य को लोग भोजन पर बुलाने से डरते थे. चार महीने तक उन्होंने सेव-चिवडा खाकर बिताए.

ऐसे महौल में वाजपेयी गिरफ्तारी से बच गए और फरवरी १९४९ में नेहरू सरकार को मानना पडा कि गांधीजी की हत्या में आरएसएस का कोई हाथ नहीं. जुलाई १९४९ में संघ से प्रतिबंध हटा लिया गया. २१ अक्टूबर १९५१ को भारतीय जनसंघ नामक राजनीतिक दल की स्थापना हुई. जनसंघ शुरू करने के लिए श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सरसंघचालक गुरू गोलवलकर से सहायता मांगी. आरंभ में तो इस बारे में मतभेद थे लेकिन अंत में गुरुजी ने श्यामाप्रसाद से कहा कि नए राजनीतिक दल के लिए मैं आपको संघ से पांच स्वर्ण मुद्राएं दे रहा हूं- दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, नानाजी देशमुख, बापूसाहब सोहनी और बलराज मधोक.

भारत का पहला लोकसभा का चुनाव १९५१ -५२ में हुआ. नेहरू की विशाल कांग्रेस के सामने नवजात शिशु जैसे जनसंघ को लडना था. श्यामाप्रसाद मुखर्जी राजस्थान में चुनाव प्रचार करने गए तब उनके भाषणों का अनुवाद करके माइक पर बोलने के वाजपेयी को दिल्ली से कोटा भेजा गया. वाजपेयी और आडवाणी जीवन में पहली बार इन्हीं दिनों में मिले.

पहले लोकसभा चुनाव में जनसंघ को पूरे देश में हुए मतदान के तीन प्रतिशत वोट मिले. नए नए राजनीतिक दल के लिए बडी उपलब्धि थी लेकिन दिल्ली अभी दूर थी, बहुत दूर. २३ जून १९५३ को श्यामाप्रसाद मुखर्जी की ५१ वर्ष की आयु में कश्मीर हुई गिरफ्तारी के दौरान कारावास में संदिग्ध स्थितियों में मृत्यु हो गई. हिंदुत्व के आंदोलन को जबरदस्त झटका लगा. शंका की सुई नेहरू की तरफ उठी. अगले साल, १९५४ में नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी पंडित ने युनो में जाने के लिए संसद से इस्तीफा देकर सीट खाली की. दीनदयाल उपायध्याय ने इस निर्वाचन क्षेत्र से २९ वर्ष के तेजस्वी वक्ता और निष्ठावान कार्याकर्ता वाजपेयी को जनसंघ की ओर से चुनाव लडने का आदेश दिया. वाजपेयी हार गए, इतना ही नहीं तीसरे स्थान पर रहे. उस रात वाजपेयी इस हार को भुलना के लिए दोस्तों के साथ निकट के थिएटर में फिल्म देखने चले गए.

१९५७ के दूसरे लोकसभा के चुनाव में दीनदयाल उपाध्याय ने वाजपेयी को एक नहीं, दो नहीं,तीन-तीन सीटों पर से चुनाव लडने को कहा. वाजपेयी लखनऊ और मथुरा की सीटों से हार गए लेकिन बलरामपुर से जीत गए. तैंतीस साल की उम्र में वाजपेयी ने सबसे पहले संसद में जब कदम रखे तब उनके सहित किसी को भी कल्पना नहीं थी कि १९९६ में ७२ वर्ष की आयु में वे १३ दिन के लिए भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे, इतना ही नहीं १९९८ में फिर एक बार १३ महीने के लिए प्रधानमंत्री बनेंगे और १९९९ में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर पांच साल का कार्यकाल पूर्ण करेंगे.

वाजपेयी का रिश्ता ग्रामीण भारत के साथ था, राष्ट्रभाषा हिंदी पर उनका अभूतपूर्व प्रभुत्व था. लेकिन अब सांसद के नाते उनका पाला ल्युटियन्स दिल्ली के साथ पडने जा रहा था. आडवाणी मूल रूप से शहरी जीव थे, उनकी अंग्रेजी पर भी पकड थी. दीनदयाल उपाध्याय ने १९५७ के चुनाव के बाद लालकृष्ण आडवाणी को दिल्ली जाकर नए चुने गए सांसद अटलबिहारी वाजपेयी के साथ रहकर काम करने का आदेश दिया. आडवाणी संसद भवन के पास ३० राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर वाजपेयी के सरकारी बंगले में शिफ्ट हो गए जहां से बाद में वे रामलीला मैदान के पास पार्टी कार्यालय में रहने चले गए लेकिन मिलना तो हर दिन जारी रहा. शायद ही ऐसा कोई दिन होता जब वे दोनों एक दूसरे से न मिले हों या फिर फोन पर बात न की हो. `गुड कॉप-बैड कॉप’ की इस जोडी ने छह दशकों तक दिनरात जो जद्दोजहद की उसके परिणामस्वरूप भारतीय जनता पार्टी संसद में दो सीटों से ३०३ सीटों तक पहुंच गई और भविष्य में ४०० से अधिक सीटों के साथ राजीव गांधी का कीर्तिमान तोडनेवाली है.

आज का विचार

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संड़गोsस्त्वकर्मणि।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, द्वितीय अध्याय, श्लोक ४७)

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