नकेल धन कमाने वाली संस्थाओं पर।

मुद्दा चाहे मुर्शिदाबाद का हो या आगरा का , चाहे कोई ओवैसी गरज रहा हो या कोई गिरिराज परंतु यह बात ध्यान देने की है कि देश की जो भी संस्था धन का लेनदेन करती है उसमें एक सरकारी प्रतिनिधित्व जरूरी है। चाहे वह वक्फ़ बोर्ड हो, हिंदू मंदिर या मठ हो , ईसाइयों का चर्च वाला ऑर्गेनाइजेशन हो, , बौद्ध या जैन संघ हो , सांई मंदिर हो या अन्य किसी भी धर्म का समाज कल्याण में लगे संगठन ।
अगर छोटे-छोटे संगठनों को स्वतंत्रता देनी ही है तो कोई बात नहीं , एक आर्थिक लेनदेन की सीमा नियत कर दिया जाए जैसे पाँच दस करोड़ तक के वार्षिक ट्रांजैक्शन वाली संस्थाओं या समाज सेवी संगठन आदि को छूट दिया जाए और उसके ऑडिट रिपोर्ट को ही मान लिया जाए। परंतु यदि रकम दस करोड़ सालाना से ज्यादा की हो तो उसमें एक सरकारी अफसर का प्रतिनिधित्व जरूरी होना चाहिए और संसद में एक ऐसा बिल पास होना हीं चाहिए। वक्फ़ की बात पहले आई क्योंकि वक्फ़ के कानून ने स्वयं को संविधान से ऊपर मान लिया था। इस बात के लिए सरकार को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है कि वक्फ़ पर लगाम लगाने के लिए ही पहल क्यों की गई। परंतु अन्य सभी संस्थाओं को जिसमें दस करोड रुपए सालाना से ज्यादा का लेनदेन होता हो उसमें प्रखंड या जिला स्तर का एक सरकारी अधिकारी ड्राइंग डिस्पर्सिंग अथॉरिटी होना चाहिए जो इस पर निगाह रखें ।
और एक ऐसा बिल आना चाहिए।
अगर ऐसे बिल के विरोध में कोई भी धर्मगत या जातिगत समूह आंदोलन करता है तो उसको तुरंत कानून के दायरे में लाकर समझाना चाहिए वह चाहे जिस भी तरीके से हो क्योंकि देश की संप्रभुता सबसे ऊपर है ।
बाकी सारे कानून, नैतिकता, संविधान यह सब चलता रहता है। चाणक्य ने भी कहा है कि देश की शक्ति उसका कोष है। अगर कोष भरा हुआ है तो राष्ट्र संपन्न हीं रहेगा वहां पर समृद्धि आनी हीं है।
जो भी व्यक्ति धन के मामले को देखता है और उस पर नियंत्रण रखता है उस संस्था में और उस व्यक्ति का भ्रष्टाचार में लिप्त होना अनिवार्य है। जैसे यदि कोई व्यक्ति नदी में स्वत गिर जाए या कोई धक्का दे दे तो इस दौरान उसके पेट में थोड़ा बहुत पानी जरूर पहुंचता है इस प्रकार धन के मामले को देखने वाला व्यक्ति थोड़ा बहुत घूसखोर जरूर हो जाता है । यह बात चाणक्य ने अपनी किताब में लिखा है।
आप सबको पता है कि रेलवे और आर्मी को छोड़कर वक्त बोर्ड तीसरी ऐसी संस्था है जिसके पास सबसे अधिक भूमि पर कब्जा है और इतनी बड़ी भूमि पर कब्जा करने के बाद हम अगर देखे तो वक्फ़ बोर्ड सामान्य भारतीयों के लिए कोई भी लाभकारी कदम नहीं उठाता है वह मात्र गिने चुने स्वधर्मियों को ही फायदा पहुंचाता है जबकि सेना और रेलवे से हर एक भारतीय और विदेशी भी जाति और धर्म से परे लाभान्वित होता है।
ऐसी अनेक संपत्तिशाली धार्मिक संस्थाओं के विनाश के समय अगर आम भारतीय ने इसे रोकने के लिए कोई कदम न उठाया या तटस्थता का रुख अपनाया तो इसकी वजह यही रही कि ये संस्थाएं कभी भी जन कल्याण के कार्य नहीं करती रही। इसलिए इन संस्थाओं की संपत्ति में चाहे आग भी लग जाए एक आम आदमी इस मामले में निरपेक्ष हीं रहा है।
वक्त संशोधन विधेयक पर भी सामान्य मुसलमान में कोई बहुत बड़ी बेचैनी नहीं है। यह बेचैनी तो पैदा की गई है। यह तूफान तो चाय की प्याली में फूंक मार कर पैदा की गई है।
सरकार ऐसे सभी संगठनों को कानून के दायरे में लाकर जनकल्याणकारी कार्य करने के लिए बाध्य करें तभी देश में समृद्धि आएगी वरना इन संस्थाओं के माध्यम से गिने चुने लोग हीं मलाई खाते मिलेंगे। आम आदमियों की किस्मत में तो मुर्शिदाबाद और आगरा की घटना ही लिखी हुई है।
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