आखिर पाकिस्तान बदहाल क्यों है? 1947 में खूनी विभाजन के बाद खंडित भारत जहां चांद पर पहुंच गया, वही एक चौथाई भारतीय भूंखडों को काटकर बनाया गया पाकिस्तान क्यों इतना पिछड़ गया? आखिर पाकिस्तान इस हाल में कैसा पहुंचा? इसका संकेत पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की हालिया टिप्पणी में मिल जाता है। बीते दिनों नवाज ने अपने देश में मंडराए आर्थिक संकट के लिए सैन्य प्रतिष्ठान पर निशाना साधते हुए कहा, “नकदी संकट से जूझ रहे देश की परेशानी के लिए न तो भारत जिम्मेदार है और न ही अमेरिका, बल्कि हमने अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी है।“ इसका निहितार्थ क्या है?
पाकिस्तान की वर्तमान आर्थिक स्थिति क्या है? कंगाली के चौखट पर पहुंचा पाकिस्तान गले तक कर्ज में डूबा हुआ है। पुराना कर्ज चुकाने के लिए या तो उसे नया कर्ज लेना पड़ रहा है या फिर अपने नागरिकों पर इसका बोझ कभी तेल की कीमतों को बढ़ाकर, तो कभी बिजली की दरों में वृद्धि करके थोप रही है। स्थिति यह हो गई है कि खाने-पीने की चीजों के मूल्यों में बढ़ोतरी और गैस की आसमान छूती कीमतों के चलते पाकिस्तान में संवेदनशील मूल्य सूचकांक (एसपीआई) 42.6 प्रतिशत तक बढ़ गया। पाकिस्तान में चीनी, चाय, चिकन, आटा और चावल सहित अधिकतर आवश्यक वस्तुएं महंगी हो गई है। पाकिस्तान सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, यह लगातार छठा सप्ताह है, जब साप्ताहिक मुद्रास्फीति सूचकांक 41 प्रतिशत से ऊपर है। बीते दिनों पाकिस्तान में बिजली बिल बढ़ाने पर आम जनता सड़कों पर उतर आई थी। तब हालात गृह युद्ध जैसे हो गए थे।
पाकिस्तान में नकदी किल्लत इतनी विकराल है कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की सरकार ने उसकी तंगहाली पर तरस खाकर मुफ्त में प्रदूषण से बचने हेतु कृत्रिम वर्षा करवाई। पाकिस्तान की स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो प्रदूषण से लोगों को मुक्ति दिलाने हेतु पाकिस्तानी सरकार 35 करोड़ रुपये का अनुमान जताया था। इस संबंध में पाकिस्तान अपने मित्र चीन की ओर टकटकी लगाए देख रहा था कि वह लाहौर में कृत्रिम बारिश कराएगा। परंतु चीन के बजाय यूएई ने एक फूटी कौड़ी भी लिए बिना यह काम कर दिया।
वास्तव में, पाकिस्तान नकारात्मक चिंतन से जनित विफल ‘राष्ट्र’ है। कहने को यह इस्लाम के नाम पर बना, परंतु इसकी मांग के पीछे इस्लाम के प्रति प्रेम कम, ‘काफिर’ हिंदुओं-भारत की ‘कुफ्र’ बहुलतावादी सनातन संस्कृति के प्रति घृणा अधिक थी, जो अब भी व्याप्त है। अपनी इसी मानसिकता के कारण पाकिस्तान, उस साम्राज्यवादी चीन का पिछलग्गू बना हुआ है, जो भी भारत को अपना एक बड़ा शत्रु समझता है। यह स्थिति तब है, जब विश्व के किसी देश की सरकार द्वारा मुसलमानों का उत्पीड़न करने के मामले में चीन घोषित रूप से कुख्यात है। शिनजियांग में एक करोड़ से अधिक मुस्लिमों का राजकीय दमन— इसका उदाहरण है।
द्वेष प्रेरित जनमानस को किसी के खिलाफ एकजुट तो कर सकते है, परंतु उनका सकारात्मक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु भागीदार बनना कठिन है। यह दर्शन उन मूल्यों-जीवनशैली का अंधा-विरोध है, जो भारत को अनाधिकाल से परिभाषित करते आए है। पाकिस्तान स्वयं को खंडित भारत से अलग, तो मध्यपूर्वी एशिया-खाड़ी देशों से निकट दिखाने हेतु प्रयासरत है। पाकिस्तान में 40 प्रतिशत से अधिक लोगों के पंजाबी भाषी होने के बाद भी विदेशी फारसी भाषा में कौमी तराना (राष्ट्रगान) होना— इसका प्रमाण है। वास्तव में, पाकिस्तान उस मूर्ख पड़ोसी की भांति है, जो अपने घर में आग इसलिए लगा लेता है, ताकि उसका पड़ोसी भी धुंए के कारण संकट में आ जाता है।
एक तो पाकिस्तानी वैचारिक अधिष्ठान की भारत-विरोधी मानसिकता, उसपर इस इस्लामी देश का सत्ता-प्रतिष्ठान (पाकिस्तानी सेना सहित) भारत से 1971 का बदला लेने हेतु ‘हजार घाव देकर मौत के घाट उतारने’ संबंधित नीति का अनुसरण कर रहा है। वह अपने संसाधनों का बहुत बड़ा हिस्सा प्रशिक्षित आतंकवादियों को तैयार करने पर व्यय कर रहा है। ‘खालिस्तान’ के नाम पर सिख अलगाववाद को हवा देना, 1980-90 के दशक से कश्मीर में स्थानीय मुस्लिमों को इस्लाम के नाम पर हिंदुओं-सिखों और भारतपरस्त मुसलमानों की हत्या करने को प्रोत्साहित करना, वर्ष 2001 के संसद जिहादी हमले, 2008 के 26/11 मुंबई आतंकी हमले सहित दर्जनों जिहाद (उदयपुर-अमरावती हत्याकांड सहित) में भूमिका और सीमापार से आतंकवादियों की घुसपैठ— इसका परिणाम है।
चूंकि पाकिस्तान ने अपने वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप असंख्य जिहादियों को तैयार किया है, उससे न तो स्थानीय जनमानस सुरक्षित है और न ही निवेशक-उद्यमी। पाकिस्तान ने अपनी वैचारिक कोख से जिन हजारों-लाख जिहादियों को पैदा किया, वह उसके लिए भी ‘भस्मासुर’ बन रहे है। एक आंकड़े के अनुसार, पाकिस्तान द्वारा पनपाए आतंकवाद ने दीन के नाम पर 2002-14 के बीच ही 70,000 पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया। खंडित भारत में मोदी सरकार आने के बाद जिस प्रकार भारत के सामरिक-रणनीतिक दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन आया है, उससे सीमापार घुसपैठ में भारी गिरावट देखने को मिली है। परिणामस्वरूप, पाकिस्तानी जिहादी अब अपनी ‘शुद्ध-भूमि’ को और अधिक स्वाह करने में लगे है। यूं कहे कि तकनीकी क्रांति के युग में पाकिस्तानी आतंकी भी ‘वर्क फ्रॉम होम’ में व्यस्त है।
क्या नवाज शरीफ के कारण भारत-पाकिस्तान के संबंधों में कोई आमूलचूल परिवर्तन आएगा या फिर पाकिस्तानी सेना का वर्चस्व कम होगा? इसका उत्तर स्पष्ट रूप से ‘ना’ है। सच तो यह है कि जिस पाकिस्तानी सेना पर नवाज अपने मुल्क लौटने के बाद बरस रहे है, उन्हीं की अनुकंपा से नवाज की वतन-वापसी संभव हो पाई है। यही नहीं, जिन फ्लैगशिप, एवेनफील्ड और अल-अजीजिया स्टील मिल संबंधित भ्रष्टाचार मामलों में नवाज एकाएक बरी हुए है, उनकी पटकथा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने ही लिखी थी। नवाज, तीन बार—1990-93, 1997-99 और 2013-17 पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे है। सच तो यह है कि नवाज के शासन के दौरान भी पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान के समर्थन से जिहादियों द्वारा कश्मीर में हिंदुओं का नरसंहार (1991), कारगिल युद्ध (1999) और पठानकोट पर आतंकवादी हमला (2016) हुआ था।
एक बात अमिट है कि पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान को जिस ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है, उसमें ‘काफिर’ भारत-अमेरिका से संबंध शांतिपूर्ण करने के विचारों से वहां न तो कोई राजनीतिक दल प्रासंगिक रह सकता है और न ही एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान अधिक समय तक जिंदा रह सकता है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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