गुरु सर्वज्ञ होते हैं : श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज जी कहते हैं – ‘तुम स्वयं को जितना जानते हो, उससे कहीं अधिक मैं तुम्हें जानता हूं । जगत का नियम यह है कि जिसे जिसका जितना सान्निध्य मिलता है, उतना ही अधिक उससे परिचय होता है । तुम्हें देह का सबसे अधिक सान्निध्य प्राप्त है । यह देह इसी जन्म तक सीमित है । तुम उतना ही जान सकते हो । तुम्हें जब से जीव दशा प्राप्त हुई, तबसे जो-जो देह तुमने धारण किए हैं, रामकृपा से वे सब मुझे ज्ञात होते हैं । इससे समझ आएगा कि मैं तुम्हें जानता हूं ।’
गुरु की सर्वज्ञता के सन्दर्भ में हुई प्रतीति – ‘एक भक्त प.पू (परम पूज्य) भक्तराज महाराज जी को (बाबा को) पत्र भेजते थे । प.पू. बाबा से मिलने पर बाबा उन्हें पत्र में लिखे प्रश्नों के उत्तर देते थे । इसलिए उन्हें (भक्त को) ऐसा लगता था कि बाबा पत्र पढते हैं । एक बार प.पू. भक्तराज महाराज जी के इंदौर स्थित आश्रम को समेटते समय मुझे वे सर्व पत्र मिले । उन्हें खोला भी नहीं गया था । गुरु को सूक्ष्म से सर्व ज्ञात होता है, यह मैंने उस समय अनुभव किया ।’ – डॉ. आठवले
इस प्रसंग से गुरु की सर्वज्ञता ध्यान में आती है।
संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘गुरुकृपायोग’
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