त्योहार का महीना है प्रदेश में बाहर रोजगार कर रहे लोगों का कोरोना के कारण अपने राज्य वापस आने से गांव शहर में भी लोगो की संख्या बढ़ी है। त्योहार के महीने में वैसे भी बिहार में काफी लोग अपने परिजनों के साथ त्योहार मनाने के लिए हर वर्ष अपने जन्म भूमि में आते हैं पर इस बार साथ ही साथ चुनावी मौसम भी है। तर्क वितर्क चर्चाओं का दौर है सब अपने अपने राजनीतिक दलों के समर्थन में बाते करते हैं चाय पर चर्चा होती है।
आखिर इस बार क्या है माहौल यह कैसे समझ जाए तो सबसे पहले प्रवासी मजदूरों की बात करते हैं जो दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र ,राजस्थान जहां लगभग 70% बिहार के लोग रोजगार करते हैं पर इन सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारों का रवैया जो रहा उसके कारण प्रवासियों को जो पीड़ा सहनी पड़ी है वह बहुत ही गंभीर विषय है।
राज्य में लोग अपने राज्य के मुखिया के तौर पर एक कुशल नेतृत्व की तरफ आस लगाए बैठे हैं।
बेरोजगारी, उद्योग ,अपराध के मुद्दे हर चुनाव में अहम होते हैं और इस बार भी ऐसा ही है जातिगत राजनीति से क्या होता है यह 70 वर्षों से देश ने देखा ही है ऐसे में कौन है जो समस्याओं का हल निकाल पाने में सक्षम है और वो चेहरा कौन है किसकी नीति से बिहार में विकास होगा और हुआ है यह आंकलन करने का वक्त है।
लालू की पार्टी की नीति से राज्य पहले ही बहुत पीछे जा चुका है ,कांग्रेस पार्टी का बुरा हाल पहले से ही है ना कोई अच्छा नेता है ना ही किसी के पास कोई उस तरह का जनाधार है और ना ही कोई बिहार के लिए ठोस योजना।
लोजपा हमेशा की तरह रक्षात्मक रुख ही अपनाएंगे उनका खेल चुनाव परिणाम के आने के बाद ही आता है इसलिए इस विकल्प से भी लोगों को एक ठोस आधार नहीं मिलता।
भाजपा और जदयू में बड़े चेहरे हैं जो दोनो मिलकर एक बड़ी शक्ति बन जाते हैं और सभी समीकरण को तोड़ देते हैं। नीतीश की छवि आज भी उतनी बुरी नहीं है हालांकि पिछले चुनाव में अपनी गलती से जो राजद को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में भूमिका निभाई, भले ही सरकार किसी की हो सबसे ज्यादा विधायक राजद के ही हैं।
वैसे इस बार चुनाव के बाद कोई नया समीकरण भी देखने को मिल सकता है। नीतीश से जनता का मोह भंग हो चुका है जैसे राजद से मोह भंग हुआ था।
गौर करने वाली बात ये है कि बिहार ने कांग्रेस, राजद, जदयू के मुखमंत्रियों को देखा है पर ये सभी दल नकारा ही साबित हुए हैं। बीजेपी को अलग चुनाव लडना चाहिए था लोजपा और कुछ छोटे दल से साथ तो जीत सकती थी।
कुर्सी कुमार भी चुनाव के बाद पलट कर कांग्रेस और बामी पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं।
मिला जुला के यही है कुर्सी बची रहेगी।
इसलिए ज्यादा कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं है बिहार का चुनाव जिसे बहुत बड़ा दंगल माना जा रहा है कुछ मीडिया हाउस, बाम पंथी और बॉलीवुड माफियाओं के लिए वह वास्तविक में बहुत ही सरल है।
अगर सीटों में थोड़ा सा भी इधर उधर हुआ तो नीतीश जी मुख्यमंत्री पद के लिए कहीं भी जा सकते हैं और उसके बाद कांग्रेस हो या राजद वही जनता को गुमराह करने वाला एक कहावत कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता कह के सरकार में सामिल होने का आनंद ले सकते हैं।
इसलिए इस चुनावी दंगल के बाद क्या नारा होगा यह भविष्य के गर्त में ही छिपा है।
“नीतीशे बिहार है या नीति से बिहार है”

जय बिहार।
जय बिहारी।

जन जन की बात
अमित कुमार के साथ।

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