चुनाव भी राजनीति का एक अहम हिस्सा हैं और यहाँ पर जो दल या उम्मीदवार जीतता है वही सफल माना जाता है क्योंकि हारने वाले सिवाय विरोध करने के और कुछ रह नहीं जाता. इस हिसाब से भाजपा तो बंगाल में हार ही गई है; हालांकि, इसमें दो राय नहीं है कि भाजपा का ना सिर्फ मत प्रतिशत बाधा है बल्कि सीटों कि संख्या भी तीन से बढ़कर 77 हो गई हैं. इस चुनाव में भाजपा सब कुछ हार गई है ऐसा कहना गलत होगा क्योंकि एक तरफ जहां यह सत्ता से कोसों दूर रह गई, अगले चुनावों में बढ़िया प्रर्दशन करने कि संभावना को भी बल प्रदान करते हैं चुनावी नतीज़े.

क्या खोया, क्या पाया

हालांकि भाजपा ने शुरू से ही 200 सीटों का लक्ष्य रखा था, खासकर 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली अपार सफलता के बाद शायद पार्टी को लगा था यह संभव भी है, परन्तु अब जब कि ये 100 भी नहीं पार कर पायी यह असमंजस अवश्य रहेगा कि 3 से 77 सीटों तक की यात्रा बड़ी उपलब्धि है या 200 के आंकड़े को पार करने के दावे पर असफलता. एक पार्टी के नज़रिये से तकरीबन 75 गुना ऊंची छलांग बहुत बड़ी उपलब्धि है परन्तु बंगाल का भाजपा मतदाता निश्चित तौर पर इस प्रदर्शन से पेशोपेस में पड़ गया है क्योंकि इसके कई सारे दुष्परिणाम उन्हें देखने पड़ रहे हैं. जानमाल के ख़तरे के अलावा अगले पांच साल उन्हें तृणमूल कांग्रेस के आतंक के साये में बिताने पड़ेगे.

वोट प्रतिशत का खेला

भाजपा की सीटों कि संख्या तो बढ़ी ही है, मत प्रतिशत में गज़ब कि वृद्धि दर्ज की गयी है. जहाँ एक तरफ भाजपा को कुल वोटों का तकरीबन 38 फीसद मिला, तृणमूल कांग्रेस को तकरीबन 48 फीसद मिला, यानि मात्र 10% वोटों का अंतर वो भी तब जब राज्य के तकरीबन सम्पूर्ण मुस्लिम वोट तृणमूल कांग्रेस को पड़ा है. इसके मायने ये भी हैं कि भाजपा को एक बहुत बड़े हिन्दू वर्ग ने मतदान किया, हालांकि ये पर्याप्त नहीं था पार्टी को सत्ता के निकट ले जाने के लिए.

क्या धीमा पड़ गया है मोदी मैजिक?

जब बंगाल में चुनाव चल रहे थे प्रशांत किशोर का एक ऑडियो लीक हुआ था जिसमे इस चुनावी रणनीतिकार ने माना था कि मोदी अप्रत्याशित रूप से पोपुलर हैं ना सिर्फ अन्य प्रदेशों में वरन बंगाल में भी. भाजपा को भी इस बात का अहसास था और इसीलिए पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को जमकर भुनाया और उनकी डेढ़ दर्जन से भी अधिक रैलियां आयोजित कराईं गयी. पीएम मोदी कि रैलियों में भारी भीड़ भी उमड़ी परन्तु इससे पहले कि चुनाव पूरे हो पाते कोरोना की दूसरी लहर आ गयी और आखिर के तीन चरणों के लिए मोदी कि कोई रैली नहीं हो पायी.

मोदी कि पॉपुलैरिटी कम नहीं हुई है इस बात की तस्दीक इस तथ्य से होती है कि 2019 के लोकसभा में जहाँ उन्हें पीएम बनाने का प्रश्न था, बंगाल के 40.6% मतदाताओं में वोट दिया था. वहीं पर विगत विधानसभा चुनावों में हालाँकि भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है, तब भी यह सिर्फ 38% ही है. ये तथ्य इस बात को इंगित करता है कि ममता के मुकाबले भाजपा ने किसी मुख्यमंत्री चेहरे को प्रयोजित नहीं किया था और ऐसे में फ्लोटिंग वोट्स ममता के खेमे में गए.

मुस्लिम वोट का मोह ले डूबा भाजपा को?

२०११ कि जनगणना के अनुसार बंगाल में मुस्लिम वोट निर्णायक स्थिति में है क्योंकि उनकी जनसँख्या २७% से ऊपर हो चुकी है. हालांकि भाजपा ने अनुमान लगाया था कि मुस्लिम वोट वामपंथी गठजोड़ और तृणमूल कांग्रेस के बीच बंट जायेगा, ऐसा वास्तव में हुआ नहीं. मुस्लिम मतदाताओं ने भांप लिया कि तृणमूल को छोड़ कर और कोई दल भाजपा से टक्कर नहीं ले पा रहा है और ऐसे में उन्होंने तृणमूल को चुना. वहीँ भाजपा भी मुस्लिम वोट कि आस लगाये बैठी रही और NRC और बांग्लादेशी घुसपैठियों पर ढुलमुल रवैया अपनाया और सख्त सन्देश देने से बचती रही जिसे हिन्दुओ के एक वर्ग ने नकारात्मक रूप से लिया. ये बात इस तथ्य पर आधारित है कि असम में बंगाल से ज्यादा मुस्लिम हैं परन्तु वहां पर भाजपा को बहुमत मिला है क्योंकि वहां पर भाजपा ने बिना किसी लाग लपेट के NRC और मुस्लिम घुसपैठियों के मुद्दों को उठाया था.

ध्यान देने वाली बात ये है कि एक ‘अनअपोलोजेटिक’ हिन्दू सुवेंदु अधिकारी ने ममता को नंदीग्राम में पटकनी दे दी. 

दूसरे दलों से आये नेताओं के भरोसे राजनीति

बंगाल विधानसभा चुनावों के पहले तृणमूल, वाम दलों से कई नेताओं ने भाजपा ज्वाइन किया था और ऐसा माहौल बनाया गया भाजपा द्वारा मानो तृणमूल का जहाज डूब रहा है, परन्तु अब ऐसा लग रहा है कि ये पैंतरा उल्टा पड़ गया. ये बात प्रशांत किशोर ने भी मानी है कि जो लोग भाजपा ज्वाइन कर रहे थे तृणमूल को छोड़कर वो अधिकतर ऐसे लोग थे जो या तो पार्टी से टिकट नहीं पाते या किसी तरह के आरोपों से घिरे हुए थे.

एक तथ्य जो ध्यान देने लायक है, भाजपा ने 107 ऐसे लोगो को टिकट दिया जो दूसरे दलों से आये था और उसमे से मात्र 31 ही जीत पाये. ऐसा ही एक प्रयोग दिल्ली के विधानसभा चुनावो में किया गया था जहाँ भाजपा ने आम आदमी पार्टी से आये कई नेताओं और पूर्व विधायकों को टिकट दिया पर रिजल्ट वही रहा, जो बंगाल में हुआ. ऐसे परिणाम इस बात को इंगित करते हैं कि ये आयात किये गए नेता भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ तारतम्य नहीं बिठा पाते. साथ ही, जब ऐसे नेताओं को भाजपा के पुराने और मेहनती कार्यकर्ताओ पर थोपा जाता है तब हालांकि वो शांत रहता है पर साथ नहीं रहता.

भाजपा के लिए आगे की राह

अब जबकि चुनाव ख़त्म हो गए हैं, नई सरकार ने शपथ ले लिया है, भाजपा को अगले चुनावो के लिए तैयारी के अलावा कई और कार्य करने हैं. सबसे बड़ा चैलेन्ज ये है पार्टी के सामने कि वो कैसे उन 38% मतदाताओं कि रक्षा करे जो तृणमूल के आतंक से ग्रसित हो रहे हैं. हालाँकि लोकतंत्र में बहुमत कि संख्या वाला ही सरकार बनाता है, 38% लोग बहुत बड़ी संख्या होते हैं. क्या सिर्फ इसलिए उन्हें दबाया जाये, मारा जाये क्योंकि उनके दल कि सरकार नहीं बन पायी, गलत है.

भाजपा इसी 38% वोट से आगे सरकार बना भी सकती है, क्योंकि ये अपने आप में बहुत बड़ा नंबर है. इस मत प्रतिशत से केंद्र में सरकार चला रही है भाजपा. सबसे बड़ा चैलेन्ज ये है कैसे इस 38% को साथ रखा जाये और उनमे विश्वास जगाया जाये कि भले ही इस बार सत्ता तक नहीं पहुंचे, अगली बार हमारी बारी है. 

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