कभी आपने सोचा है कि तमाम मुद्दों पर ताकतवर दिखती हुई सरकार अतिक्रमण हटाने के दौरान कोर्ट में आखिरकार हमेशा क्यों हार जाती है। भारत के टुकड़े टुकड़े करने वाले नारों के समर्थक आरोपी की जमानत हो या संसद पर हमले के मास्टरमाइंड की फांसी की तारीख हर जगह सरकार दबती हुई ही दिखाई देती है आखिर क्यों?
दिल्ली की सड़कों पर जुलूस के ऊपर हुई पत्थरबाजी, अलवर के टूटते मन्दिर , जहांगीरपुरी में अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर को लगाना और बुलडोजर को रोकने के लिए न्यायालय का त्वरित हस्तक्षेप आदि पर जब निगाह डालते हैं तो ये बातें और भी ज्यादा प्रत्यक्ष हो उठती हैं।
इन्हीं चिंतनीय घटनाओं के आलोक में मुझे अपना एक अनुभव याद आता है कि पटना के अपट्रॉन एसीएल पटना वेस्ट सेंटर से 2 साल का कंप्यूटर डिप्लोमा कोर्स करने के लिए मैंने नामांकन करवाया था और कंप्यूटर सेंटर ने सरकारी तंत्र की तरह 2 साल के कोर्स को 4 साल तक खींचा और आखिर में जैसे तैसे करके सर्टिफिकेट की खानापूर्ति कर दी गई। अंततः मैंने पटना के उपभोक्ता फोरम में इसकी शिकायत की। शिकायत करने से पहले सेंटर के प्रमुख से मेरी काफी बातचीत हुई पर कोई संतोषजनक उत्तर ना पाने के बाद मैंने केस दाखिल किया और लगभग 10 या 15 तारीखों के बाद यह फैसला आया कि शिक्षा का विषय उपभोक्ता मामलों में नहीं आता है इसलिए इस केस को खारिज किया जाता है। यह बात सच भी है पर वह जिक्र वास्तव में सरकारी संगठनों के लिए है निजी कोचिंग संस्थानों के लिए नहीं । यह बात मुझे पता थी परंतु उससे ऊपर वाले उपभोक्ता फोरम में केस करने के लिए मेरे पास मौका भी था और दस्तूर भी था लेकिन जो चीज नहीं थी वह थी आर्थिक ताकत और मैंने आगे बढ़ने के इंकार कर दिया। यह तो मेरी बात थी पर मैं ये केस हारा हीं क्यों?
जब अपनी हार को मैं विश्लेषण करता हूं तो यह पाता हूं कि मैं अपना केस खुद लड़ता था और जज के सामने केस प्रस्तुत करने वाले क्लर्क को 10 या ₹15 रुपये देकर अगली तारीख लेता था जबकि जिस पर हम ने कस किया था वह व्यक्ति एक अमीर आदमी था और उसने पटना हाई कोर्ट से एक नामी वकील को हायर किया था जो अपने 2 असिस्टेंट वकीलों के साथ तारीख पर आया करता था। मेरे द्वारा दी गई कुल भ्रष्टाचार की राशि लगभग ₹200 थी जबकि हमारे प्रतिवादी के द्वारा कम से कम भी तो ₹50000 वकील को दिया गया। और उस उपभोक्ता फोरम ने मेरी बात इसलिए नहीं सुनी क्योंकि मैंने अपनी दलील सूची बनाकर नहीं रखी साथ हीं मेरे पास वकील रखने की औकात भी नहीं थी। कोर्ट में केस कैसे रखना चाहिए ये जज तय करते हैं और कोर्ट भी वकील के हक में फैसला सुनाती है । इसीलिए मैं केस हार चुका हूंँ और इसी आधार पर यह कह सकता हूं कि सरकार भी अपना केस क्यूं हार जाती है। सरकार के द्वारा तय किए गए सरकारी वकील या तो काबिल नहीं होते हैं या अपनी काबिलियत के दम पर दूसरे पक्ष के या प्रतिवादी के वकील से दोयम दर्जे का बहस करने के लिए अधिक धन प्राप्त करते हैं। और इतिहास साक्षी है कि भारत सरकार ने अपने विरुद्ध की गई एक भी याचिका जीती हीं नहीं है । और उसका कारण यह है कि न्यायाधीश हर मामले पर वकीलों के तर्क और एविडेंस को ध्यान देते हुए निर्णय लगभग सरकार के विरुद्ध हीं सुनाता है।
अदालतें दलील को नहीं, वकील को सुनती हैं , सच को नहीं , साक्ष्य को देखती है और साक्ष्य वही जो वकील बनाए।
सुप्रीम कोर्ट में निर्भया के रेपिस्ट के केस को जिन वकीलों ने लड़ा उनकी फीस उन अपराधियों की सात पुस्तें भी कमाकर नहीं दे सकती हैं। फिर उतने भारी भरकम फीस वाले वकीलों को उन दुर्दांत अपराधियों के लिए किसने हायर किया और किसने उसकी फीस दी। आम आदमी को तो एक एफिडेविट बनवाना मँहगा लगता है। जाहिर सी बात है कि हर कालखंड में सरकार विरोधी विचारधाराएं सक्रिय रहती हैं जो गेम चेंजर हुआ करती है और हर राजनीतिक दल को ऐसे गेम चेंजर की जरूरत होती है क्योंकि उन्हें भी चुनाव जीतना है। वही विचारधारा इन वकीलों को हायर करती है और हर कालखंड के दौरान उस समकालीन सरकार के निर्णयों के खिलाफ आदेश पारित करवाने के लिए उपयुक्त अरेंजमेंट भी किया करती है।
परंतु देश हित के मुद्दों पर सरकारी कदम के खिलाफ न्यायालयों में आदेश पारित होना यह बताता है कि सरकार खुद ही अपना पक्ष कमजोर करके इन जख्मों को हरा रखना चाहती है ताकि देर सवेर सत्ता में आने के लिए इन्हीं हरे जख्मों पर सियासी मरहम लगाकर फिर से सत्ता की कुर्सी हासिल की जाए।
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