यह शीर्षक बुद्धिजीवियों, प्रगतिशीलों और साम्यवादियों को दकियानूसी अधिनायकवादी, मनुवादी और पाषाणकालीन लग सकता है पर ये कथ्य अनुभूत साक्ष्यों और आँखों देखी घटनाओं का निचोड़ है किसी बुद्धिजीवी मस्तिष्क में उपजने वाला मुंगेरी लाल का हसीन सपना नहीं ।विवाह समाज रूपी समुच्चय का सबसे छोटे मूल घटक या अवयव परिवार का निर्माण करता है जो आगे चल कर अनेक समतुल्य अवयवों अर्थात् परिवारों के उत्पत्ति का कारण बनता है। विवाह हर संप्रदाय में यौन तुष्टि का वैधानिक मार्ग सह उत्तराधिकारी अंशज संतान प्राप्त करने का सहज और प्राकृतिक माध्यम है। समावर्तन संस्कार के बाद विवाह संस्कार सनातन धर्म का पंद्रहवॉं व आखिरी स्वानुभूत संस्कार है। सोलहवॉं और आखिरी संस्कार तो सर्वविदित है, न कोई करवाना चाहता है न खुद करवा सकता है पर है अवश्यंभावी।विवाह के लिए ” समाना शोभते प्रीतिः ” का नियम सनातन धर्म में मान्य है और इसके लिए जाति सबसे बेहतर आधार माना गया और आज तक है भी। अब जाति पर दो बातें. … कि भारतीय जाति व्यवस्था विश्व की सर्वाधिक पेशेवर सामाजिक संरचना है जो हर हाथ को काम और हर मानव को जीने का सम्मान प्रदान करने का माद्दा रखती है। कृष्ण ने गीता में माना है कि ” चातुर्वण्यम् मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः ” अर्थात् चारों वर्णों की सृष्टि मैं ने गुण और कर्म के आधार पर की। यही कारण है कि पहले के समाज में आज जैसी अर्थ आधारित चमक दमक भले हीं अनुपस्थित थी पर बेरोजगारी जैसा शब्द भी नहीं था। जाति व्यक्ति को समाज में एक भूमिका प्रदान करती है कुछ करने की और सम्मान पूर्वक जीविकोपार्जन की। ज्ञानार्जन व अध्यापन , शौर्य और दैहिक शक्ति आधारित, व्यवसाय व कृषि और अंत में सेवा कर्म यानी सर्विस सेक्टर , ये चार हीं आज भी आजीविका के आधार हैं । आज भी नाई, सुनार, लुहार्, कुम्हार , धोबी , हलवाई, माली, जुलाहा, बढ़ई, डोम , चमार, पासी, कोइरी, कुँजड़ा, लहेरी आदि जातियाँ अपने कौशल से ज्यादा पहचानी जा रही हैं । मजे की बात ये है कि लहेरी , कुँजड़ा और पमरिया समुदाय धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो कभी सनातनी थे पर उनके कौशल का भी हमारी वर्ण व्यवस्था में उचित समावेश था दैनन्दिन जीवन में , विवाह और संतान के जन्म की स्थिति में इनसबकी सेवाओं या उत्पादित सामग्री की जरूरत लगभग अनिवार्य बनी रही और आज भी है। सबके पास जन्म के साथ साथ अपना एक खानदानी आजीविका उपलब्ध थी जो समाजोपयोगी तथा समाज के कल्याण हेतु अनिवार्य भी थी। हर जाति के लोग समाज में अपनी भूमिका का सहर्ष निर्वाह करते थे इसीलिए हर बाप अपनी बेटी की शादी अपनी जाति में अनिवार्यतः करवाकर उसके सुरक्षित भविष्य की नींव रखता था और समाज के सतरंगी ताने बाने को भी अक्षुण्ण रखता था जो लगभग मुगल काल के अवसान तक कायम रही पर अंग्रेजी शासन और राजा राम मोहनराय की अनुशंसा के साथ लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति ने सामाजिक विप्लव का सूत्रपात कर दिया। और वह तूफान समता के बदले समानता की चाहत से पैदा हुआ और आजीविका के माध्यमों में अतिक्रमण से लेकर विवाह हेतु जाति की मर्यादा तोड़ने के आत्मघाती कदमों तक बढ़ चला। ऐसा नहीं है कि पूर्व इतिहास में अतर्जातीय जाति विवाह नहीं हुए पर उस समय यह प्रक्रिया अनुलोम प्रतिलोम विवाह नियम के नाम से प्रचलित थे जिनमें निस्पृह, निरहंकारी और ज्ञानी ऋषियों की आज्ञा से उच्च वर्ण की कन्या का विवाह निम्न वर्ण के वर के साथ हो सकता था और उनकी संतति का वर्ण सामान्यतया पिता का हीं रहता था और यह विवाह था प्रतिलोम विवाह जबकि अगर वर का वर्ण कन्या से उच्च हो तो विवाह अनुलोम विवाह कहलाता था जिसमें पिता का वर्ण हीं संतान को मिलता था पर किसी आर्ष अनुमति की अनिवार्यता नहीं थी। आप शकुंतला – दुष्यंत , ययाति शर्मिष्ठा और देवयानी , भीम हिडिम्बा और अंत में अनुमति के वगैर प्रतिलोम विवाह न होने का एक उदाहरण पुरु की पुत्री और चंद्रगुप्त के असफल प्रेम को मान सकते हैं यद्यपि यह एक काल्पनिक कथा मानी जा सकती है पर चाणक्य की अनुमति से सेल्यूकस की पुत्री से चंद्रगुप्त से संभव हो गई ।खैर अब लौटते हैं अपनी पटरी पर कि अन्तर्जातीय विवाह , भारतीय सामाजिक ढाँचे का क्षय रोग कैसे?तो वजह ये है कि आभिजात्य वर्ग को छोड़ दें अंतर्जातीय विवाह दिल लगी से शुरू हो कर तलाक जैसी दिल्लगी तक की दूरी हीं तय कर पाती है और उसकी वजह है जाति का बंधन तोड़ कर होने वाली शादियाँ अक्सर वर वधू के माता पिता के अरमानों को ढहाते हुए अंततः परंपराओं को भी धूलि धूसरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं । अंतर्जातीय विवाह लगभग प्रेम के अंधत्व का परिणाम है। मेरा दावा है कि रेड लाइट एरिया में भागकर लाई गई बुलबुलों में से अधिकांश माता पिता की मर्जी के खिलाफ भागकर शादी के जाल में फँसी होती हैं । शायद हीं आपने सुना हो कि अंतःजातीय विवाह के बाद किसी स्त्री के साथ ऐसा हुआ हो क्यों कि सामाजिक सहमति से संपन्न विवाह के बाद ऐसी किसी घटना से उस दोषी खानदान का बहिष्कार अपने समाज से पल भर में हो जाएगा और भविष्य में उस परिवार के बच्चों का विवाह होना नामुमकिन हो जाएगा । पर अंतर्जातीय विवाह में ऐसे सामूहिक दायित्व का अभाव होता है और न वर और न वधू के अधिकारों की रक्षा के लिए दोनों में से कोई समाज अपने को उत्तरदायी मानता है। नतीजा आपके सामने है। आप सोचिए कि अगर किसी मुसलमान की शादी सनातन की कन्या से हो जाए तो तलाक की स्थिति में क्या वधू पक्ष हक ए मेहर की रकम स्वीकार कर पाएगा जिस संप्रदाय में निकाह एक संस्कार न होकर वधू के लिए हक ए मेहर और वर के लिए डिस्पोजेबल कप में काफी से ज्यादा कुछ नहीं । स्वजातीय विवाह के न होने से एक एक्सीडेण्टल हिंदू के डीएनए का एक कतरा अपने पितामह की कब्र पर वगैर एक दिया या अगरबत्ती जलाए कभी कौल वंशीय बनकर दत्तात्रेय गोत्र में घुसा जा रहा है तो कभी जनेऊ धारू बना फिरता है ( वजरिए सुरजेवाला साहिब )। सत्ता की मलाई के लिए उसके इर्द गिर्द चमचों की फौज बहुमत की जुहार तो हर पल लगा रही है पर बहू-मत दो , इस पर अघोषित नारा जैसे लगाए बैठी है।गीता के पहले अध्याय में युद्ध से विमुख होने के तर्कों में अर्जुन का सबसे जबरदस्त तर्क यही रहा कि युद्धोपरान्त विधवाओं के पथभ्रष्ट होने से समाज वर्णसंकरों से भर जाएगा और पिण्डोदक क्रियाएँ लुप्त हो जाएँगीं । और पिंडोदक क्रिया का नाश का मतलब पूर्वजों का विस्मरण , अतीत का अपमान जिसके परिणामस्वरूप समाज का ताना बाना बिखर जाएगा।अर्जुन का विषाद तो युद्ध की विभीषिका को लेकर था पर आज सभ्यता के बाक्सिंग रिंग में प्रगतिशील दिखने की चाह ने दैहिक पिपाशा के बल पर समाज को वर्ण संकरों से पाटने का मुहिम छेड़ रखा है।वर्तमान में रौशन परिवार , सलीम खान के घर मे तलाक की रुसवाइयाँ ये बताने के लिए काफी हैं पिता को सम्मान देने वाले इन दोनों खानदानों में संबंध विच्छेद का ग्रहण अंतर्जातीय विवाह के इस युवमन के नवाचार को हतोत्साहित करने के लिए काफी है। पर एक काल्पनिक स्थिति सोचिए कि इन घरानों की बहुएँ परस्पर बदल गई होतीं तो कम से कम एक परिवार तो संकट में न होता ।अब परंपरा के ध्वंश के अपने दावे की पुष्टि में लेखक के पास बस एक तर्क है कि अगर अपने सफल अंतर्जातीय विवाह के बाद अगर बाप अपनी बेटी को डेटिंग के चलन्त स्वयंवर में दक्ष न बना पाए तो वह अपनी बेटी का रिश्ता लेकर किन किन दरों और दीवारों पर माथा झुकाएगा, रगड़ेगा और पटकेगा फिर भी क्या रिश्ता पक्का कर पाएगा ? और एक बात कि उस घर के कँवारों के भी रिश्ते नहीं आएँगे।सबरीमला और सिंगणापुर में प्रवेशाधिकार या जेंडर इक्वालिटी का तमगा या #मीटू अभियान का महान विजय लेकर वह बालिका क्या करेगी जिनके जनक प्रेम का रेस तो जीत गए पर सामाजिक ताने बाने का अपना रेसिंग ट्रैक रेस के आखिर तक बरकरार न रख पाए पर वह बालिका भारतीय परंपरा के अनुरूप पिता की इच्छानुसार चयनित वर से विवाह को कृत संकल्प हो तो वह बाप क्या कहेगा ……. क्या करेगा। क्या कह पाएगा ….. जा सिमरन जा , फँसा ले एक जवान लड़का और जी ले अपनी जिंदगी ।#स्वधर्मे_निधनम्_श्रेयः
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