वर्तमान में प्रकाशित एक विज्ञापन में यह बात कही गयी, कि“कन्या कोई धन नहीं है, अतः उस का दान किया जाना अनुचित होने के कारण कन्यादान की विधि ही गलत है” । इसकी प्रतिक्रिया के रूप में कुछ हिंदुओं ने आक्रोश जताया एवं अन्य कुछ लोगों ने कन्यादान की आलोचना का उत्तर देते हुए “हमारे यहाँ स्वयंवर की प्रक्रिया थी, कन्यादान की प्रक्रिया ही नहीं थी” जैसी बातों को कहा।
इंटरनेट पर चल रही इस चर्चा की गर्माहट में एक अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त योग गुरु श्री रविशंकर जी का पुराना वीडियो साझा होने लगा, जिस में वे कहते हैं कि कन्यादान तो मध्यकालीन विकृति है और इस का उल्लेख किसी वेद में नहीं है । वेद में कन्यादान का कोई मन्त्र ही नहीं है । अतः “कन्यादान” शब्द को एवं कन्यादान के विधि-विधान (कल्प) को विवाह की प्रक्रिया से हटा देना चाहिए ।
इस के अतिरिक्त Republic Tv पर 21 सितंबर 2021 को दिए इंटरव्यू में उन्होने उसी बात को फिर से दोहराया ।
इस के बाद कई श्रद्धावान हिंदुओं के मन में यह संशय उत्पन्न होगया कि, “क्या वास्तव में कन्यादान का उल्लेख वेद में नहीं ? क्या यह आचरण अवैदिक है ? शास्त्रों में भी इस का उल्लेख नहीं ? ”
ऐसे संशय ग्रस्त कुछ व्यक्ति मुझ से प्रश्न किए एवं मेरे परिचित वैदिक विद्वानों ने बताया, कि इसी प्रकार कई श्रद्धालु उन से भी प्रश्न पूछने लगे हैं ।
ऐसे श्रद्धालुओं के इन संशयों के निवारण के लिए वेद एवं अन्य शास्त्रों से प्रमाण प्रस्तुत हैं ।
श्रुति में उल्लेख ढूँढने से पहले यह बात ध्यान में रखनी होगी, कि श्रुति कोई विधि-निषेधात्मक मार्गदर्शिका (Standard Operating procedure) नहीं है, अपितु देवताओं की स्तुति एवं प्रार्थना रूपी कविताओं (ऋचाओं) का संकलन है ।
ऐसी स्तुति रूपी ऋचाओं में “क्या करे या क्या नहीं करें” जैसे आदेशात्मक विधि-निषेध नहीं होते हैं। अतः, वेद से ध्वनित अर्थ को स्वीकारना होगा ।
उदाहरण के लिए :- “राजा जनक ने सीता का विवाह को श्रीराम के साथ विधिपूर्वक किया”
इस वाक्य में “कन्या-दान” का उल्लेख नहीं है। किंतु “विधिपूर्वक” शब्द है। राजा जनक याज्ञवल्क्य के शिष्य होने के कारण, एवं शुक्लयजुर्वेदी होने के कारण उस ने शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध “पारस्कर गृह्यसूत्र” के अनुसार कन्यादान और उस के बाद पाणिग्रहण आदि विधि किया ही होगा । यह implied है।
इसी प्रकार निम्न में दिए हुए मंत्रों में ध्वनित होनेवाले तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए ।
ऋग्वेद आश्वालायन संहिता के दशम मण्डल के तीसरे अध्याय के अंतिम सूक्त में 47 मन्त्र हैं, जिनको ऋग्वेदीय विवाह में आशीर्वचन के रूप में पठन किया जाता है । उस पूरे सूक्त को नहीं, अपितु दो तीन मन्त्रोंं (ऋचाओं) को ही सायण भाष्य के साथ कन्यादान के प्रमाण के रूप में देखेंगे ।
सोमो वधूयु: अभवत् अश्विनास्तां उभा वरा ।
सूर्यां यत् पत्ये शंसन्तीं मनसा सविता अददात् । । – ऋग्वेद – 10- 07 – 85 – 9
(दान के क्रियापद को मन्त्र में underline किया है)
इस ऋचा पर सायणाचार्य का भाष्य :
सोमो वधूयुः वधुकामो अभवत् । तस्मिन् समये अश्विना, अश्विनौ, उभा, उभौ वरा-वरौ आस्तां, अभूताम् । यत् तदा सूर्यां पत्ये शंसन्तीं पतिं कामयमानाम् । पर्याप्त यौवनां इत्यर्थः । सूर्यां मनसा सहिताय सोमाय वराय सविता तत्पिता अददात् । प्रादात् दित्सां चकार ।
हिन्दी अनुवाद :- सोम वधू का इच्छुक हुआ । उस समय (दोनों) अश्विनी देवता वर-अवर के रूप में थे । पति को प्राप्त करने की कामना से युक्त (अथवा विवाह योग्य) सूर्या (नामक कन्या को, उस के पिता) सविता ने सोम को (मन के अधिपति को) प्रदान किया ।
इस मन्त्र में स्थित “अददात्” शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है ।
अब उसी सूक्त से एक और मन्त्र देखेंगे –
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिः मह्यं त्वा अदुः गार्हपत्याय देवाः ।। – ऋग्वेद – 10- 07 – 85 – 36
(दान के क्रियापद को मन्त्र में underline किया है)
सायणाचार्य का भाष्य :
हे वधु । तव हस्तमहं गृभ्णामि । गृह्णामि । किमर्थं । सौभगत्वाय । सौभाग्याय । मया पत्या त्वं जरदष्टिः । प्राप्तवार्धक्यासः भवसि । भगः अर्यमा सविता पुरन्धिः पूषा एते देवाः त्वां त्वा मह्यं अददुः । दत्तवन्तः । किमर्थं । गार्हपत्याय । यथाहं गृहपतिः स्यां इति ।
हिन्दी अनुवाद :- हे वधू । मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ (हाथ पकड़ता हूँ) । क्यों ? । सौभाग्य की प्राप्ति के लिए । मेरे साथ रहते हुए ही तुम वृद्धावस्था भी प्राप्त कर जाओगी । भग, अर्यमा, सविता और पुरन्धि (पूषा) नामक देवताओं ने तुम्हें मुझे दान दिया है । क्यों ? । गार्हपत्य के निर्वहन के लिए । जिस का गृहपति मैं हूँ ।
अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्तिनो वरेयम् ।
समर्यमा सं भगो मे निनीयात् सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवाः ।। – ऋग्वेद – 10- 07 – 85 – 23
हिन्दी अनुवाद :- हमारे सखा जब “वरेय” (कन्या के लिए की हुई प्रार्थना को स्वीकार कर वर को चुनने वाले कन्या के पिता) से मिलने (कन्या मांगने) के लिए जाएंगे, तब उनके मार्ग कंटक रहित हों एवं वक्र न हो । देव अर्यमा सही मार्ग दिखाएं । भग (नामक देवता) सुचारु रूप से ले जाएं । हे देवताओं ! “जास्पत्य” अर्थात वैवाहिक जीवन सुयम (सुदृढ़) हो ।
उपर्युक्त श्री रविशंकर जी के कथन में उन्होने यह कहा है, कि स्मृतियों में भी केवल पाणिग्रहण का उल्लेख है, कन्यादान का नहीं। इस विषय में कुछ शास्त्रीय प्रमाणों पर विश्वास करनेवाले हिंदुओं की श्रद्धा पर आघात होने से उन के मन में संशय उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार से आहत व्यक्तियों के लिए निम्न में स्मृति प्रमाण प्रस्तुत हैं ।
१. शिक्षा, २. व्याकरण, ३. छंद, ४. निरुक्त, ५. ज्योतिष ६. कल्प- इन छः शास्त्रों को वेदाङ्ग अथवा वेद के छः अङ्ग कहते हैं । छठे अङ्ग “कल्प” में श्रौत-कल्प, गृह्य-कल्प अदि विभाग हैं । केवल इतना ही नहीं, अलग अलग शाखाओं के अलग-अलग शुल्ब सूत्र, गृह्य सूत्र आदि विद्यमान हैं ।
कई ऋषियों द्वारा संग्रहित गृह्यसूत्रों में कन्यादान के विधि-विधान (कल्प) उपलब्ध हैं। तथापि इस लेख में ऋग्वेद के मन्त्रों के प्रमाण प्रस्तुत होने के कारण, ऋग्वेद से सम्बन्धित आश्वालायन गृह्य सूत्र को ही देखेंगे।
बुद्धिमते कन्यां प्रयच्छेत् । -आश्वालयन गृह्यसूत्र – अध्याय 1 – कण्डिका – 5 (वरलक्षण प्रकरण)
हिन्दी अनुवाद :- बुद्धिमान को कन्या देनी चाहिए अथवा प्रदान करनी चाहिए ।
दान-यच्छ (देना) धातु के विध्यर्थक लिङ् लकार में “यच्छेत्” का अर्थ विधि अर्थात आदेशात्मक है।
“प्र” उपसर्ग जुडने से उस में और विशेष बल जुड़ जाता है । (प्र उपसर्ग = (आधिक्य) प्रकोप, प्रसारित, प्रबल)
अलङ्कृत्य कन्यां उदकपूर्वां दद्यात् एष ब्राह्मो विवाहः। -आश्वालयन गृह्यसूत्र – अध्याय 1 – कण्डिका – 6 (विवाह प्रकरण)
हिन्दी अनुवाद :- कन्या को अलंकृतकर जल के साथ (वर को) देना चाहिए जो ब्राह्म विवाह कहलाता है ।
इस प्रकार वेद की संहिता एवं वेद के छटा अंग कल्प (गृह्य कल्प) में कन्यादान के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं ।
वेद एवं वेदांग के अतिरिक्त अनेक स्मृतियों में भी कन्यादान स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। स्मृतियों में सब से प्राचीन एवं अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ के रूप में विख्यात मनुस्मृति में “कन्यादान” शब्द के उल्लेख को देखेंगे ।
मनुस्मृति, अध्याय 3
(पंडित गिरिराज प्रसाद द्विवेदी द्वारा 1917 में लखनऊ से प्रकाशित हिन्दी भाषांतर के साथ)
चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चैह हिताहितान् ।अष्टाविमान् समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत ॥२०॥
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽसुरः । गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥२१॥
यो यस्य धर्म्यो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ। तद्वः सर्वं प्रवक्ष्यामि प्रसवे च गुणागुणान् ॥२२॥
हिन्दी अर्थ : चारों वर्णों का लोक और परलोक में हित अहित करनेवाला, आठ प्रकार का विवाह होता है – ब्राह्म-विवाह, दैव-विवाह, आर्ष-विवाह, प्राजापत्य-विवाह, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाह । जिस वर्ण का जो विवाह धर्मानुकूल है, और जो गुण-दोष जिसमें हैं, और उनसे पैदा संतानों में जो है, उनको कहता हूँ ।
षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोऽवरान् । विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धर्म्यानराक्षसान् ॥२३॥
हिन्दी अर्थ : ब्राह्मण के लिए पहले से क्रमशः छ: विवाह धर्म हैं । अंत के चार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए धर्म हैं, पर राक्षस विवाह किसी के लिए अच्छा नहीं है ।
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् । आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥२७॥
हिन्दी अर्थ : वेदज्ञ और सुशील वर को बुलाकर उसका पूजन सत्कार करके कन्यादान को ब्राह्म विवाह कहते हैं ।
यज्ञे तु वितते सम्यग् ऋत्विजे कर्म कुर्वते । अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ॥२८॥
हिन्दी अर्थ : बड़े यज्ञ में ऋत्विक ब्राह्मण को वस्त्र-आभूषण से शोभित कन्या का दान “दैव विवाह” कहा जाता है ।
एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः । कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते ॥२९॥
हिन्दी अर्थ : एक-एक अथवा दो-दो गौ-बैल (जोड़े) को यज्ञ के लिए वर से (दान में) लेकर जो कन्यादान होता है, वह आर्ष विवाह है ।
सहौभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च । कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ॥३०॥
हिन्दी अर्थ : “तुम दोनों साथ धर्माचरण करो” ऐसा कहकर वर-कन्या का पूजन करके जो कन्यादान होता है, उस को प्राजापत्य विवाह कहते हैं ।
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः । कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥३१॥
हिन्दी अर्थ : वर के माता-पिता को एवं कन्या को यथाशक्ति धन (दहेज) देकर इच्छापूर्वक कन्यादान होता है, उस को असुर विवाह कहते हैं ।
इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः ॥३२॥
हिन्दी अर्थ : कन्या और वर की इच्छा से जो संयोग होता है, वह गांधर्व विवाह है, जिस में परस्पर कामना ही मुख्य होता है ।
यद्यपि विशेष परिस्थितियों में राक्षस विवाह क्षत्रिय के लिए धर्म ही है, तथापि राक्षस और पैशाच सभी वर्णों के लिए निंद्य होने के कारण उन का विवरण अनावश्यक है ।
गांधर्व, राक्षस एवं पैशाच इन तीनों के अतिरिक्त अन्य पांचों प्रकारों के विवाह के सन्दर्भ में मनु ने कन्यादान शब्द का प्रयोग किया है । ऋग्वेद संहिता में तो सांकेतिक रूप से प्रमाण तो है ही ।
अब मनु-स्मृति को प्रमाण मानना चाहिए या नहीं, कन्या कोई वस्तु है क्या ? दान करना कितना सही या गलत है? – इत्यादि चर्चा यहाँ पर अनुचित है । इस विषय में स्पष्टता की अपेक्षा रखने वाले जैमिनी महर्षि द्वारा लिखित मीमांसा दर्शन के अंतर्गत “स्मृत्यधिकरण” का अध्ययन करें ।
उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों को ही अस्वीकार करने वालों के लिए वर्ण एवं आश्रम की वैधता पर अलग से चर्चा करनी होगी ।
इस लेख को “कन्यादान तो शास्त्रों में है ही नहीं” जैसी घोषणा से उत्पन्न संशय के निवारण के लिए सीमित रखते हुए वेद, वेदांग एवं प्राचीन मनुस्मृति के प्रमाणों को हम ने देखा ।
श्री रविशंकर जी ने और एक बात को कहा है, कि “केवल पाणिग्रहण शास्त्रों में है, किन्तु कन्यादान नहीं”
इस बात में दो दोष है । एक तो वह तथ्यहीन है, जो उपरोक्त श्रुति-स्मृति के प्रमाण से सिद्ध हुआ है । दूसरा दोष यह है, कि यह बात युक्तिहीन भी है ।
इस की युक्ति यह है, कि पाणिग्रहण से पूर्व कन्यादान होता है। माता पिता द्वारा विवाह का संकल्प, वर पूजन एवं कन्यादान किया जाता है। इस प्रकार कन्यापितृ से प्राप्त कन्या का हाथ पकडते हुए वर पाणिग्रहण का मंत्र पठन करता है। पिता के अनुमति के बिना किसी कन्या के हाथ को यूं ही नहीं पकड़ा जाता।
इस को व्यावहारिक उदाहरण से देखेंगे। कोई व्यक्ति कहता है, कि “मैं विमान में बैठा हूँ” – इस वाक्य में उद्धृत नहीं होने के बावजूद, हमें यह समझना होगा, कि वह व्यक्ति Check-In, Security Check आदि प्रक्रिया से गुजरकर ही विमान में बैठा है। सुरक्षा जाँच आदि प्रक्रिया के बिना विमान में प्रवेश नहीं मिलता है। उसी प्रकार पाणिग्रहण यदि हुआ है, तो उस के पूर्वाङ्ग के रूप में कन्यादान भी अवश्य हुआ है।
लेखक : दत्तराज देशपांडे
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