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वॉशिंगटन (अमेरिका): पिछले साल धारा ३७० के निरसन की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में ८ अगस्त २०२० को अमेरिका में प्रवासी कश्मीरी हिन्दु समुदाय ने एक जालगत संगोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें कश्मीरी बुद्धिजीवियों के संग विस्थापित तिब्बती प्रतिनिधि, स्वतंत्र विश्लेषक और इतिहासकारों ने भाग लिया। संगोष्ठी में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख की समस्या को एशिया के भूराजनैतिक परिप्रेक्ष्य में समझाया गया। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंतरजाल के माध्यम से कश्मीरी शरणार्थीयों द्वारा आयोजित संगोष्ठीयों की शृंखला में यह एक था [यूट्यूब पर देखें]।
डॉ मोहन सपरू संगोष्ठी के नियोजक और सभा के पंच थे। उन्होंने स्मार दिलाया कि बीते दशकों में कश्मीरी हिन्दु, सिक्ख और बौद्धों पर मचा आतंक, संहार, विस्थापन और बलात्कार कोई विरल और नई बात नहीं, प्रत्युत सन् १३२३ ईसवी से चलती आ रही जातिसंहार के तांते की सातवीं कड़ी है। उन्होंने सुझाया कि बुद्धिजीवियों को चाहिये कि वे अपने स्वप्निल चश्मे उतार कर विश्व में दो प्रचंड प्रवृत्तियों का संज्ञान लें। पहला, वे आध्यात्मिक समुदाय जो अपने राद्धांत परिपाटी की आड़ में दूसरों को दबा-मिटाकर उनकी संपत्ति हड़पना चाहते हैं। दूसरा, वह सैद्धांतिक राष्ट्रवाद जो अपने संप्रभुत्व को बनाये रखने हेतु वही नीति अपनाती है, जिसका एशिया में सबसे बड़ा उदाहरण चीन है।
विमर्शकारों में पहला वक्ता भारतीय मूल के विख्यात अमेरिकीय दार्शनिक राजीव मल्होत्र थे। दूसरे वक्ता प्रसिद्ध तिब्बती नेता और विस्थापित तिब्बती संसद के सदस्य, दोरजी त्सेतेन थे। फिर जानेमाने फ़्रांसीय पत्रकार और इतिहासकार फ़्रांस्वा गोतिये ने संबोधन किया। पुरस्कृत कश्मीरी पत्रकार, आशा खोसा, जिसने १० साल कश्मीर विप्लव का निकट प्रतिवेदन किया, ने अपनी वृत्तांत सुनाई। प्रवासी कश्मीरी समुदाय के एक नेता, जीवन ज़ुतशी ने भी चर्चा में अपने टिप्पणी जोड़े।
वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि भारत की सौम्य शक्ति पर निर्भरता एक दुर्बल नीति है, यदि उसे उग्र नीति के साथ जोड़ा नहीं गया। विशेषकर चीन के साथ संबंध में यह स्पष्ट दीखाई देता है, क्योंकि बीते दशकों में यह जगज़ाहिर हो चुका है कि चीन अपने सैन्य और आर्थिक शक्ति के बूते पर एक व्यावहारिक नीति चलाती है। भरोसे और सद्भाव जैसे अमूर्त विचारों पर चीन का कोई आस्था या सम्मान नहीं। आजकल अमेरिका और भारत द्वारा चीन संबंधी वाणिज्य व्यापार को एक राजनैतिक हथियार के रूप में उपयोग लाये जाने पर राजीव मल्होत्र ने प्रसन्नता जतायी। परन्तु दूसरों के साथ स्वर मिलाते हुए उन्होने मोदी सरकार को आह्वान दिया कि वह तिब्बत की राजतांत्रिक अवस्था को चर्चा और विवाद का विषय घोषित करें, और भारत के वर्तमान स्थिति से पीछे हटें, जोकि तिब्बत पर चीन के अधिग्रहण को अप्रतिबंधित रूप से स्वीकारता है।
तिब्बत के प्रतिनिधि दोर्जी त्सेतेन ने तिब्बती महिला सत्याग्रहीयों के नेता आमा आदे को श्रद्धांजली अर्पित की, जो इस वर्ष स्वर्ग चल बसीं। भारत पलायन से पहले आमा आदे ने चीन के कालकोठरीयों मे २७ साल बिताये। उन्होंने बताया कि उनके कारावास में लगभग ३०० नारीयों में से केवल ४ जीवित निकले। अन्य सभी यातनाओं के कारण प्राण त्याग चुके थे। आमा आदे ने तिब्बती युवा को संघर्ष के लिये प्रेरणा दी। तिब्बत में चीन के अधिग्रहण के ७० वर्ष पूरे हो चुके हैं, पर वहां बसे नई पीढ़ी ने संघर्ष नहीं त्यागा। विद्रोह की एक नई लहर उठी है, जिसको देखते चीनी सशस्त्र बल कुछ पल ठिठक गये। २००९ से १५५ तिब्बतीयों ने आत्मदाह का भयानक कदम उठाकर अपने मन की आक्रोश को समस्त तिब्बती और तिब्बत-मित्र विश्व में पहुंचाया। दोर्जी ने कहा कि भारत और तिब्बत (जिसे संस्कृत में भोट-देश कहते हैं) का पुरातन संबंध है। कश्मीर और भोट के आध्यात्मिक परंपरा जुड़वे संस्कृति हैं। दोर्जी ने अनुरोध किया कि भारत सरकार को भोट की आक्रांत अवस्था का अभिज्ञान घोषित करनी चाहिये। चीन का वहां पैर जमाने का सीधा प्रभाव भारत के कश्मीर, लद्दाख (जिसमें पाकिस्तान-अधिकृत गिलगित-बल्तिस्थान भी है), अरुणाचल, सिक्किम आदि क्षेत्रों पर पड़ता है।
फ़्रांस्वा गोतिये ने बताया कि जब कश्मीर का उपद्रव आरंभ हुआ, तब वस्तुस्थिति को आँखों से देखने के बाद उनके मन में भरे भारत और कश्मीर के बारे में सारी मिथ्याएं दूर हो गयी, जोकि पाश्चात्य देशों में प्रचलित हैं। भारत के ही एक कोने में हिन्दुओं की दुर्दशा देखकर वह चौंक गये थे। उन्होंने विवरण दिये, कि बी.बी.सी के जानेमाने पत्रकार मार्क टली उन दिनों यह कुप्रचार फैला रहे थे कि कश्मीरी आतंकवाद में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं। ऐसे कई कुप्रचार आज भी प्रचलित हैं, और वार्ता-माध्यमों में सुधार की आवश्यकता है।
गोतिये के मतानुसार, वहां का आम मुस्लिम के मन में हिन्दुओं के प्रति घृणा थी और है, जिसका स्रोत मुख्यतः सांप्रदायिक ही है, राजनैतिक या सामाजिक नहीं। वहां की जनता के आर्थिक विकास के लिये भारत सरकार जितना भी जतन और भुगतान करें, यह तथ्य नहीं बदलेगा। उनहोंने महान् दार्शनिक श्री अरविंद का उल्लेख देते हुए सुझाव दिया कि भारतवर्ष का मज़हब के आधार पर हुए विभाजन को उलटने से ही यह कांटा निकाला जा सकेगा।
इस विषय पर श्रीमती आशा खोसा ने कुछ उपाख्यान सुनाये। उन्होंने वहां कश्मीरी हिंदुओं को आम मुस्लिम लोगों से डरते देखा, क्योंकि वे आतंकवादीयों की खुली या गुप्त सहायता करते थे। आज भी वहां बचे कश्मीरी हिन्दु-सिक्ख लड़कीयों के साथ छेड़-छाड़ और बलात्कारें होती हें, लोगों की हत्याएं होती हैं, किन्तु इनका आकलन नहीं होता। फिर भी उन्होंने श्री गोतिये की बात को नकारते हुए कहा कि सारे कश्मीरी मुस्लिम आतंकी दस्यु नहीं हैं, उनमें से कईओं ने भारत के लिये अपना सर्वस्व खो दिया है, और वहां के कट्टर मतांधों में भी पाकिस्थान के लिये कोई खास सम्मान नहीं बचा है। श्रीमती आशा ने कश्मीरी हिन्दु और सिक्खों को अपनी मिट्टी पर फिर बसने के सपने को साकार करने के लिये केन्द्रीय सरकार को सुझाव दिया कि श्रीनगर के स्मार्ट-सिटी के घोषित होने के साथ-साथ, उपान्तों में कश्मीरी हिन्दु-सिक्खों के लिये सुरक्षित बस्तीयों का निर्माण भी होनी चाहिये।
सदस्यों ने यह भी चेतावनी दी कि अमेरिका में वामपंथीयों ने राजनैतिक रंगभूमि को अच्छी तरह से घेर लिया है, विशेषकर डेमोक्रेटिक पक्ष की ओर से। यह स्वभाव से भारत-विरोधी नीति अपनाते हैं, और मानवाधिकार का स्वांग रचकर भारत और हिन्दुओं को अत्याचारी दिखाने की चेष्टा करते हैं। कश्मीर विषयक बातों में भी यही स्थिति अपनाया जा रहा है। जिन पक्षों ने कश्मीरी हिंदु, सिक्ख और बौद्धों के निरंतर हत्याओं, बलात्कारों और विस्थापन को अनदेखा कर दिया, वे मुस्लिम कश्मीरवासियों के सेल-फ़ोन बंद किये जाने पर आंसु बहाते हैं। भारत में पथराव और अराजकता के उद्दीपन को समर्थन देते हैं, परन्तु चीन और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के निष्ठुर उत्पीडन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जाती। अमेरिका के उमड़ते सियासी परिस्थिति को देखते हुए कुछ परामर्शकारों ने कहा कि भारत को ट्रंप सरकार के बाद आने वाले सरकार के बारे में भी सोचना चाहिये, और डेमोक्रेटिक पक्ष के साथ संबंध सुधारने चाहिये, अन्यथा आगे अमेरिका में तीक्ष्ण भारत-विरोधी नीति की भारी संभावना है।
अंत में जीवन ज़ुतशी ने भावुक होकर कहा कि लोग सेक्यूलर होने की बाते करते हैं, लेकिन उन बातों में आकर उनके समुदाय ने सब कुछ खो दिया। उन्होंने कहा कि श्रीराम मंदिर के भूमि-पूजन को देखकर उनके अंतरंग में यह विश्वास उठी कि लुटे हुए समुदाय के हृदय में अपना खोया हुआ स्थान वापस लेने की इच्छा अभी मरी नहीं। उन्होंने आशा जताई कि सच्चे मन से सेक्यूलर मुस्लिम मित्र आगे आकर उनसे हाथ मिलायें। अपने बच्चों के हृदयों से हिंसा दूर रखें और जग को सुन्दर और दिव्य बनाने की सीख बोएं।
मोहन सपरू ने बॉलीवुड के कुछ हस्तीयों पर कटाक्ष किया, जो आतंकी दस्युओं से सहानुभूति व्यक्त करते हुए बहाना कल्पित करते हैं कि वे पोलीस-कर्मीयों के अत्याचार के कारण हथियार उठाते थे। श्री सपरू ने पूछा कि इतने अत्याचार झेलने के बाद भी कश्मीरी पंडितों ने कभी कहीं पर भी निर्दोष लोगों पर आतंक क्यों नहीं मचाया। उन्होंने हर समुदाय में सद्भाव रखने वालों को नमस्कार किया और एक नये, आशावान् कालचक्र के आरंभ की आशिषें देकर कार्यक्रम समाप्त किया।
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