आज दैनिक भास्कर के में गुर्जर आरक्षण को लेकर बड़ी खबर छापी गई। जिसका शीर्षक ” मिलार्ड! शाहीन बाग बाग जैसे प्रदर्शन मंजूर नहीं, तो रेल रोको आंदोलन मान्य कैसे?” पढ़ने को मिला। एक बार तो सामान्य व्यक्ति को यह सत्य जैसा लगता है। लेकिन विश्लेषण बुद्धि का उपयोग करने से इसमें से बदबू आती है।
इसे पढ़कर मन मस्तिष्क में अनेक सवाल खड़े होते हैं। इसमें सवाल न्यायालय पर है! इसमें सवाल आंदोलनों के तरीकों पर है! किंतु मेरा सोचना इससे भिन्न भिन्न है। मेरे मस्तिष्क में सबसे बड़ा सवाल स्वयं मीडिया और पत्रकारिता पर है। देश की खंडित आजादी के समय से ही मीडिया और पत्रकारिता, कम्युनिस्ट और जिहादी गठजोड़ के हाथों का खिलौना बनी हुई थी। लेकिन इनके एकछत्र शासन के चलते कभी आम जनता के सामने ना तो सत्य उजागर हो सका और ना ही कभी इनका कुरूप चेहरा और चरित्र ही दृष्टिगत हुआ। आम व्यक्ति ने जो पढ़ा, जो देखा उसे ही सत्य मानता चला गया। सूचनाओं और समाचारों से आगे बढ़कर इन्होंने अपने कुत्सित विचारों को प्राथमिकता देकर “निष्पक्षता नकली चाशनी के आवरण में हमेशा विष” ही फैलाया है।
समय बदला तो सोशल मीडिया रूपी टिमटिमाते दीपक ने वामपंथी पत्रकारिता और मीडिया हाउस के घनघोर अंधेरे को चीरना प्रारंभ कर दिया। इस हलके से उजाले में कुछ आशा की किरण नजर आने लगी। आम जनता को सत्य और असत्य में भेद दिखाई देने लगा। धीरे-धीरे तस्वीर साफ दिखने लगी। इस मंद मंद उजाले का प्रभाव ही था कि कुछ मीडिया हाउस और पत्रकारों को भी सत्य दिखने लगा और उन्हें अनुभव हुआ कि अब जनता को सत्य ही दिखाना चाहिए। उन्होंने सत्य का साथ देना प्रारंभ किया। वे सत्य के साथ खड़े होने लगे। धीरे-धीरे पत्रकारिता का छद्मनिष्पक्ष स्वरूप भी धूमिल होता नजर आने लगा। फिर पत्रकारिता खेमों में बंटी हुई दिखाई देने लगी। किंतु इनमें से कुछ पत्रकार और मीडिया हाउस खालीश सत्य के साथ खड़े नजर आने लगे।
इस सब में में पत्रकार और मीडिया हाउस अपनी तथाकथित निष्पक्षता की छवि बचाने की जुगत भी लगाने लगे है। फिर भी रह-रह कर उनका असली चेहरा सामने आ जाने लगा है। यहीं से आपातकाल जैसा दूसरा दौर भी चल पड़ा। अभिव्यक्ति की आजादी भी पक्षपाती होने लग गई। एक तरफ सीनियर पत्रकार ( अर्नब) को पुलिस उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है, वही कुछ मीडिया सरकारी विज्ञापन से उपकृत हुए जा रहे है।
उसी कड़ी में दैनिक भास्कर का यह समाचार देखना और समझना चाहिए। किस उपकार के बदले उसने समाचार को नया और विचित्र रंग दिया है?
इस समाचार से स्पष्ट लगता है कि संपादक महोदय को काफी समय बाद अब एक अवसर नजर आया है जिससे वे शाहीन बाग को जायज ठहरा सकें और न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा कर सके। लगता है यह करने का ठेका भी काफी पहले दिया गया है।
अपने हक के लिए लोकतांत्रिक तरीके से मांग रख रहे समाज की तुलना ऐसे समूह से करना जो केवल ₹500 की मजदूरी और खाने के बदले बिना किसी जायज मांग के पूरे दिल्ली को महीनों तक बंधक बनाकर रख रहे हैं। जहां एक तरफ गुर्जर समाज अपने आरक्षण के अधिकार के लिए आंदोलन कर रहा हैं, जिससे उनका सीधा सीधा हित जुड़ा है। वहीं दूसरी तरफ शाहीन बाग में जिन्होंने रास्ता रोक रखा था, उनका सीधा हित/ अहित कहीं भी नहीं था और ना ही वह नागरिकता कानून से प्रभावित हो रहे थे। फिर भी हठधर्मिता के चलते उन्होंने महीनों तक मार्ग रोक रखा था। ऐसे में इन दोनों की तुलना नितांत बेईमानी होती है।
यह इस अखबार समूह का मानसिक दिवालियापन ही उजागर करता है कि उन्होंने गुर्जर आंदोलन की तुलना पीएफआई जैसे आतंकी संगठन द्वारा वित्त पोषित हठधर्मिता पूर्ण सड़क सड़क रोकने के कृत्य से की है। इस प्रकार की तुलना की हम निंदा करते हैं।
हो सकता है गुर्जर आंदोलन की मांगे मानी जाए अथवा मांने जाने के योग्य ना हो। सरकार इसका आकलन करें। हम उनकी मांग के समर्थन या विरोध की बात नहीं कर रहे हैं। किंतु विचार इस विषय का है कि गुर्जर आंदोलन की आड़ में शाहीन बाग को जायज ठहरा कर मिलार्ड को कटघरे में खड़े करने का कुत्सित प्रयास एक तरह से न्याय प्रक्रिया और जनभावना के विरुद्ध अपराध है। इसके लिए सम्माननीय न्यायालय से हमारी मांग है कि वे इस अखबार समूह के इस कृत्य पर संज्ञान लेकर ऐसी तुलना करके जन भावना के साथ खिलवाड़ करने के लिए, अखबार के विरुद्ध उचित निर्णय लें।
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