शाहीन बाग की तरह ही मंच सज चुके हैं, भाषण देने वाले विशेष वक्ता पूर्व निर्धारित हैं, जमावड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, वहां बिरयानी थी तो यहां पिज़्ज़ा है, वहां खीर थी तो यहां मेवे हैं, वहां AC थे तो यहां मसाज की मशीनें हैं, मनोरंजन का साधन है, सबकुछ सुनियोजित, पहले से अधिक और पहले से बड़ा कुछ करने का षड्यंत्र, ये नया नही है, आइये जानते हैं इन परजीवी वामपंथियों का इतिहास।
सन 1947, भारत स्वतंत्र हो रहा था, कोई विवाद नही था पर वामपंथियों की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने जिन्ना को भड़काया और उसके अलग देश की मांग को समर्थन दिया, डॉ. राम मनोहर लोहिया ने मुस्लिम लीग के ‘पाकिस्तान-प्रस्ताव’ पर कम्युनिस्ट नीति का मूल्यांकन इन शब्दों में किया था, भारतीय मार्क्सवादियों ने भारत विभाजन का समर्थन इस आशा में किया था कि उन्हें नए देश पाकिस्तान में मजबूत आधार मिल जाएगा, भारतीय मुसलमानों में उनका प्रभाव फैलेगा। उनका आकलन इसके अलावा गलत साबित हुआ कि भारतीय मुसलमानों के बीच उन्हें जहां-तहां थोड़ा प्रभाव हासिल हुआ और हिंदुओं में उनके प्रति कोई भारी क्रोध पैदा नहीं हुआ। कट्टरता के प्रति आज चल रही कम्युनिस्ट नीतियों के लिए लोहिया का मूल्यांकन सटीक बैठता है। कम्युनिस्ट पार्टी ने ही ‘मुसलमानों के आत्मनिर्णय का अधिकार’ नामक सिद्धांत गढ़ा। उसके लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने देश में आंदोलन चलाया। अपने कार्यकर्ताओं को मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए भेजा। अंतत: कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय कई मुस्लिम लेखक, शायर पाकिस्तान बनने पर वहीं चले गए। भारत का विभाजन हुआ और नरसंघार ऐसा की इतिहास कभी न भूल पायेगा।
अयोध्या में भी 90 के दशक में जब पहली बार मंदिर मुद्दा उठा तब शुरू में मंदिर का रास्ता साफ था कहीं से कोई विरोध नहीं पर यहां भी वामपंथी नेताओं ने मुसलमान पक्ष को भड़काया और मुद्दा दंगों से होता हुआ अदालत जा पहुंचा, पश्चिम बंगाल में भी वामपंथी पार्टियों नें 34 साल के अपने शासन में राजनीतिक सभ्यता और शिष्टाचार को ताक पर रख कर पूरी तरह से लोकतंत्र को ध्वस्त किया। कैसे भुलाया जा सकता है 1979 में वामपंथी सरकार द्वारा मछिलझापी में शरण मांगने आये निःसहाय दलितों का भीषण नरसंहार? कौन भूल सकता है 21 जुलाई 1993 की घटना को जब बंगाल की वामपंथी सरकार ने विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा कार्यकर्ताओं पर खुलेआम गोलियां चलवा दी थी जिसमे 13 लोग मारे गए थे।
जिन वामपंथियों ने पिछले साल दिल्ली में शाहीन बाग में मुसलमानों को उकसाकर भयानक दंगे करवाये वही वामपंथी आज किसान आंदोलन के ज़रिए सिखों के मन मे नफरत के बीज बो रहे हैं, उनका तरीका एक ही है, लक्ष्य भी एक ही है, खालिस्तानियों के साथ मिलकर वो भारत को एक बार फिर अस्थिर करने पर आमादा हैं, हो सकता है कि उनका निशाना 26 जनवरी हो, वामियों ने दिल्ली को बंधक बनाने का प्रयास पहले भी किया था वो भी किसानों के नाम पर जब दक्षिण भारत के सोने की चेन पहने और खोपड़ी लिए किसान आये थे, उन्होंने शाहीन बाग के ज़रिए एक प्रयोग पुनः किया, और आज की स्थिति इशारा करती है कि ये प्रयास भारत को गृहयुद्ध की तरफ धकेलने का प्रयास है, इस प्रयास में कांग्रेस तो है ही उसके अतिरिक्त देशविरोधी विदेशी ताकतें भी शामिल हो चुकी हैं, कनाडा के प्रधानमंत्री का इसमे कूदना इसका स्पष्ट संदेश है।
स्थापित सत्त्ता को ध्वस्त कर मार्क्सवाद की स्थापना यही इनका उद्देश्य है, इनका रक्तरंजित इतिहास चीख़ – चीख कर इसकी गवाही देता है, पर यहां विषय ये है कि हम कितना तैयार हैं? क्या मोदी जी इस चक्रव्यूह को भेद पाएंगे? क्योंकि यदि उन्होंने ऐसा कर दिया तो भारत से वामपंथ का मिटना तय हो जाएगा, ये कम्युनिस्टों के अस्तित्व और भारत के अखण्ड राष्ट्रवाद की लड़ाई है। इतिहास इस पल को सदा याद रखेगा।
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