देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई ऐसी घटनाये हुई है जिन्होंने कुछ चेहरों को बेनक़ाब तो किया परन्तु हमारे शिक्षा तंत्र में उन्हें छुपा दिया गया। गाँधी का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान माना जाता है परन्तु कुछ साक्ष्य इसके विपरीत भी इंगित करते है।

चौरी-चौरा काण्ड एक घटना थी, जिसका कोई उद्देश्य या कारण नहीं था और ना ही इसमें क्रांतिकारियों का किसी भी प्रकार का योगदान था। यह पूरी तरह से आम-लोगों द्वारा असहयोग आन्दोलन के दौरान किये जा रहे प्रदर्शनों के दौरान हुई एक हिसंक घटना थी। इसी प्रकार १९१५ में एक ग़दर आंदोलन पंजाब में हुआ था जिसका कोई नेता नहीं था और २४ सेनानियों को मौत की सज़ा सुनाई गई। यानि भारत की जनता स्वतंत्रता पाने के लिए स्वयं जागृत हो चुकी थी।  यह अंग्रेजो के लिए बड़ी समस्या थी। उस समय इसे दबाने और कुचलने के लिए एक “विभीषण” की अति आवश्यकता थी। और उन्होंने १९१७ में ऐसा कर भी दिया।

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् तुर्की की हार हुई और उस्मानिया सल्तनत का अंत लगभग निकट आ गया था। युद्ध के उपरांत ब्रिटेन ने तुर्की के खलीफा का पद समाप्त कर दिया। इससे अखंड भारत के मुसलमान अत्यधिक नाराज हुए और अली बंधुओ के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन किया गया जबकि इस आंदोलन का सीधे तौर पर भारत से कोई सम्बन्ध नहीं था। खिलाफत आंदोलन का मुख्य उद्देश्य तुर्की खलीफा के पद को पुनः स्थापित करना  तथा वहाँ के धार्मिक क्षेत्रों से प्रतिबंधों को हटाना था परन्तु इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ कर पढ़ाया जाता है क्योंकि गाँधी ने इसे समर्थन दिया और पीछे पीछे भेड़ समान हिन्दू इसके साथ जुड़ गए। इस आंदोलन के दौरान अत्यंत हिंसात्मक एवं उग्र भाषण दिए जाते थे परन्तु गाँधी का अहिंसात्मक चेहरा और चरखा कभी कुछ नहीं बोले। इस असहयोग आंदोलन का अंग्रेज शासन के लिए ख़त्म होना मजबूरी बन गया था।

इसको ख़त्म करने का कारण चौरी-चौरा की घटना ने दिया और इसका ठीकरा हिन्दुओं के सर पर फोड़ दिया गया। जैसे ही चौरी-चौरा की घटना हुई वहाँ विभीषण को हिंसा दिखाई दे गई और एक पंथ दो काज की नीति आरंभ हुई। अंग्रेजो को दोनों आंदोलनों को एक साथ दबाने का मौका दे दिया गया। ३१ अगस्त १९२० को असहयोग आंदोलन को शुरू किया गया।  हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण खिलाफत आंदोलन इसके सामने छोटा पड़ गया या ऐसा कहें कि खिलाफत आंदोलन को छोटा दिखा कर दबाने की साजिश की गई थी। अगर इस घटना को आज के परिपेक्ष में देखे तो जिस प्रकार से किसान आंदोलन को खालिस्तानियों ने पकड़ लिया है।  ४ फरवरी १९२२ चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा की जिसके साथ खिलाफत आंदोलन भी समाप्त हो गया। इस कारण मुसलमान भारतीय हिन्दुओं से नाराज हो गए।

गाँधी को अक्सर एक काबिल वकील के रूप में जाना जाता है परन्तु वे १८९१ से १९०१ तक ब्रिटेन में एक निरर्थक वकील साबित होने के बाद भारत आ गए। उन्होंने ब्रिटेन का कानून पढ़ा था इसलिए उनकी वकालत भारत में कभी नहीं चली। कभी कभी तो कचहरी तक जाने के लिए रिक्शे के पैसे भी उनके पास नहीं होते थे और उन्हें पैदल ही जाना पड़ता था और इस बात को वो “मैं झूठ नहीं बोल सकता” कह कर छिपा लेते थे। फ्रेडरिक पिंकट ने तो यहाँ तक कहा “तुमने पढ़ाई कम की है”।

चौरी-चौरा आंदोलन में गिरफ्तार हुए सैंकड़ो लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गई जिनकी पैरवी मदन मोहन मालवीय ने की और उन्हें फांसी से बचा लिया परन्तु किसी की भी पैरवी गाँधी ने नहीं की। सभी के सज़ा से बच जाने से  भारत के मुसलमान हिंदुओं से और ज्यादा नाराज हो गए। २० अगस्त १९२१ का दिन केरल के इतिहास में काले दिन के तौर पर दर्ज है। इसी दिन केरल के मालाबार इलाके में मोपला विद्रोह की शुरुआत हुई थी। मोपला में मुसलमानों ने हजारों हिंदुओं की हत्या कर दी थी। हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार किये और हजारों हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर उन्हें मुसलमान बना दिया गया।

पाकिस्तान का एक समाचार पत्र भी इस बात को समर्थन देते हुए अपने सम्पादकीय में लिख चुका है “यदि आरएसएस की स्थापना दस वर्ष पूर्व होती तो पाकिस्तान होता ही नहीं। “

देश में इस प्रकार की अनेक अमानवीय धटनाओं के कारण ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना का मार्ग प्रसस्त हुआ।

वास्तविकता पर ढके हुए पर्दे को उठाने एवं संवैधानिक अधिकार “अभिव्यक्ति की आज़ादी” का श्रद्धा पूर्वक उपयोग कर, भारत के सभी राष्ट्रवादियों को सादर समर्पित।

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