वह था भीषण रण का मैदान,
दोनों और सेनाएँ थी प्रतिग्यावान,
महारथी जुटे थे करने युद्ध,
कौरव, पांडव भाई जो थे एक दूसरे के विरुद्ध!!
सारथि जिसके थे ऋषिकेश,
वह परमवीर था गुडाकेश,
रण का हुआ जब शंखनाद,
परन्तप का गहरा हुआ अवसाद!!
नहीं रही अभिलाषा युद्ध की,
करुना बनी अब मन की साम्राज्ञी,
भ्रम ने डाला मस्तिष्क पर पहरा,
चहुँ ओर दिखा घना अँधेरा!!
रही नहीं कोई इच्छा शेष,
क्या करूंगा पा कर युद्ध के अवशेष!
कुल का होगा जब सर्वनाश,
रह जाएगा बस पश्चाताप!!
श्रीकृष्ण समझ गए अर्जुन का विषाद,
आरम्भ किया परम मित्र से संवाद,
किस कारण है ये असमय मोह,
जो कहलायेगा धर्म से द्रोह!!
शाश्वत ज्ञान की बही धारा,
भगवान् दिखाते अर्जुन को किनारा,
सांख्य योग का दिया पाठ,
कुछ संभला अर्जुन का संताप!!
धनञ्जय की जिज्ञासा और बढ़ी,
कैसे पायें कर्मबंध से मुक्ति,
मधुसुदन ने दिया कर्मयोग का सार,
अर्जुन था हर्षित अपार!!
संवाद ने लिया रोचक स्वरुप,
पार्थ ने जाना आत्मरूप,
ज्ञान,भक्ति योग का रहस्यमयी ज्ञान,
जिसके अभाव में जीवन निष्प्राण!!
श्रीकृष्ण ने दर्शाया विश्वरूप,
अनन्य, अलौकिक एवं दिव्यस्वरूप,
जिसका ना कोई आदि अंत,
जो है अप्रमेय तेज का पुंज!!
अर्जुन था अचंभित और भयभीत,
कम्पन करता हुआ नमित,
देखा कृष्ण का चतुर्भुज स्वरुप,
तेजोमय विराट रूप!!
नष्ट हुआ अर्जुन का मोह रुपी अज्ञान,
जाना गीता का चिरस्थायी प्रज्ञान,
सनातन का यह अद्भुत संवाद,
है कल्याणकारक, विलक्षण एवं अबाध!!
निधि मिश्रा
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