अफगानिस्तान से करीब 20 साल बाद तालिबान की सत्ता में वापसी हुई है। बाकी दुनिया अब भी ये देखने का इंतज़ार कर रही  है की सत्ता मे लौटे तालिबान कैसी शासन करेंगे। क्या दो दशक पहले के तालिबान में कुछ बदला है, या कट्टरपंथी सोच और रूढ़िवादी संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकल पाना तालिबान के लिए मुश्किल है? 

तालिबान शासन में धर्म का पालन सुनिश्चित कराने वाले मंत्रालय के प्रमुख रहे मुल्ला नूरूद्दीन तुराबी ने एक साक्षात्कार में द एसोसिएटेड प्रेस को बताया, कि अगर जरूरी हुआ तो हाथ-पैर या शरीर के अंग काटने की सजा को फिर से लागू किया जाएगा.”

तुराबी ने कहा की, ” सरेआम स्टेडियम में सजा देने के लिए सभी ने हमारी आलोचना की, लेकिन जो हमारी आलोचना करते रहे, हमने उनके कानूनों और उनकी सजा के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। ये कोई हमें नहीं बताएगा कि हमारे कानून में क्या होने चाहिए। हम इस्लाम का पालन करेंगे और हम कुरान पर अपने कानून बनाएंगे।”

सिर्फ इतना ही नहीं, उन्होंने कहा कि “सुरक्षा के लिए हाथ-पैर काटना बहुत जरूरी है।” इस तरह की सजा का एक हतोत्साहित कर देने वाला  प्रभाव होता है। उन्होंने कहा कि मंत्रिमंडल सिर्फ ये अध्ययन कर रहा है कि ऐसी सजा सार्वजनिक रूप से देनी  है या नहीं।”

तुराबी की बयान ये साफ इशारा करती हैं कि तालिबान अभी भी अपनी कट्टरपंथी सोच और  रूढ़िवादी संकीर्ण मानसिकता से बाहर नहीं निकाल पाया है, हालांकि उनमें से कुछ ने सुधारों का आश्वासन दिया है, जिसमें महिलाओं को शिक्षा और काम करने की अनुमति देना शामिल है। लेकिन अब तक तालिबान ने इन आश्वासनों को हकीकत में बदलने के लिए कुछ नहीं किया है। 

कैसी थी 1990 के दशक में तालिबानी सजा? 
एक रिपोर्ट के अनुसार 1990 के दशक में अफगानिस्तान में अपराधियों को सार्वजनिक तौर पर ईदगाह मस्जिद के पास के मैदान में या फिर काबुल स्पोर्ट्स स्टेडियम में सज़ा दी जाती थी.  जो लोग चोरी के दोषी होते थे उनके हाथ काट दिए जाते थे. हाईवे पर डकैती के दोषी का एक हाथ और एक पांव काट दिया जाता था. उस दौर मे संगीत सुनने और दाढ़ी काटने के लिए भी कठोर सजा थी। हालांकि तालिबान 2.0 में पिछले शासन के दौरान प्रतिबंधित कई चीजों की अनुमति मिलने की उम्मीद है।


शरीयत क्या है?
शरीयत इस्लाम की कानूनी व्यवस्था है। यह इस्लाम की पवित्र पुस्तक कुरान, साथ ही सुन्नत से लिया गया है। जहाँ इनस धार्मिक ग्रंथों से सीधे उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इस्लामिक विद्वान ऐसे मे कुरान और सुन्नत के मद्देनजर निर्णय दे सकते हैं।

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