महाराजा सूरजमल भरतपुर , राजस्थान के हिन्दू जाट शासक थे| महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरबरी 1707 में भरतपुर , राजस्थान में हुआ था। महाराजा सूरजमल को सूजन सिंह नाम से भी जाना जाता था। आगरा , एटा , मथुरा , मेरठ , अलीगढ , भरतपुर , धौलपुर , रेवाड़ी , गुडगाँव और रोहतक ये सभी जगह पर उनका शासन हुआ करता था। सूरजमल राजा बदन सिंह के पुत्र थे। महाराजा बदनसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र महाराजा सूरजमल जाट 1756 ई. में भरतपुर राज्य का शासक चुना गया था। राजा सूरज मल में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता, सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य जैसे गुड़ थे। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता के वे सच्चे प्रतीक थे। दिखने में सूरज मल सामान्य और मजबूत थे, बल्कि गहरे रंग का और काफी मोटा थे। उसके पास बेहद टिमटिमाती और विस्मयकारी आंखें थीं। महाराजा सूरजमल अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक थे। इनकी सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे। राजनैतिक कुशलता और कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे जाट जाति का प्लेटों भी कहा जाता है। आज भी विशेष शाही कार्यों पर महिलाओं द्वारा उनकी याद में एक लोक-गीत गाया जाता है, जिसे नीचे प्रस्तुत किया गया है - 'आखा' गढ गोमुखी बाजी। माँ भई देख मुख राजी।। धन्य धन्य गंगिया माजी। जिन जायो सूरजमल गाजी।। भइयन को राख्यो राजी। चाकी चहुं दिस नौबत बाजी।।
एक महान निर्माता :- सूरज मल एक महान निर्माता थे और वेनडेल के अनुसार, अपने शानदार भवनों पर लाखों नहीं बल्कि करोड़ों खर्च किए, जैसे, सही मायने में शाही और शानदार डिग महल और भरतपुर के भव्य किले, दोनों हिन्दुस्तान में अतुलनीय है। गोवर्धन, मथुरा, वृंदावन और अन्य धार्मिक स्थलों में कई टैंक और मंदिर बनाने का श्रेय उन्हें जाता है।इसके अलावा उन्होंने पुण्य कार्यों में लाखों रुपये खर्च किए। बृज में विभिन्न स्थानों पर उनके द्वारा अनेक धार्मिक कर्म किए गए। एक तरफ उन्होंने अपने दरबार को संवारने के लिए आगरा से मुगल भव्यता के सबसे विकल्प टुकड़े किए और दूसरी ओर अपनी संपत्ति को संवारा और दिल्ली के गरीब दरबार के वास्तुकारों के लिए प्रदान किए गए गैर-प्रदान को कला के नए घर में प्रेरित करेंगे ।इसके अलावा अपने किलों पर सूरज मल ने डिग, भरतपुर, वजीर और कुम्हेर को मनमोहक इमारतों, तालाबों और बगीचों से अलंकृत कर करोड़ों रुपये खर्च किए।
दिल्ली की लूट :- सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे। महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी। यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई 'दिल्ली की लूट' का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित 'सुजान चरित्र' में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया। मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली। महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं बल्की ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है। इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया। महाराजा सूरजमल की उदारता :- 14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती| महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रखा, उनकी दवा करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, ढेर सारा अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें। कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरियाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में 'डांगे' भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरियाणा में 'दांगी' भी उन्हीं की शाखा है। चंदौस युद्ध :- महाराजा सूरज मल के जीवन में चंदौस युद्ध महत्वपूर्ण था। चंदौस कस्बा अलीगढ़ जिले में है। 1745 में दिल्ली मुगल बादशाह औरंगजेब कोइल (अलीगढ़) के नवाब फतेह अली खान से नाराज हो गए, इसलिए उन्हें सजा दिलाने के लिए बादशाह ने एक अफगान मुखिया असद खान को भेजा। फतेह अली खान को असद खान के साथ युद्ध में नुकसान और अपमान की उम्मीद थी, इसलिए उन्होंने महाराजा सूरज मल से मदद मांगी। नवंबर 1745 के महीने में सूरज मल के लिए मुश्किल से एक महीना बीत चुका था और बाहरी राजनीतिक और सेना मामलों के मामलों में स्वतंत्र निर्णय लेने का यह उनका पहला मौका था। सूरज मल ने फतेह अली खान को मदद करने का आश्वासन दिया और अपने बेटे की कमान में सेना भेजी और बाद में वह खुद कोइल (अलीगढ़) चले गए । जब असद खान ने 1746 की शुरुआत में कोइल (अलीगढ़) पर हमला किया था, तब चंदौस में युद्ध हुआ था जिसमें असद खान मारे गए थे और शाही सेना हार गई थी। इस तरह सूरज मल की सक्रिय मदद और ताकत से फतेह खान अपने जगीर को बचा सके। इस युद्ध ने भरतपुर रियासत की सत्ता बढ़ाने में मदद की। बगरू की लड़ाई :- बगरू की लड़ाई 20 अगस्त 1748 को बगरू में सवाई जय सिंह के छोटे बेटे माधो सिंह समर्थित मराठों, राठौड़ों, सिसोदिया, हाड़ा, खीची, पंवार शासकों और सवाई जय सिंह के बड़े बेटे ईश्वरी सिंह समर्थित महाराजा सूरज मल के बीच लड़ी गई थी। महाराजा सूरज मल समर्थित ईश्वरी सिंह ने यह लड़ाई जीती। कुम्हेर की लड़ाई :- मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय और उनके विद्रोही दरबारी सिराज उद-दौला गुटीय विवाद चल रहा था। सूरज मल ने सिराज का साथ दिया था। आलमगीर ने इंदौर के होल्कर मराठों की मदद मांगी थी। इंदौर के महाराजा मल्हार राव होल्कर के बेटे खांडेराव होल्कर ने 1754 में सूरज मल के कुम्हेर पर घेराबंदी की थी। कुम्हेर की लड़ाई में खुली पालकी पर सैनिकों का निरीक्षण करते हुए खांडेराव को भरतपुर सेना की तोप का गोला ने मार गिराया। इस घेराबंदी को हटा लिया गया और जाटों और मराठों के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जो बाद में अपने शासन को मजबूत करने में सूरज मल के लिए मददगार साबित हुए ।
आगरा किले पर कब्जा :- जाट समाज के लिये महाराजा सूरजमल का नाम सबसे बड़ा है। भरतपुर एक ऐसी रियासत है जिसे कोई जीत नही सका। कितने ही शोरमा और चले गए। महाराजा सूरज मल ने दोआब क्षेत्र में अपना प्रभाव फिर से स्थापित करने के लिए आगरा किले पर कब्जा करने का फैसला किया। 3 मई 1761 को 4000 जाट सैनिकों के साथ सूरज मल की जाट सेना बलराम सिंह की कमान में आगरा पहुंची और आगरा किले के प्रभारी को महाराजा सूरज मल की मालिश कर बताया कि सेना जमुना को पार करना चाहती है और उसे कैंपिंग प्लेस की जरूरत है। किलादार ने शिविर लगाने की मंजूरी दे दी। इस बीच जाट सेना ने किले में प्रवेश करना शुरू कर दिया, जिसका सुरक्षाकर्मी ने विरोध किया जिसमें 200 लोगों की मौत हो गई। जाट सेना ने जामा मस्जिद से युद्ध शुरू किया था । इस अवधि में महाराजा सूरज मल परिस्थितियों का अवलोकन करने के लिए मथुरा में रुके थे । 24 मई 1761 को महाराजा सूरज मल इजाद और गंगाधर तांतिया के साथ मथुरा से चले गए, जमुना पार कर अलीगढ़ पहुंचे। अलीगढ़ से उनकी सेना ने जाट शासक कोइल और जलेसर के इलाकों पर कब्जा कर लिया। वे जून के पहले सप्ताह में आगरा में अपनी सेना की मदद के लिए आगरा पहुंचे थे। महाराजा सूरज मल ने आगरा शहर में रह रहे सुरक्षाकर्मी के परिजनों को गिरफ्तार कर लिया और सरेंडर के लिए किले के सुरक्षाकर्मी पर दबाव बनाया। अंत में किलदार ने एक लाख रुपये की रिश्वत और पांच गांवों के जागीर को प्राप्त कर आत्मसमर्पण करने की सहमति दे दी । इस प्रकार एक महीने के बाद महाराजा सूरज मल ने 12 जून 1761 को आगरा किले पर कब्जा कर लिया और यह 1774 तक भरतपुर शासकों के कब्जे में रहा। महाराजा सूरजमल की मौत :- हर महान योद्धा की तरह महाराजा सूरजमल को युद्ध के मैदान में मरने का सुख मिलता है। 25 दिसंबर 1763 में नवाब नजीब-उद-दौला से लड़ते समय हिंडन नदी के पास उनकी मौत हो गई। हमेशा की तरह वह शेर की तरह लड़ रहा था। लेकिन नवाब उसे धोखा देते हैं और मौके पर ही मार देते हैं क्योंकि वह जानता था कि अगर वह उसे आजाद छोड़ देगा तो वह उसे माफ नहीं करेगा ।चूंकि मुगल हमेशा धोखा देते हैं के साथ युद्ध जीतते हैं, इसलिए उन्होंने नियमों के साथ कोई युद्ध नहीं किया। लेकिन राजपूत और जाट नियमों के साथ युद्ध लड़ते हैं ।
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