तीव्र मुमुुक्षुत्वगु अथवा गुरुप्राप्ति की तीव्र इच्छा तथा तडप, इस एक गुण के कारण गुरु प्राप्ति शीघ्र होती है एवं गुरु कृपा निरंतर रहती है। युवा अवस्था में किसी कन्या का अपने पर प्रेम हो इसलिए कोई युवक जैसे दिन रात उसी का ध्यान करके मैं क्या करूं, जिससे वह खुश हो इस दृष्टि से प्रयत्न करता है, उसी तरह गुरु मुझे अपना कहें, उनकी कृपा हो, इसके लिए दिन-रात इस बात का ध्यान रखकर मैं क्या करूं जिससे वे प्रसन्न होंगे, इस दृष्टि से प्रयत्न करना आवश्यक होता है । कलियुग में पहले के तीन युगों जितनी गुरु प्राप्ति एवं गुरु कृपा होना कठिन नहीं है । यहां ध्यान में लेने वाला सूत्र यह है कि गुरु कृपा के सिवाय गुरु प्राप्ति नहीं होती। भविष्य काल में कौन अपना शिष्य बनेगा, यह गुरु को पहले ही ज्ञात होता है।
सर्वोत्तम गुुरुसेवा: अध्यात्म प्रसार !
गुरु कार्य के लिए अपनी ओर से जो संभव है, वे सभी कार्य करना, यह सबसे सरल एवं महत्व का मार्ग है, यह सूत्र आगे के उदाहरण से ध्यान में आएगा। समझिए एक कार्यक्रम की सिद्धता के लिए कोई सफाई कर रहा है, कोई भोजन बना रहा है, कोई बर्तन धो रहा है ,तो कोई सजावट कर रहा है। हम साफ सफाई के काम में लगे हैं एवं इस समय और एक व्यक्ति आया एवं वह भोजन बनाने वालों के साथ काम करने लगा, तो हमें उसके विषय में कुछ भी नहीं लगता ,परंतु वही यदि हमें साफ सफाई के कार्य में मदद करने लगे, तो वह अपना सा लगता है । वैसे ही गुरु के विषय में भी है । गुरु एवं संतों का एकमात्र कार्य अर्थात समाज में धर्म के विषय में एवं साधना के विषय में रुचि निर्माण करके सभी को साधना करने के लिए प्रवृत्त करना एवं अध्यात्म का प्रसार करना । हम वही काम यदि अपनी क्षमता अनुसार करने लगे, तो गुरु को लगता है कि यह मेरा है। उनका ऐसा लगना ही गुरु कृपा की शुरुआत है ।
एक बार एक गुरु ने अपने दो शिष्यों को थोड़े गेहूं दिए एवं बताया कि मेरे वापस आने तक ये गेहूं अच्छी तरह संभाल कर रखिएगा । एक वर्ष के उपरान्त वापस आने पर गुरु प्रथम शिष्य के पास गए एवं पूछा गेहूं अच्छे से रखे हैं ना, उस पर उस शिष्य ने हां कहते हुए गेहूं रखा हुआ डिब्बा लाकर दिखलाया एवं कहा आपने दिए हुए गेहूं एकदम सुरक्षित रखे हुए हैं । उसके बाद गुरु दूसरे शिष्य के पास गए एवं उसे भी गेहूं के विषय में पूछा, तब शिष्य गुरु को पास के खेत पर ले गया । गुरु ने देखा कि चारों ओर गेहूं की बालियों से भरी हुई फसल लहलहा रही थी । यह देखकर गुरु को अतिशय आनंद हुआ। इसी तरह अपने गुरुओं द्वारा दिया हुआ नाम तथा ज्ञान हमें दूसरों को देकर बढ़ाना चाहिए।
संदर्भ:सनातन संस्था का ग्रंथ “गुरुकृपा योग”
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