जगन्नाथ यात्रा, भगवान श्री जगन्नाथ के अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों के लिए एक महापर्व है ! पुरी का मंदिर कलियुग के चार धामों में से एक है । केवल भारत के ही नहीं, बल्कि यह यात्रा विश्‍व के श्रद्धालुओं के श्रद्धा एवं भक्ति का उत्कट दर्शन कराती है । यह विश्‍व की सबसे महान यात्रा है । अनेकानेक विष्णुभक्त यहां इकठ्ठा होते हैं । इस स्थान की विशेषता यह है कि, अन्य अधिकांश मंदिरों में श्रीकृष्ण पत्नी के साथ विराजमान है; किंतु इस मंदिर में वे भाई बलराम तथा बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं । पुरी विष्णुभूमि है । अन्य अनेक बुद्धिगम्य विशेषताओं के साथ ध्यान में आने वाली बात यह है मंदिर के सिंहद्वार से अंदर प्रवेश करते ही समुद्र की आवाज बिलकुल बंद होती है; किंतु संपूर्ण पुरी शहर में अन्यत्र कहीं भी जाएं, तो समुद्र की आवाज आती ही रहती हैै । ऐसे अलौकिक मंदिर की रथयात्रा का इतिहास, प्राचीन विशेषताएं तथा सुस्थिती का दर्शन इस लेख द्वारा करेंगे !

पुरी का जगन्नाथ मंदिर भारत के 4 पवित्र तीथक्षेत्रों में से एक है । भगवान श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप मे विराजमान हुए हैं । वर्तमान का मंदिर 800 वर्षों से अधिक प्राचीन है । भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनके बडे भाई श्री बलराम तथा उनकी बहन सुभद्रादेवी का भी पूजन यहां किया जाता है । पुरी रथयात्रा के लिए श्री बलराम, श्रीकृष्ण तथा देवी सुभद्रा के लिए 3 पृथक रथ बनाए जाते हैं । इस रथयात्रा में सबसे आगे श्री बलराम का रथ, बीच में सुभद्रा देवी तत्पश्चात् भगवान जगन्नाथ का (श्रीकृष्ण का) रथ रहता है ।

श्री बलराम के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है । इस रथ का रंग लाल तथा हरा रहता है । देवी सुभद्रा के रथ को ‘दर्पदलन’ अथवा पद्मरथ’ कहा जाता है । वह काला, नीला अथवा लाल रंग का रहता है । भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘नंदीघोष’ अथवा ‘गरूडध्वज’ कहा जाता है । उस रथ का रंग लाल अथवा पीला रहता है । इन तीनों रथों की विशेषताएं इस प्रकार है, ये तीनों रथ कडुनिंब के पवित्र एवं परिपक्व लकडियों से तैयार किए जाते हैं । उसके लिए कडुनिंब का निरोगी एवं शुभ पेड चुना गया है । उसके लिए एक विशेष समिति भी स्थापित की गई है । इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के धातु का उपयोग नहीं किया जाता । आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को रथयात्रा आरंभ होती है । उस दिन ढोल, नगाड़े, तूतरी तथा शंख की ध्वनि में भक्तगण इस रथ को खींचते हैं । श्रद्धालुओं की यह श्रद्धा है कि, यह रथ खींचने की संधि जिसे प्राप्त होती है, वह पुण्यवान माना जाता है । पौराणिक श्रद्धा के अनुसार यह रथ खींचने वाले को मोक्षप्राप्ति होती है ।

श्री जगन्नाथ मंदिर की अद्भुत एवं बुद्धि अगम्य विशेषताएं – अनुमान से 800 वर्ष प्राचीन इस मंदिर की वास्तुकला इतनी भव्य है कि, संशोधन करने के लिए विश्‍व से वास्तुतज्ञ इस मंदिर का भ्रमण करते हैं । यह तीर्थक्षेत्र भारत के 4 पवित्र तीर्थ क्षेत्रों में से एक है । श्री जगन्नाथ मंदिर की ऊंचाई 214 फीट है । मंदिर का क्षेत्रफल 4 लाख वर्गफीट में फैला हुआ है । पुरी के किसी भी स्थान से मंदिर के कलश पर विद्यमान सुदर्शन चक्र देखने के पश्‍चात् वह अपने सामने ही होने का प्रतीत होता है । मंदिर पर विद्यमान ध्वज निरंतर हवा के विरूद्ध दिशा से लहराता है । प्रतिदिन सायंकाल के समय मंदिर पर लहराने वाले ध्वज को परिवर्तित किया जाता है । साधारण रूप से प्रतिदिन हवा समुद्र से भूमि की ओर बहती है तथा सायंकाल के समय उसके विरूद्ध जाती है; किंतु पुरी में उसके विपरीत प्रक्रिया घटती है । मुख्य गुम्बद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है । यहां पंछी तथा विमान विहरते हुए कभी भी दिखाई नहीं देंगे । भोजन हेतु मंदिर में पूरे वर्ष तक खाना खा सकें, इतनी अन्नसामग्री रहती है । विशेष रूप से यह बात है कि, यहां महाप्रसाद बिलकुल व्यर्थ नहीं जाता । इस मंदिर की रसोई विश्‍व के किसी भी मंदिर में रहने वाली रसोई से अधिक बड़ी है । यहां महाप्रसाद बनाते समय मिट्टी के बर्तन एक के ऊपर एक रखकर किया जाता है । सर्व अन्न लकडी प्रज्वलित कर उसके अग्नि पर पकाया जाता है । इस विशाल रसोई में भगवान जगन्नाथ को पसंद होने वाला महाप्रसाद बनाया जाता है । उसके लिए 500 रसोइये तथा उनके 300 सहायक एक ही समय पर सेवा करते हैं ।

हिन्दुओं का महान तीर्थक्षेत्र श्री जगन्नाथ मंदिर की दुःस्थिति – मंदिर जाने के उपरांत ध्यान में आता है कि मंदिरों में आनेवाले श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक सुविधाओं का अभाव है । पुरी के विश्वविख्यात ‘जगन्नाथ’ मंदिर की सफाई की स्थिति गंभीर है । मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के अंदर की ओर सर्वत्र पान खाकर उसकी पिचकारियां दिखाई देती हैं । अतः मंदिर के परिसर में प्रवेश करते समय यह प्रश्‍न उत्पन्न होता है कि, ‘क्या हम किसी शौचालय में तो प्रवेश नहीं कर रहे है ?’ यहां का प्रत्येक पंडा (पुजारी) तंबाकू खाकर बातचीत करता हुआ पाया जाता है । मुंह मे पान एवं तंबाकू ऐसे ही स्थिती में ये पण्डे मंदिर के गर्भगृह में खडे रहते हैं । गर्भगृह के कोने भी उनके मुंह के पान के पिचकारियों से रंगे हैं । मंदिर में प्रवेश करते समय मंदिर का पानी जहां से बाहर जाता है उसी गंदे नाले में ही लोग शौच करते हुए दिखाई दिए । मंदिर में गर्भगृह में दर्शन हेतु पहुंचने के पश्चात वहां उपस्थित पंडा हर कदम पर 500 -1000 रुपएं मांगते हैं । ईश्‍वर का दर्शन प्राप्त करने के लिए सहज है कि भक्त यह धन देते हैं । किंतु जो धन देने में असमर्थ हैं, उन्हें पास से दर्शन प्राप्त नहीं होता । कमाल की बात यह है कि, दर्शन का धन पृथक तथा ईश्‍वर को आरती-नैवेद्य दिखाने का धन पृथक रहता है । वास्तविक रूप से पंडो द्वारा श्रद्धालुओं की होनेवाली यह लूट ही है !

श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था

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