प्रो. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय बौद्धिकता के उच्चतम शिखर है। इतिहास व साहित्य पर किया गया कार्य उनकी विद्वता को प्रमाणित करता है। न केवल ‘पाणिनि कालीन भारत’ बल्कि ‘पद्मावत’ जैसे महाकाव्य की ‘संजीवनी व्याख्या’ लिखकर उन्होंने विद्वत समाज को अपने इतिहासबोध और साहित्य-दृष्टि का लोहा मनवाया।

प्रो. साहब ने सन 1967 में ‘चक्रध्वज’ नामक एक पुस्तक लिखी। जो ‘राष्ट्रीय पुस्तक न्यास’ से प्रकाशित हुई ।इस पुस्तक में उन्होंने राष्ट्रध्वज में अंकित ‘अशोक-चक्र’ को मौर्यकाल के सीमित दायरे से निकालकर भारत की पाँच हजार वर्षों से चली आ रही परम्परा के आयाम के रूप में स्थापित किया। पुष्ट तथ्यों और प्रभावी तर्कों द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि अशोक स्तम्भ का स्वभाव वैदिककाल से सतत जुड़ा हुआ है।

उन्होंने लिखा कि ऋग्वेद के अनुसार पृथ्वी का आधार एक स्तम्भ है तथा समस्त संसार उस स्तम्भ से अव्यक्त रूप से जुड़ा हुआ है। उस स्तम्भ के शिखर पर काल व भव के प्रतीक के रूप में सूर्य विद्यमान है। यह सूर्य रूपी चक्र सम्पूर्ण लोकों को धारण करता है। उनके अनुसार स्तम्भ निर्माण के चिह्न वैदिक यज्ञ-सत्रों में भी उपलब्ध होते हैं। तत्समय यज्ञ-स्थल पर स्तम्भ रोपे जाते थे जिन्हें ‘यूप’ कहा जाता था। ये यूप जंगल से लाये गए बड़े-बड़े वृक्षों से बनाये जाते थे। किन्तु कालांतर में यूप हेतु लकड़ी के बजाय पाषाण का प्रयोग किया जाने लगा।

ललित विस्तर ग्रंथ का उदाहरण देकर वे सिद्ध करते हैं कि चक्र के संबंध में ऋग्वेद की ‘सनाभि’ व ‘सनेमि’ जैसी शब्दावली को बौद्ध ग्रंथों में जस का तस प्रयुक्त किया गया है।

विदित है कि चुनार पत्थर से निर्मित अशोक-स्तम्भ सारनाथ की खुदाई से प्राप्त हुआ है। जिसके स्तंभदण्ड, पूर्णघट, चतुष्सिंह आदि कुल पांच भाग है। यह स्तम्भ अत्यंत सुंदर व चमकीला था। चीनी यात्री युवांचान्ग ने भी अपने यात्रा वर्णन में इसका उल्लेख किया है।

इस स्तम्भ से मिलते- जुलते और भी कईं स्तम्भ मिले हैं जो भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न स्थलों पर स्थापित किये गए थे। जैसे कि सांची व उदयगिरि में एक सिंह वाला धर्मचक्र स्तम्भ। मथुरा-कला में निर्मित सिंहस्तम्भ जिस पर एक दम्पति को चक्र की परिक्रमा करते दिखाया है। आदि।

अशोक स्तम्भ का एक मुख्य भाग जिसे इतिहासकारों ने ‘घंटाकृति’ की संज्ञा दी, वासुदेवजी ने उसे घट(कलश) माना। उनके अनुसार वह घट ‘मंगल-कलश’ का परिचायक है। ऋग्वेद में इसे ‘भद्रकलश’ कहा गया है। इसी का नाम अर्थववेद में ‘पूर्णकुम्भ’ मिलता है। इस मंगल कलश को वैदिक साहित्य में कहीं- कहीं पर काल का प्रतीक भी माना गया है। पालि साहित्य में इसे ‘पूर्णघट’ कहा गया है।

स्तम्भ के अंडफलक पर अंकित चार महापशुओं( हाथी, बैल, घोड़ा, शेर) जिन्हें बौद्ध साहित्य में ‘महाआजनेय पशु’ कहा गया है, का सम्बन्ध भारतीय संस्कृति की अविरल धारा से जोड़ते हुए वे उन्हें ऋग्वेद के इन्द्र से सम्बद्ध करते हैं।वे उदाहरण देते हैं कि पुराणों में गणपति,नंदीश्वर, नरसिंह और हयग्रीव नामक चार देवों की कल्पना की गई है। इसके अतिरिक्त सिंधु सभ्यता की मुद्राओं पर भी इन पशुओं का साझा अंकन मिलता है। जैन साहित्य में अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याधमुख नामक चार द्वीप अभिकल्पित किये गए हैं। और कि, अंकित किये गए ये पशु-चक्र ऐसी लोक-सृष्टि की ओर संकेत करते हैं जिसे पौराणिक व वैदिक साहित्य में ‘लोक-विभाग’ तथा बौद्ध व जैन साहित्य में क्रमशः ‘लोक-निदेश’ व ‘लोक-प्रज्ञप्ति’ कहा गया है।

जैसा कि मथुरा-कला के स्तम्भ में दंपति द्वारा चक्र की परिक्रमा करने का उल्लेख किया गया, उससे यह ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में चक्र और स्तम्भ की पूजा का विधान भी था। चक्र की पूजा को ‘चक्रमह’ और स्तम्भ की पूजा को ‘स्तम्भमह’ कहा जाता था। अमरावती, मथुरा, बोधगया आदि स्थलों से इसके प्रमाण भी मिलते हैं। चक्र पूजा सम्बन्धी एक पट्ट मथुरा के कंकाली टीला से भी मिला है जिस पर अष्टकुमारिकाएँ अंकित हैं। यह पट्ट जैन पन्थ से प्रेरित है।

प्रोफेसर साहब के अनुसार सारनाथ का स्तम्भ सम्राट अशोक के विचारों का मूर्त रूप है। इसमें दो आदर्शों का चित्रण हुआ है। पहला चक्रवर्ती का तथा दूसरा योगी का। चक्रवर्ती के आदर्श का सूचक सिंह है तो योगी के आदर्श का सूचक धर्मचक्र है जिसमें एक शासक के लिए इन्द्रिय निग्रह व वासनाओं के त्याग को उच्च मूल्य माना गया है। इस प्रकार अशोक स्तम्भ भले ही मौर्यकाल की निर्मित हो किन्तु उसमें अंकित चित्र व भाव भारतीय संस्कृति की उस धारा के उज्ज्वल आयाम है जो अनादिकाल से अनवरत प्रवाहित है।~Dinesh Sootradhar

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