रास्तों पर बेमियादी कब्ज़ा मंजूर नहीं, ये बताने के लिए 10 महीने लग गए – आज पुलिस का काम बता दिया और
पुलिस काम करे, उस पर सवाल क्यों?

शाहीन बाग़ पर आतंकियों ने महिलाओं और बच्चों को आगे करके उसी 14 दिसंबर, 2019 को कब्ज़ा कर लिया जिस दिन सोनिया गाँधी ने CAA के खिलाफ आर पार की लड़ाई के लिए सड़कों पर आने के लिए कहा था और ये कब्ज़ा 22-24 फरवरी, 2020 के दिल्ली दंगों के बाद भी मार्च, 24 तक जारी रहा —

7 अक्टूबर, 2020 को अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस कृष्ण मुरारी ने कहा कि रास्तों पर बेमियादी कब्ज़ा मंजूर नहीं किया जा सकता – बेंच ने कहा —

“शाहीन बाग़ इलाके को प्रदर्शनकारियों से खाली कराने के लिए दिल्ली पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए थी -ऐसे हालात में प्राधिकारियों को खुद कदम उठाना चाहिए – वे अदालत की आड़ नहीं ले सकते और ना ही अपनी प्रशाशनिक गतिविधि के लिए अदालत से समर्थन मांग सकते- अदालत किसी कदम की वैधानिकता पर फैसला
करती है- प्रशाशन को बंदूक चलाने के लिए कन्धा देना अदालत का काम नहीं है”

अगर पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए थी तो, पहले यही सोचती रहती कि प्रदर्शनकारी यदि उस पर हमला करेंगे तो किस वैधानिक तरीके से उनसे निबटा जाये क्यूंकि वो फिर सुप्रीम कोर्ट भी देखेगा और मानवाधिकार आयोग तो है ही पुलिस की ऐसी तैसी करने करने के लिए —

शाहीन बाग़ इतना आसान होता तो 19 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस के एम् जोसफ की पीठ शाहीन बाग़ को घेर कर बैठे प्रदर्शनकारियों की मान मनौव्वल कर उन्हें किसी और जगह जाने के लिए राजी करने को वार्ताकारों (बिचौलियों) को ना भेजते -तब भी अदालत ने कहा था कि इस तरह रास्तों पर कब्ज़ा नहीं किया जा सकता –

इसका मतलब साफ़ था कि सुप्रीम कोर्ट खुद कोई सख्त कदम उठा कर शाहीन बाग़ खाली कराने की क्षमता नहीं रखता था और आज जिम्मेदारी डाल दी पुलिस पर कि उसने समय पर कार्रवाई नहीं की —

रास्तों को इस तरह घेरना आप खुद मानते हैं, स्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर ऐसे में पुलिस प्रशाशन को गैरकानूनी तौर पर कब्ज़ा किये गए इलाके को संवैधानिक तरीके से मुक्त कराने के लिए उन्हें समर्थन देने में अदालत को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए –वैसे ऐसी अनुमति पुलिस ने नहीं मांगी थी –ये याचिका दायर करने वाले ने मांग की थी —

सुप्रीम कोर्ट को पुलिस की विवशता को समझना चाहिए था क्यूंकि अदालत के वार्ताकारों की भी बात मानने से प्रदर्शनकारियों ने मना कर दिया –

अदालत को समझना चाहिए था कौन कौन लोग वहां जाते थे जनमानस को दंगों के लिए भड़काने के लिए और शाहीन बाग़ एक मंच था आतंकियों द्वारा सजाया गया जहां से दंगों का साजो सामान और धन जुटाया गया —

महिलाओं और बच्चों को आगे रख कर बिठाना ही दंगे फैलाने का एकमात्र लक्ष्य था कि पुलिस जरा सी सख्ती करे और वो उसी की आड़ में आग लगा देते –

इसलिए अदालत ने फैसले में जो कहा, वो सभी
को मालूम होने के बावजूद, कहने लिए अदालत
का धन्यवाद् लेकिन भविष्य में पुलिस की कार्रवाई
पर जरूरत होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगे तो अच्छा
होगा –करीब 100 पुलिस वाले फरवरी के दंगों
में चोटिल हुए थे, उन्हें चोटिल करने वालों को
कोई कन्धा नहीं मिलना चाहिए —

(सुभाष चन्द्र)
“मैं वंशज श्री राम का”
09/10/2020

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.