हिंदी भाषा न जाने कितने सालों से नेताओं के लिए राजनीति करने का सबसे आसान टॉपिक रहा है। कहने की जरुरत नहीं है कि हिंदी के नाम पर कहाँ राजनीति की जाती है। भारत देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती है लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिकेशन करना हो तो हिंदी और अंग्रेजी भाषा ही माध्यम है। इन दोनों भाषाओं को भारतीय संविधान भी स्वीकृत करता है।
अनुच्छेद 120. संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा – भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा
परंतु, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी में या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृ-भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
अनुच्छेद 343. संघ की राजभाषा– संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं है हिंदी और अंग्रेजी भाषा को एक बड़ा वर्ग आसानी से समझ लेता है।
लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि इन दो भाषाओं को बोलने मात्र से लोग अपनी मातृभाषा भूल गए या भूल जायेंगे। लेकिन इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जहाँ अंग्रेजी बोलना ज्यादा पढ़े-लिखे होने की निशानी है वही दूसरी ओर हिंदी बोलना कम पढ़े-लिखे होने को इंगित करता है। बाकि इन दोनों भाषाओं के अलावा जितनी भाषाएँ बोली जाती है उसको लोग ज्यादा पढ़े-लिखे या कम पढ़े-लिखे दोनों में से किस श्रेणी में डालते है इसका मुझे ज्ञान नहीं क्योंकि मै भाषा को इस तरह से कैटेगराइज़ नहीं करती।
अंग्रेजी बोलने से इम्पोज़ जैसे भारी-भरकम शब्द की आवश्यकता नहीं पड़ती लेकिन जैसे ही आप हिंदी बोलने लगेगें तो इम्पोसिशन जैसे शब्द स्वतः ही सुनाई देने लगते है। आपको यह याद दिलाया जायेगा कि आप बाहर राज्य के है और आप उनपर अपनी भाषा थोप रहे है। आश्चर्य है इन तथाकथित ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों को बहस करने का केवल मुद्दा चाहिए।
मैं ज्यादा दूर नहीं जाउंगी छत्तीसगढ़ की ही बात करती हूँ, यहाँ 36 तरह की भाषाएँ बोली जाती है जैसे छत्तीसगढ़ी, गोंडी, हल्बी, भतरी, मुरिया, माडिया, पहाड़ी कोरवा, उराँव आदि आदि। वैसे तो 36 से ज्यादा ही है। लेकिन जब पुरे प्रदेश को सम्बोधन करना हो तो हिंदी भाषा ही माध्यम है। प्रदेश के अधिकतर निवासी हिंदी समझते है। क्योकि सामान्यतः शब्दों के मूल और अर्थ एक समान है। हालांकि छत्तीसगढ़ में कभी भाषा को लेकर बहस का मुद्दा नहीं रहा।
अब थोड़ी और दूर जाते है IT शहर बेंगलुरु की बात करुँगी यहाँ एक-एक सोसायटी में पुरे गांव की जितनी आबादी रहती है। जो अपने-अपने घरों में अपनी भाषा में बात करते है लेकिन जब वे सोसाइटी के पार्क में होते है तो आपस में अंग्रेजी में बात करते है। जबकि अंग्रजी की जगह हिंदी होना चाहिए था। और यह कहने का मेरे पास वैध कारण है:
सामान्यतः सभी भारतीय भाषाओं शब्दों के मूल और अर्थ एक समान है।
हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ आपस में सम्बंधित है और इस तरह इन्हे बोलने वाले भी आपस में कनेक्ट हो पाते है। एक अपनत्व की भावना आती है। और इसी अपनत्व को स्वीकारते हुए लोग आपकी मातृभाषा को भी आत्मसात करेंगे। इसमें कोई थोपने वाली बात नहीं है।
हाल ही में सोशल मिडिया में ऐसे कई वीडियो वायरल हुए है जिसमे हिंदी भाषी लोगों पर्यटकों और वहां काम करने वाले अन्य राज्यों से आए हुए मजदूरों को हिंदी बोलने की वजह से परेशान किया जा रहा है। मेरा उन लोगों से यही निवेदन है कि 2-3 दिन लिए घूमने वाले पर्यटकों को परेशान करने के बजाए उनसे टूटी फूटी हिंदी में संवाद करे यकीन मानिये दोनों ही अच्छी यादें साथ लेकर जायेंगे। और रही बात हिंदी भाषी मजदूरों की तो उन्हें आप कम्युनिटी सेण्टर बनाकर अपनी भाषा सीखा सकते है।
और जिन्हे लगता है कि हिंदी बोलने से उनकी अपनी मातृभाषा गौण हो जाएगी और उनकी संस्कृति नष्ट हो जाएगी तो इस भ्रम से निकालिये आज भी गुजराती, मराठी, पंजाबी, नेपाली, बंगाली, असमिया, ओड़िया बोलने वालों का अस्तित्व है। लेकिन जिस तरह से स्कूलों और कार्यस्थलों में अंग्रेजी का चलन बढ़ा है उससे एक दिन जरूर मातृभाषा गौण हो जाएगी और उनकी संस्कृति नष्ट हो जाएगी।
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