भारतीय बॉलीवुड ने एक चरणबद्ध तरीके से सनातन को नीचा दिखाने की शास्वत प्रयास किया है। इसमें दुख की बात है कि बड़े-बड़े सनातनी सेक्यूलर भी कलात्मक स्वतंत्रता की बात कह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं॥ कुछ फिल्मों का नाम लिया जा सकता है… राम तेरी गंगा मैली, लक्ष्मी बम, पद्मावती , राम अवतार, शिवशक्ति, राम तेरे कितने नाम , गोलियोंकी रासलीला : रामलीला , ओ माइ गाड , सत्यम् शिवम् सुन्दरम् और आज कल की वेब सिरीज तांडव आदि कुछ ऐसे नाम है जिनसे भारतीय बहुसंख्यक की आस्था के प्रतिमान जुड़े हुए हैं या कहे आस्था जुड़ी हुई है। यह आपको एक सामान्य घटना लगे क्योंकि देवताओं के नामों पर किसी का कॉपीराइट तो है नहीं। कोई भी अपने बेटे का नाम बेटी का नाम नौकर का नाम यहां तक कि कुत्ते का नाम भी रख सकता है परंतु इस परिस्थिति में पैगंबर, क्राइस्ट, जीसस अब्राहम, जरथुस्त्र, मूसा, सेण्टा आदि आदि नाम किसी भी फ़िल्म में नहीं रखे गये । आप फ़िल्म का नाम अर्जुन पंडित ढूंढ सकते हैं पर फादर फ़्रान्सिस या मदर मेरी , बदनाम फ़ातिमा , बेरहम काज़ी जैसा कोई नाम किसी फ़िल्म का नहीं देखा होगा।
इन सारे फ़िल्मों में अगर इन दैवीय नामों के बदले कुत्ता कमीना भी लिखा जाता तो कहानी में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। मज़े की बात तो ये है कि ओ माइ गाड का नाम अंग्रेज़ी है पर मज़ाक सनातन के देवी देवताओं का उड़ाया जा रहा है।
किसी सिनेमा और फिल्मी दुनिया ही नहीं एनसीईआरटी की किताबों में भी आपको राम सीता हनुमान आदि के कार्टून बने हुए मिलेंगे मिलेंगे जबकि जैसा किसी पैगंबर, सूफ़ी आदि का कोई भी कार्टून आप कहीं नहीं ढूँढ सकते। एक आध कोशिश हुई तो दुनियाँ को शार्ली एब्दो जैसा हमला झेलना पड़ा।
फिल्मों में विदूषक के बदले पुरोहित और ब्राह्मण दिखाए गए पर क्या कोई मौलवी .काज़ी या पादरी विदूषक के रूप में आपको दिखा है क्या?
सनातन का एक देव चरित्र देवर्षि नारद के रूप में तो हमेशा कॉमेडियन का ही चयन हुआ जबकि मस्जिद के मौलवी या चर्च के पादरी का चरित्र हमेशा उन्नत और उदात्त दिखाया गया।
अगर युवाओं में चर्चित फिल्म शोले की बात करें तो शिव के पीछे एक लाउडस्पीकर लेकर यह छिछोरा हीरो ईश्वर की आवाज निकाल कर अपनी अनूठी शैली में अपनी प्रेमिका पर डोरे डालता है लेकिन गांव का मौलवी रहीम चाचा अपने बेटे के लाश को छोड़कर भी नमाज पढ़ना जरूर चले जाते हैं ।
सारे नास्तिक चरित्र आम तौर पर सनातनी हीं होते हैं या दिखाये जाते हैं। पर प्रश्न है कि सारे मजाक का केंद्र सनातन के चरित्र ही क्यों होते हैं ?
क्यों किसी पैगंबर को केंद्र बनाकर हास्य लिखा नहीं जा सकता या क्यों किसी पादरी को भ्रष्ट दिखाकर रियलिस्टिक स्टोरी नहीं बनाई जा सकती?
मेरा मानना है कि सिर्फ हंगामा करना ही सनातन के संगठनों में रह गया है। सरकार भी इस हंगामे को किसी प्रच्छन्न लाभ की स्थिति में प्रयोग करने के लिए जस का तस छोड़ कर चुपचाप निकल जाती है। ऐसा क्यों नहीं होता कि जब फिल्म प्रमाणन बोर्ड फिल्म के टाइटल पेटेंट करता है उस समय ४ या ५ धर्म के विशेषज्ञ उस कमेटी के मेंबर होने चाहिए जो यह बताएं कि इस शीर्षक से जनमानस धार्मिक रूप से आहत हो सकता है या फिल्म की यह घटना आस्था के इको सिस्टम खराब कर सकती हैं।
जब फिल्म पूरी बन जाती है तब का हंगामा एक सोची समझी राजनीति है । ऐसा हंगामा और उत्पात कभी भी सनातन के हित में नहीं हो सकता। ऐसी फिल्मों के 90% जुड़े कलाकार और कार्यकर्ता हिंदू ही होते हैं और वह अपने पेट के लिए आँखों देखी मक्खी निगल जाते हैं जबकि यही बात यदि अन्य संप्रदायों में हो तो हंगामा हो जाता है ।
फ़िल्म सिंह इज किंग और जो बोले सो निहाल पर सिखों ने कड़ी आपत्ति जताई और आगे जाकर कलाकारों की स्पष्टीकरण के बाद ही उस फिल्म को प्रदर्शित होने दिया गया । यकीन मानिए कि भारत में सिख अल्पसंख्यक हैं , इस्लाम अल्पसंख्यक है , ईसाई अल्पसंख्यक है तो उनकी आस्था के शिखरों को खंडित करने वालों की जुर्रत को औकात दिखाने की ताकत संविधान देता है पर बहुसंख्यक सनातन के लिए ऐसा कोई अवसर नहीं है। सेक्यूलर भारत में सहिष्णुता की कीचड़ से लिपटे अपमान के जूते खाने के अलावा सनातन के लिये कोई और संवैधानिक उपचार नहीं।
धर्म एक देश की आत्मा होता है और देश के संसाधन देश की जायदाद। मुझे लगता है सत्ता को ना जायदाद बेचने में शर्म आ रही है और ना आत्मा को गिरवी रखने में।
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